एक रिपोर्ट के अनुसार 15वीं लोकसभा में 315 सांसद ऐसे हैं जो करोड़पति हैं. जबकि 14वीं लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या 156 थी. 14वीं से 15वीं लोकसभा तक आते आते ऐसे सांसदों की संख्या में करीब 102 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. इन सांसदों में वैसी पृष्ठभूमि के सांसद गुम हो रहे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से ताल्लुक रखते थे. कॉरपोरेट क्षेत्र से जुड़े और करोड़पति सांसदों से इतर ऐसी पृष्ठभूमि के सांसदों की अनुपस्थिति से ग्रामीण क्षेत्रों, किसानों के हितों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसे जानने के लिए सुजीत कुमार ने एएन सिंहा इंस्टीट्च्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व रिसर्च ऑफिसर और वर्तमान में सोशियो ईकोनॉमिक एंड एजुकेशन डेवलपमेंट सोसायटी के क्षेत्रीय निदेशक प्रो. बीएन पटनायक से बात की.
लोकसभा चुनाव में जो उम्मीदवार आ रहे हैं. उनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि की जगह कहां दिखती है?
बहुत बदलाव आ चुका है. अब वो पृष्ठभूमि नहीं रही. हालात बदल गये हैं. आज की राजनीति में पैसा मुख्य है. चुनाव में जो भी प्रत्याशी अपनी दावेदारी पेश करते हैं, उनके लिए पैसा पहले है. जो भी चुनाव लड़ने वाले हैं, वह जीत दर्ज करने के लिए पैसे खर्च करते हैं. ओडिसा के एक जिले की बात कहुंगा. एक जानकारी के मुताबिक वहां प्रति मत दो सौ से पांच सौ रुपये बांटे जा रहे थे. मत के लिए बांटे जा रहे इन पैसों का अंदाजा लगाये तो यह रकम प्रति मत के हिसाब से लगभग सात से आठ करोड़ रुपये होती है. लोकसभा चुनाव के लिए पैसे खर्च करने को लेकर चुनाव आयोग की जो सीमा है, उसमें और इसमें काफी फर्क है. चुनाव में जो खर्च करेगा, वह विजयी होगा. पंचायत का मुखिया बढ़िया, ईमानदार होता है.
वह पंचायत में विकास कार्य के प्रति सजग रहता है लेकिन वह विधायक और सांसद नहीं बन सकता. क्योंकि वह इतनी बड़ी मात्र में खर्च नहीं कर सकता है. पहले चुनाव में राजनीतिक दल लोगों की पृष्ठभूमि देख कर प्रत्याशी बनाते थे. अब ऐसा नहीं है. अब पार्टी पूछती है कि आप अपने खर्च को वहन कर सकते हैं? हर पार्टी का यही रवैया है. पार्टी किसी भी नेता विशेष को तभी आगे करती है, जब वह देखती है कि वह बिजनेसमैन, कॉरपोरेट सेक्टर से कितना जुड़ा हुआ है. उससे कितना फायदा हो सकता है. गांव का आदमी इस हालात में स्थापित ही नहीं हो सकता है. जो ग्रामीण ईमानदार हैं वह चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते हैं. वो जानते हैं कि ईमानदारी से कुछ नहीं हो सकता. मत देने की बात आती है तो लोग यही सोचते हैं कि सबको देखा, परखा पर काम किसी को नहीं करना है. मत देना है, दे देंगे. गांव को क्या चाहिए? गांव कितना अभावग्रस्त है? इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है. ग्रामीण इलाकों में विकास की संरचना क्या होनी चाहिए? इस बारे में कोई भी दल, प्रत्याशी बोलना ही नहीं चाहता. गांव की तरक्की किस तरीके से हो सकती है? इसके लिए कैसी नीति बनाने की जरूरत है? इस पर विचार नहीं होता है. केवल बयानबाजी होती है. इससे गांव तक विकास की रोशनी कैसे पहुंचेगी? लोगों की भावनाओं से खेला जाता है. हर पार्टी यह जानती है कि लोग भावना में आकर कैसे मत दे सकते हैं. इन सारी बातों में ग्रामीण पृष्ठभूमि की बात सब भूल चुके हैं.
राजनीतिक नेताओं की जगह व्यवसायिक क्षेत्र के लोग चुनाव में हैं. भारतीय लोकतंत्र के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर इसका क्या असर होता है?
असर तो होता है लेकिन अपने फायदे को लेकर. व्यवसाय से जुड़े लोग जब चुनाव में आयेंगे तो उनकी एकमात्र सोच यही रहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बाजार को क्या रुख दे सकते हैं? इन क्षेत्रों से किस तरीके से पैसे को निकाला जा सकता है? ग्रामीण विकास में उन लोगों को ही थोड़ा बहुत लाभ होगा जो मध्यम या निमA मध्यम वर्ग से हैं. बाकी के हिस्से में कुछ नहीं आता है. युवा वर्ग के विकास की बातें होंगी. कुछ को फायदा होगा. अन्य वैसे ही रह जायेंगे. लाखों रुपये की गाड़ियों में घूमेंगे तो इन क्षेत्रों, वर्गो के लिए कहां से सोचेंगे? गिनती के लोगों को नौकरी मिल गई वही बहुत है. नेता तो चाहते हैं कि लोग इन सारी बातों को ना समङो. चुनाव को लेकर आज का माहौल यह है कि जिसके पास पैसा, पावर होगा वही नेता बनेगा. दक्षिण भारत के कुछ राज्यों की ग्रामीण क्षेत्रों की हालत हमारे यहां से कुछ अलग है. वहां थोड़ा बहुत बदलाव दिखता है. वहां की सरकार ने इन क्षेत्रों में कुछ काम किया है लेकिन बिहार, झारखंड, यूपी के गांवों की हालत जो पहले थी आज भी वही है.
किसान, मजदूर की बात करने वाले लोगों की जगह राजनीति में कितनी बची है? इस क्षेत्र में कॉरपोरेट का कितना हस्तक्षेप है?
किसान और मजदूर के मामले में हमारे यहां कोई खास दखल नहीं है. क्योंकि यहां औद्योगिकरण की कोई प्रकिया नहीं है. उद्योग नहीं होंगे तो दखल नहीं होगा. हमारे यहां के किसान, मजदूर गरीब हैं. दक्षिण के राज्यों में कॉरपोरेट का हस्तक्षेप है. यहां की तुलना में वहां की कृषि कुछ विकसित है. आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से पूरे देश में मछली की आपूर्ति होती है. वहां कॉरपोरेट का दखल है. दूसरी तरफ हमारे यहां इन वर्गो के विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकार पैसे देती है लेकिन उसे बांट लिया जाता है. यहां अलग मामला है. उद्योग के लिए कोई गंभीर पहल नहीं होनी है. किसान, मजदूर के लिए किस तरीके से काम हो? इस पर ध्यान ही नहीं रहता है. मनरेगा जैसी योजना में कई खामियां हैं. खामियों को दूर कर दे तो यह सफल हो सकती है. मनरेगा भी है और पलायन भी हो रहा है. किसान और मजदूर हित की बात कहने वाले लोगों की जगह राजनीति में कोई खास नहीं बची है.
राजनीतिक दलों और ऐसे प्रत्याशियों का गांव-पंचायत और ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति ऐसे रवैये से क्या प्रभाव पड़ रहा है?
इन लोगों और पार्टियों से लोगों का मोहभंग हो रहा है. लोग केवल अपने मत दे देते हैं. इस सिस्टम से ग्रामीण क्षेत्रों को कुछ नहीं मिलेगा, बस यही सोचते हैं. नकारात्मक बातें होती है. यह लोकतंत्र के लिए बहुत अशुभ है. चुनाव में भागीदारी से कुछ उम्मीद हो और परिणाम कुछ ना मिले तो धारणा टूटेगी. कई राज्यों में नक्सली गतिविधियां है. इसके मूल में भी यही है. मत देने के बाद भी अगर बदलाव ना हो तो दूसरी धारा की तरफ झुकाव हो जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में विकास नहीं होने का एक नुकसान यह भी है. सरकार ने गांव-पंचायत, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए ध्यान नहीं दिया तो लोग दूसरे रास्ते पर चले गये.
राजनीति किधर जाती दिख रही है? बदले हालात पंचायत के लिए कैसी चुनौती पैदा कर रहे हैं?
आजादी मिलने के इतने साल बाद भी हमारे गांवों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. सामाजिक विकास के मामले में भारत पूरी दुनिया में कभी 122 तो कभी 127 नंबर पर आता है. अगर गांव का विकास होता तो इस नंबर और सुधर हो सकता था. बुनियादी तौर पर विकास नहीं है. जिस अनुपात में खर्च है, उस लिहाज से काम नहीं दिखता है. सरकार को होनी वाली आमदनी का सही उपयोग हो तो हालात बदल सकते हैं. भ्रष्टाचार अलग चुनौती है. कई तरह की मुश्किलें सामने आ रही हैं. कोई आदमी अगर कुछ अलग करना चाहे तो उसके सामने ऐसे हालात कर दिये जाते हैं कि मामला ही गौण हो जाता है. गांव-पंचायत, किसान, मजदूर के लिए गंभीरता से सोचने की जरूरत है. नक्सल, मूलभूत सुविधाएं कई तरह की चुनौतियां हैं. इनको खत्म करने के लिए पूरी गंभीरता के साथ ईमानदार पहल करने की जरूरत है.
कॉरपोरेट सेक्टर और गांव की पृष्ठभूमि से अलग नेता के बीच में गुम हो रहे ग्रामीण इलाकों की तरक्की कैसे होगी? गांव और शहर की जरूरतें अलग-अलग हैं. ऐसे क्षेत्रों के विकास के लिए योजनाएं तो हैं लेकिन वह उद्देश्य पूरा नहीं कर पाती है. क्या इसमें मॉनिटरिंग का अभाव है?
कुछ ऐसे राज्य हैं जिन्होंने अपने ग्रामीण क्षेत्रों का महत्व समझा है. वहां की स्थिति अलग है. गुजरात और आंध्र प्रदेश इसका एक उदाहरण हो सकते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों के लिए कृषि, बिजली, सड़क और उचित मूल्य मुख्य विषय है. गुजरात कृषि प्रधान राज्य नहीं है लेकिन जब इस राज्य के पिछले दस सालों की रिकॉर्ड को देखे तो पांच से सात गुनी ज्यादा प्रगति हुई है. इस राज्य ने देखा कि कृषि पर नहीं लेकिन डेयरी को विकसित करें तो गांव के साथ ग्रामीणों को भी लाभ होगा. आंध्र प्रदेश में भी ऐसी ही बात है. वहां कृषि के अलावा गांव में मछली पालन पर विशेष जोर है. सरकार की एक टीम होती है जिसमें विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर करते हैं. कॉरपोरेट क्षेत्र का झुकाव गांव पर होता है.
गांव की पृष्ठभूमि में बाजार के लिए ऐसे क्षेत्र ही आगे आयेंगे लेकिन तब, जब इसमें वह अपना हित देखेंगे. कॉरपोरेट ने अपने फायदे के लिए दखल दिया तो दोनों को फायदा हुआ. गांव की गरीबी दूर कैसे हो? इसके लिए केवल बातें होती हैं. सरकार के पास पॉलिसी है, उस पर अमल करने की बात होंगी. जब लागू करने की बात आयेगी तो उससे होने वाले नफा-नुकसान के बारे में शोध होने लगेगा. विशेषज्ञों की टीम बनेगी. वह रिपोर्ट देगी. फिर बात वही रूक जायेगी. ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के लिए एसजीएसवाई योजना शुरू की गई. मॉनिटरिंग के अभाव में योजना फेल हो गई. उसकी जगह जीविका को शुरू किया गया. नेता कॉरपोरेट से जुड़े हैं लेकिन उन्हे कॉरपोरेट और से मदद उस स्तर तक ही लेना चाहिए जिससे गांव और सरकार दोनों का भला हो. संसद में भी गांव से जुड़े मुद्दों को तब ही उठाते हैं जब उसमें अपना हित शामिल रहता है. गांव को अलग कर के तरक्की की बात सोची ही नहीं जा सकती है.
प्रो. बीएन पटनायक
क्षेत्रीय निदेशक
सोशियो इकोनॉमिक एंड एजुकेशनल डेवलपमेंट सोसायटी