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जानिए कैसा है इंदिरा कैंटीन का खाना?

बीबीसी न्यूज हिंदी कर्नाटक में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने हाल में राजधानी बेंगलुरु में इंदिरा कैंटीन की शुरुआत की थी. यह कैंटीन हर रोज़ 2 लाख से अधिक लोगों को सस्ता खाना मुहैया कराती है. हम भी कैंटीन की लाइन में लगे और खाना खाया. भीड़भाड़ भरे सिटी मार्केट के नज़दीक ही एक […]

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कर्नाटक में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने हाल में राजधानी बेंगलुरु में इंदिरा कैंटीन की शुरुआत की थी. यह कैंटीन हर रोज़ 2 लाख से अधिक लोगों को सस्ता खाना मुहैया कराती है. हम भी कैंटीन की लाइन में लगे और खाना खाया.

भीड़भाड़ भरे सिटी मार्केट के नज़दीक ही एक इमारत के बाहर सुबह सात बजे के बाद भीड़ इकट्ठा होने लगी थी.

साढ़े सात बजे दरवाज़ा खुला और भीड़ अंदर चली गई. थोड़ी देर की धक्का-मुक्की के बाद लोग लाइन में लग गए. लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी. महिला-पुरुष एक छोटी-सी खिड़की के अंदर पैसे देते थे और एक हरे रंग का टोकन लेते थे जिसे काउंटर पर देकर खाना मिलता था.

लोग अपनी पीली थाली लेकर कमरे के अंदर ही किसी टेबल पर या फिर खाना खाने परिसर के बाहर चले जाते थे.

मैंने भी टोकन ख़रीदा और नाश्ते के लिए लाइन में लग गई. नाश्ते में इडली, पोंगल और नारियल की चटनी थी.

खाना गर्म, ताज़ा और स्वादिष्ट था और सबसे ख़ास बात यह थी कि हर पकवान का दाम 5 रुपये था.

अम्मा कैंटीन मॉडल पर शुरुआत

16 अगस्त को जब यह कैंटीन खुली तब इसका नाम भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम पर रखा गया था. ज़ाहिर है यह विचार तमिलनाडु की अम्मा कैंटीन से उधार लिया गया है.

तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने लोगों को सस्ता खाना देने के लिए अम्मा कैंटीन की शुरुआत की थी.

अम्मा कैंटीन में भी मैंने एक साल पहले खाना खाया था. वो खाना अच्छा था, लेकिन इंदिरा कैंटीन का खाना उससे अच्छा है.

इन कैंटीन के उपभोक्ता ख़ासकर के ग़रीब होते हैं. इनमें दिहाड़ी मज़दूर, ड्राइवर, सुरक्षाकर्मी और भीख मांगने वाले ऐसे लोग भी होते हैं जो दिन में कुछ सौ रुपये या कुछ भी नहीं कमाते हैं. जिनके लिए एक-एक पैसे की क़ीमत है.

सिक्यॉरिटी गार्ड के तौर पर काम करने वाले मोहम्मद इरशाद अहमद कहते हैं कि वह लगातार इंदिरा कैंटीन ही आते हैं.

वह कहते हैं, "खाना बहुत अच्छा है. इससे पहले मैं एक नज़दीकी रेस्त्रां में नाश्ता करता था जिसके लिए मुझे 30 रुपये देने पड़ते थे. अब मैं 25 रुपये बचा रहा हूं. यह अच्छी बात है और इस योजना को पूरे राज्य में लागू करना चाहिए."

एक स्कूल के बाहर फल बेचने वाली लक्ष्मी कहती हैं कि कैंटीन के कारण उन्हें सुबह-सुबह नाश्ता बनाने की मेहनत से आज़ादी मिल गई है.

वह कहती हैं, "सुबह में अब मुझे काफ़ी समय तक खाना बनाने की ज़रूरत नहीं है. इससे मेरी ज़िंदगी आसान हो गई है. यहां खाना सस्ता है जिसे में ख़रीद सकती हूं और जो अच्छा भी है."

सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ?

कैंटीन के नज़दीक ही एक लॉज में रहने वाले मोहन सिंह तीनों वक़्त का खाना यहीं खाते हैं. उनका कहना है, "मैं तीनों वक्त के खाने पर 40 रुपये ख़र्च करता हूं."

मोहन कहते हैं कि बाहर खाना बहुत महंगा है और इससे पहले वह एक दिन में खाने पर 140 रुपये ख़र्च करते थे.

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस तरह की कैंटीन सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ है, लेकिन नेताओं ने इसे प्रसिद्ध बना दिया है क्योंकि इस देश में करोड़ों लोग एक दिन में एक डॉलर से कम पर गुज़ारा करते हैं.

कई विश्लेषकों का कहना है कि पिछले चुनाव में जयललिता के जीतने का मुख्य कारण अम्मा कैंटीन ही था.

कर्नाटक में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इस कैंटीन को स्थापित करने का फ़ैसला राजनीतिक ज़रूर हो, लेकिन अधिकारी इसका मक़सद परोपकार बता रहे हैं.

पूरे राज्य में कैंटीन खोलने की योजना

इस प्रॉजेक्ट के आधिकारिक इंचार्ज मनोज रंजन ने कहा, "हमारे मुख्यमंत्री ने ग़रीबों को खाना खिलाने का फ़ैसला किया है."

वह कहते हैं, "इस कैंटीन का लक्ष्य प्रवासी आबादी, ड्राइवरों, विद्यार्थियों और काम करने वाले जोड़ों को खाना खिलाना है जिनके पास खाना बनाने के लिए कम समय होता है, लेकिन यह हर किसी के लिए खुली है."

जब अप्रैल में मुख्यमंत्री ने इस योजना की घोषणा की थी तब रंजन की टीम ने दिन-रात काम करके इस योजना को असल शक्ल दी.

आज़ादी की 70वीं सालगिरह के अगले दिन 16 अगस्त को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बेंगलुरु आकर इस कैंटीन का उद्घाटन किया.

आज शहर में 152 कैंटीन हैं जो 2 लाख लोगों को खाना देती हैं. रंजन योजना पर कहते हैं कि नवंबर के आख़िर तक इसकी संख्या 198 करने की है जो हर रोज़ 3 लाख लोगों को खाना देगी.

इस योजना को जनवरी तक पूरे राज्य में लागू करने की है जिसके तहत 300 से अधिक कैंटीन खुलेंगी.

कैंटीन बंद होने का डर

नाश्ते के बाद हमें दोपहर के खाने के लिए भूख लगने लगी तो हम एक दूसरी इंदिरा कैंटीन पर गए. इस बार हम काफ़ी महंगे इलाके मरखम रोड पर थे जहां भीड़ तो कम थी लेकिन खाना खाने वालों में दफ़्तर के कर्मचारी और स्कूल के छात्र भी थे.

खाने में चावल और सांबर था जिसने निराश नहीं किया.

एक प्रसिद्ध कहावत है कि लोगों के दिलों तक पहुंचने का रास्ता पेट से जाता है. कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि चुनाव के समय वह ज़रूर जीतेगी.

मेरे साथ खाना खा रहे वेंकटेश का कहना था कि लोगों में डर है कि अगर सरकार बदली तो यह कैंटीन बंद हो जाएगी.

मैंने रंजन से पूछा कि कांग्रेस पार्टी हारी तो क्या ऐसा होगा तो उनका कहना था कि नागरिक केंद्रित योजनाएं जारी रहेंगी, सरकार कौन बनाता है इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

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