कहानी लिखने को शौक नहीं, बल्कि खुद को जाहिर करने का जरिया माननेवाली प्रियंका की कहानियों में साफ दिखता है कि वह जो सोचती हैं, उसे बेबाकी से कह डालती हैं.
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बेबाक कहन नयी किताब
कहानी लिखने को शौक नहीं, बल्कि खुद को जाहिर करने का जरिया माननेवाली प्रियंका की कहानियों में साफ दिखता है कि वह जो सोचती हैं, उसे बेबाकी से कह डालती हैं. मशहूर शायर दाग देहलवी ने लिखा था- ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा, ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा… […]
मशहूर शायर दाग देहलवी ने लिखा था- ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा, ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा… इस शे’र में महबूब के जाने का दर्द है और नाखुशी है. लेकिन, प्रियंका ओम इससे थोड़ा सा आगे जाकर अपने महबूब के चले जाने से नफरत तक करने लगती हैं. किसी चीज का अच्छा न लगना और उससे नाखुशी जाहिर करना गजलगोई का हिस्सा है, तो उसी चीज से नफरत पर उतर आना किस्सागोई का. रेड ग्रैब (अंजुमन) प्रकाशन से आयी किस्सागो प्रियंका ओम की दूसरी किताब ‘मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है’ इस बात की तस्दीक करती है कि सचमुच वह पाठकों को किस्से-कहानियां सुनाती हैं.
किताब ‘मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है’ में महज पांच ही कहानियां हैं, लेकिन पांचों पांच कलेवर के साथ हैं और पाठकों को न सिर्फ बांधे रखती हैं, बल्कि अपनी किस्सागोई के जरिये उन्हें उनकी स्मृतियों में लेकर भी चली जाती हैं. यही एक कहानीकार की एक बड़ी उपलब्धि है.
कहानी ‘प्रेम पत्र’ की मीनू हो या ‘और मैं आगे बढ़ गयी’ की वनिता हो, कहानी ‘लास्ट काॅफी’ में एडोल्फ की पिया हो या फिर टाइटिल कहानी की श्वेता हो, इन सभी किरदारों को वजूद देने में प्रियंका ने खुद को अदृश्य भले कर लिया हो, लेकिन कहीं-न-कहीं वे इनमें मौजूद जरूर हैं. हालांकि, एक किस्सागो के रूप में प्रियंका ओम इससे अगर बाहर निकल आतीं, तो उनकी कहानियों को एक खास वजूद जरूर मिल जाता. स्वतंत्र वजूद.
कहानियां लिखने को शौक या पेशा नहीं, बल्कि अपने आप को जाहिर करने का जरिया माननेवाली प्रियंका ओम की कहानियों में यह साफ दिखता है कि वे जो सोचती हैं, उसे बेबाकी से कह डालती हैं. बिना किसी शिल्प-शब्द-विन्यास के, बिना किसी परंपरागत साहित्यिक रचनाधर्मिता के, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी दबी-छुपी जुबान के और बिना किसी ख्याल के पगने के. यही एक कहानीकार की खूबसूरती भी है, जो रचनाशीलता को बनावटीपन से तो दूर रखती ही है, उस समय की रचनाधर्मिता को एक नया आयाम भी देती है. साहित्यिक नयेपन की चाह के लिए प्रियंका ओम को पढ़ा जाना चाहिए.
– वसीम अकरम
शास्त्रीय संगीत से नयी पीढ़ी को जोड़ने की जरूरत
डॉ अश्विन दलवी सुरबहार यंत्र के प्रसिद्ध वादक हैं. वह नाद साधना इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर के सचिव और राजस्थान ललित कला अकादमी के चेयरमैन भी हैं. दलवी सुरबहार से सुरों को साधने के साथ ही ललित कला अकादमी की जिम्मेदारी भी संभाल रहे हैं. राजस्थान सरकार ने उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा दिया है. डॉ अश्विन के सुरमई सफर के बारे में वसीम अकरम ने उनसे लंबी बातचीत की…
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