-पिपरा गांव से लौट कर शैलेंद्र-
सामंतवाद के खिलाफ नक्सलियों का संघर्ष रहा है, लेकिन मोतिहारी में एक जगह ऐसी है, जहां नक्सली सामंतों की भूमिका में नजर आते हैं. ये जगह है छौड़ादानों प्रखंड का पिपरा गांव. यहां हरेंद्र सिंह नाम के जमींदार की 85 बीघे भूमि किसान कमेटी (तत्कालीन नक्सली संगठन) ने 1977 में कब्जा ली थी. बाद में यही जमीन नक्सलियों के आय का जरिया बनी.
जमीन एजेंट की भूमिका में आये नक्सली इससे अच्छी खासी कमाई करते थे, लेकिन यही कमाई इनके बीच खूनी संघर्ष का जरिया बन गयी. दो गुटों में बटे नक्सली वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसमें अब तक चार जानें जा चुकी हैं. एक दर्जन से ज्यादा बार गोलियां चली हैं. स्थानीय प्रशासन और पुलिस के लिए जमीन परेशानी का सबब बनी है.
बात 1964-65 की है. अत्यंत पिछड़े इलाकों में शुमार पिपरा गांव में तिनकोनी के रहनेवाले हरेंद्र सिंह के चचेरे भाई रामचंदर सिंह ने दो मंजिली पक्की कोठी बनवायी. कोठी उनके 85 बीघे के प्लाट से सटी थी. बड़ा जश्न हुआ. आसपास के गांव के लोग गृह प्रवेश में आये. रामचंदर सिंह परिवार के साथ कोठी में रहने लगे. वह रौबदार व्यक्ति थे. इस बात की तस्दीक पिपरा गांव के बुजुर्ग आज भी करते हैं. 1977 का साल रामचंदर के लिए कहर बन कर आया. कामरेड गंभीरा साह की अगुवाई वाली किसान कमेटी ने उनकी हत्या कर दी. इसके बाद 85 बीघे भूमि पर कमेटी का कब्जा हो गया.
इससे गांव में मानो भूचाल सा आ गया. एक ही झटके में दो मंजिली कोठी का दंभ जमींदोज हो चुका था. जमीन पर गांव के गरीब-गुरबा लोगों का कब्जा हो गया. वह उस पर खेती करने लगे.
गंभीरा साह के बाद कमेटी की बागडोर बीरेंद्र कुशवाहा के हाथों में आयी, जो 2001 में आदापुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक और बाद में राजद सरकार में मंत्री बने. इसी दौरान बीरेंद्र की ओर से जमीन विवाद को सुलझाने की पहल की गयी. वह चाहते थे, 11 एकड़ भूमि कमेटी के पास रहे, जबकि बाकी जमीन को हरेंद्र सिंह के परिवार को वापस कर दी जाये. इसी सवाल पर कमेटी दो गुटों में बट गयी. एक का विलय माओवादियों में हो गया, जबकि दूसरा ग्रुप भाकपा माले के नाम से जाना जाने लगा. इसी के नेता बने बीरेंद्र कुशवाहा.
जमीन की देखरेख माओवादियों के हाथ में आ गयी. इस वजह से स्थानीय स्तर पर माओवादी दो गुटों में बट गये. एक का नेतृत्व जगन्नाथ साह व शिव पूजन करने लगे, जबकि दूसरे गुट की कमान भानू मियां के हाथ में आयी. अब जमीन को लेकर दोनों गुटों की नीयत बदल चुकी थी. यह जमीन को बटायी और हुंडा (पैसा लेकर खेती करवाना) पर देने लगे, जो गुट भारी पड़ा, उसी ने जमीन पर खेती करनेवालो से वसूली की.
कब्जे के लगभग तीन दशक पूरा होते-होते नक्सली छौड़ादानों प्रखंड में नयी भूमिका में हैं. अब इनकी लड़ाई सामाजिक न्याय की नहीं रही. यह जमीन के लिए आपस में लड़ रहे हैं. हत्यायें हो रही हैं. 28 फरवरी 2008 को माले से संबंध रखनेवाले राम इकबाल, जोगेंद्र परीख व प्रभु राम की हत्या कर दी गयी. इसके बाद 2010 हासिम मियां की भी हत्या हुई. हासिम को भानु मियां का करीबी माना जाता था. इसकी हत्या का आरोप जगन्नाथ व शि पूजन पर लगा. शिव पूजन अभी जेल में है, जबकि जगन्नाथ जमानत पर छूटा है. स्थानीय लोग कहते हैं, आदापुर प्रखंड अगर अशांत है तो इसके पीछे पिपरा की 85 बीघे जमीन है, जब तक इसका मामला नहीं सुलझता है, तब तक अशांति बनी रहेगी.
हमको छोड़ना पड़ा इलाका
यही जमीन छौड़ादानों में अशांति का कारण है. अगर इसका हल हो जाये तो इलाके में शांति हो जायेगी. हमको भी बाहर रहना पड़ रहा है. पटना में रहते हैं. हमारे खिलाफ भी पर्चा जारी कर दिया था. यह कहते हुए पूर्व मंत्री बीरेंद्र कुशवाहा पुरानी यादों में खो जाते हैं. कहते हैं, हम तो जमीन का मामला हल करना चाहते थे, क्योंकि जिस आंदोलन का नेतृत्व मैंने किया था. उसे अदालत ले गया था. अदालत में मेरी हार हुई थी. हम चाहते थे, जो लोग जमीन पर खेती कर रहे हैं. उन्हें उसका अधिकार मिले, लेकिन अदालत ने नहीं माना था. इसी वजह से हम जमीन को उसके मालिकों को वापस करने के पक्ष में थे. कुछ जमीन किसानों को भी मिलती. इस पर पूरी सहमति बन गयी थी. हर पक्ष के लोग राजी थी, लेकिन तभी एक राजनेता ने इसमें दखल दिया और पूरे मामले को बदल दिया. इससे माओवादियों को लगने लगा, हम जमीन मालिक के पक्ष में हैं. मैं तो अभी भी चाहता हूं, जमीन का मामला सुलझ जाये.
कोठी की ईंट तक उखाड़ ली
जब रामचंदर सिंह की हत्या हुई तो उसके बाद उनकी कोठी भी सूनी रहने लगी. गांव में किसान कमेटी की चलती थी. कमेटी के सदस्यों ने कोठी को उजाड़ना शुरू किया. इसके बाद कोठी के ईंट, लोहा से लेकर दरवाजों व अन्य सामान को एक-एक कर लोग उठा ले गये. आज वह जगह वीरान नजर आती है. पास में कुछ नये पक्के घर बन गये हैं. कोठी के पास से ही वह प्लाट शुरू होता है, जिस पर कथित नक्सलियों का कब्जा है. उस पर फसल लहलहा रही है.
बृज बिहारी ने कटवायी थी फसल
1995 में तत्कालीन मंत्री बृज बिहारी प्रसाद ने हरेंद्र के परिवार की मदद की थी. प्रशासन के सहयोग ने उन्होंने 85 बीघे जमीन पर लगी फसल को कटवा लिया था. वह चाहते थे, हरेंद्र का परिवार आगे आये और जमीन पर कब्जा करे, लेकिन हरेंद्र की ओर से इसके लिए पहल नहीं की गयी. इसके बाद नक्सलियों ने फिर से जमीन पर कब्जा कर लिया. बृज बिहारी ने भी जमीन के मामले को छोड़ दिया.
अभी भी सहमे हैं हरेंद्र के परिजन
1977 में जब किसान कमेटी ने रामचंदर सिंह की हत्या कर दी और जमीन पर कब्जा कर लिया तो उनका परिवार भी तिनकोनी में आकर रहने लगा. हरेंद्र पहले से यहां रहते थे. रामचंदर के भाई रामविलास थे, उनकी भी मौत बीमारी से हो गयी. अब इस परिवार केवल एक बच्च है, जो पटना में पढ़ता है. घर पर सिर्फ महिलाएं हैं. राम चंदर व रामविलास की पत्नी. वहीं, हरेंद्र के बेटे शशिभूषण भी तिनकोनी में रहते हैं. इनके घर का मुख्य दरवाजा अक्सर बंद रहता है. इन लोगों में अभी भी डर व्याप्त है. शशिभूषण जमीन के बारे में ज्यादा बात नहीं करना चाहते. वह कहते हैं, भगवान की मर्जी होगी तो जमीन मिलेगी. डर की वजह से शशिभूषण गांव के भी कम निकलते हैं. वह कहते हैं, खतरा तो बना ही है.