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एक देश के अंदर तमाम भागों में विभक्त हैं हम

मुकेश बोरा, लेखक एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं यह संविधान केवल शासन के काम-काज के निर्देश नहीं देता, बल्कि यह देश के नागरिकों के अधिकारों व कर्तव्यों को भी निर्देशित करता है, रेखांकित करता है. इस तरह स्वतंत्रता दिवस आजादी का उत्सव है, तो गणतंत्र दिवस आत्मनिरीक्षण का पर्व है. आज हम अपना 69वां गणतंत्र दिवस मना […]

मुकेश बोरा, लेखक एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं

यह संविधान केवल शासन के काम-काज के निर्देश नहीं देता, बल्कि यह देश के नागरिकों के अधिकारों व कर्तव्यों को भी निर्देशित करता है, रेखांकित करता है. इस तरह स्वतंत्रता दिवस आजादी का उत्सव है, तो गणतंत्र दिवस आत्मनिरीक्षण का पर्व है. आज हम अपना 69वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. ऐसे में देश के सामने उन तमाम सवालों पर आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है कि बीते सालों में गणतंत्र की इस यात्रा में कहां तक पहुंचे हैं हम?

पिछले दिनों एक केंद्रीय मंत्री ने संविधान को लेकर विवादित बयान दिया कि भविष्य में हमारी सरकार भारत का संविधान बदल सकती है. हालांकि, बाद में यह बयान वापस ले लिया गया, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए इस तरह की बयानवाजी करना भारतीय गणतंत्र को कमजोर करता है. दरअसल, संविधान का उद्देश्य कानून का राज, सामाजिक और आर्थिक समानता, सभी प्रकार के भेदभाव से मुक्ति और भारत को ऐसा राष्ट्र बनाना था, जिसमें स्वस्थ, विचारवान और संतुष्ट नागरिक रहते हों, लेकिन आज की वर्चस्वशाली राजनीति इन सभी मानकों को ध्वस्त करने का प्रयास कर रही है. जब तक राजनीति का लक्ष्य राजनीति ही रहेगा, तब तक गणतंत्र में संकट बना रहेगा. ऐसा ही दृश्य पद्मावती फिल्म, बाद में जिसका नाम पद्मावत कर दिया गया के दौरान भी देखने को मिला. कुछ राज्यों में संविधान की भावना के विपरीत अपने राज्य में फिल्म को बैन करने का फैसला लिया और जब देश की सबसे ऊंची अदालत ने घोषित कर दिया कि यह फिल्म सारे देश में चलायी जायेगी तो इन मुख्यमंत्रियों की चिंता, पद्मावती की इज्जत बचाने से ज्यादा, अपनी घोषणा की इज्जत बचाने की हो रही है. यह देश के मूल भावना संविधान और वोट बैंक की राजनीति के बीच के संघर्ष की ओर इशारा करता है.

लोकतांत्रिक भारतीय गणराज्य में पनप रहे राजनीतिक परिवारवाद एवं भ्रष्टाचार को देख कर निराशा होती है. आज भी लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के बाद भी हमारे द्वारा चुने गये लोगों में वंचित और शोषित वर्ग को स्थान नहीं मिल पाता है. भले ही संविधान देश के हर व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार देता हो, लेकिन सवाल यह है कि कितने गरीब लोग चुने जा रहे हैं और इस दौर में इसकी जिम्मेदार जनता भी उतनी ही है, क्योंकि वह प्रलोभन में आकर संविधान प्रदत्त शक्तियों को भूल जाती है. बाद में पछतावा करते रहती है.

हमारा संविधान दुनिया के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है. यह एक अहम दस्तावेज है. न केवल इसलिए क्योंकि यह भारतीय राज्य का ढांचा, उसके संस्थान और उसकी शासन प्रक्रिया को तय करता है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह देश के भविष्य की दृष्टि भी सामने रखता है. हमारे पुरखों ने संविधान के तत्वों में यही समाहित करने का प्रयास किया था. श्रीनगर से श्रीपेरंबदूर तक और गांधीनगर से गुवाहाटी तक फैले भारत देश की खूबसूरती यहां की विविधता में भी एकता है. लेकिन सांप्रदायिकता एवं धार्मिक उन्माद के कारण भारतीयता की भावना क्षरण हो रहा है.

हमारे पुरखों के बनाये संविधान को ताक में रख कर अपनी धार्मिक कुठांओं के चलते तथाकथित देशभक्त देश तोड़ने को आमादा रहते हैं. आजादी के बाद भारतीयता की भावना का एहसास केवल 15 अगस्त या 26 जनवरी को ही होता है या फिर भारत-पाकिस्तान के मैच में. बाकी दिन हम एक देश के अंदर तमाम भागों में विभक्त है. धर्म, जाति, रंग-रूप, क्षेत्र, भाषा आदि की दीवारों से बंटे हम एक भारत में रह रहे हैं. ये दीवारें हमने ही बनायी हैं, वरना संविधान में तो ‘भारतीयता’ एकमात्र मंत्र है.

समाज में संविधान को लेकर जागरूकता का अभाव है. पिछले 68 सालों में इस क्षेत्र में विशेष पहल भी नहीं की. यह केवल कानून के जानकारों एवं वकीलों की बपौती बन कर रह गया है. आम लोगों इसे उतना ही बताया जाता है या वे जान पाते हैं, जितना राजनीतिक लाभ के लिए आवश्यक होता है. सही मायने में भारतीयता की भावना को बचाने के लिए हमें खुद से ही लड़ाई लड़नी होगी.

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