7.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण

लोकसभा चुनाव, 2014 के लिए जारी घोषणापत्र में कांग्रेस, जदयू व कुछ अन्य दलों की ओर से निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाये जाने के बाद यह मसला फिर से चर्चा में है. हालांकि इसके लिए कुछ कोशिशें पहले भी हुई हैं, लेकिन इसे लागू करने में प्राइवेट कंपनियों की […]

लोकसभा चुनाव, 2014 के लिए जारी घोषणापत्र में कांग्रेस, जदयू व कुछ अन्य दलों की ओर से निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाये जाने के बाद यह मसला फिर से चर्चा में है.

हालांकि इसके लिए कुछ कोशिशें पहले भी हुई हैं, लेकिन इसे लागू करने में प्राइवेट कंपनियों की दिलचस्पी कम ही देखी गयी है. निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण की जरूरत और देश-दुनिया में इसकी स्थिति पर नजर डाल रहा है नॉलेज..

सुभाष गाताडे त्नसामाजिक कार्यकर्ता

महात्मा फुले ने कहा था- ‘विद्या के अभाव से मति (सोचने-समझने की शक्ति) नष्ट हुई. मति के अभाव से, नीति नष्ट हुई. नीति के अभाव से गति (परिवर्तनशीलता) नष्ट हुई. गति के अभाव से वित्त नष्ट हुआ और वित्त के अभाव से दलितों का पतन हुआ.

अकेले अज्ञान के कारण ही यह सब कुछ हुआ.’ कुछ समय पहले अमेरिका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय और भारत की ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज’ के तत्वावधान में एक अध्ययन किया गया. अमेरिका में अश्वेतों एवं अन्य अल्पसंख्यक तबकों के साथ होनेवाले भेदभाव को मापने के लिए बनायी गयी तकनीक का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत अध्ययन में लगभग 5,000 आवेदनपत्र भारत की अग्रणी कंपनियों को 548 विभिन्न पदों के लिए भेजे गये.

योग्यताएं एक होने के बावजूद इसके तहत कुछ आवेदकों के नाम से यह स्पष्ट हो रहा था कि वह दलित समुदायों से संबंधित हैं. कंपनी की ओर से ज्यादातर उन्हीं प्रत्याशियों के मामलों में वापस संपर्क किया गया, जिनके नाम उच्चवर्णीय तबके से आते प्रतीत होते थे. दलित सदृश्य नामों वाले ‘प्रत्याशी’ नौकरी की पहली ही सीढ़ी पर छांट दिये गये थे.

भारत की प्रतिष्ठित अंगरेजी पत्रिका ‘इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में इस अध्ययन का समूचा विवरण प्रकाशित हुआ था. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित/ वंचित रहे तबकों को अपने यहां नौकरी पर रखने के लिए आरक्षण जैसी किसी प्रणाली को लागू करने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को इन्होंने खारिज कर दिया. ‘मेरिट’ को वरीयता की बात करनेवाले कॉरपोरेट क्षेत्र को बेपरदा करनेवाले इस अध्ययन के निष्कर्षो पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई.

चुनावी घोषणापत्र में यह मुद्दा!

16वीं लोकसभा चुनावों के बीच निजी क्षेत्र में आरक्षण का मसला नये सिरे से मौजूं हो उठा है. अगर कांग्रेस ने निजी क्षेत्र में आरक्षण देने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी है, तो पिछले दिनों जनता दल यूनाइटेड की तरफ से भी यही बात कही गयी है. याद रहे कि अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली राजग सरकार के समय से ही यह मसला चर्चा में रहा है.

आर्थिक नीतियों में बदलाव के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में तेजी से कमी को देखते हुए यह बिल्कुल व्यावहारिक प्रस्ताव सामने आया था.

अमेरिका जैसे विकसित पूंजीवादी देशों का अनुभव भी सामने था, जहां नागरिक अधिकार आंदोलन के दबाव में 60 के दशक की शुरुआत में ही अश्वेतों, हिस्पानिक्स आदि को विशेष अवसर प्रदान करने के लिए ‘एफर्मेटिव एक्शन’ कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर हाथ में लिया गया. अमेरिकी शिक्षा संस्थानों से लेकर उद्योग और व्यापार के क्षेत्रों में भी इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि अश्वेत तथा अन्य अल्पसंख्यकों की उपस्थिति महज परिमाणात्मक रूप में ही नहीं, गुणात्मक रूप में भी बढ़ी.

संरक्षणवादी नीतियों से कॉरपोरेट को फायदा

वहीं दूसरी ओर भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ‘संरक्षणवादी’ नीतियों जैसे आरक्षण से हर पग पर लाभान्वित कॉरपोरेट जगत खुद वंचितों के लिए किसी आरक्षण का विरोध करता रहा है. उनका तर्क है- अगर आरक्षण दिया गया, तो कार्यक्षमता की हानि होती है और मेरिट पर असर पड़ता है. प्रश्न उठता है कि आखिर कार्यक्षमता की बात कहां तक सही है?

क्या वंचित, उत्पीड़ित तबके से आनेवाले लोगों को रोजगार में वरीयता देने से, अपने यहां के कर्मचारी व कामगार वर्ग की संरचना को अधिकाधिक विविधतापूर्ण करने से-उसमें विभिन्न नस्लों, समुदायों, तबकों को शामिल करने से कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है या सकारात्मक?

गौरतलब है कि कॉरपोरेट जगत सरकार पर हमेशा इस बात के लिए दबाव बनाता रहता है कि वह आम लोगों के प्रति अपनी जिम्मेवारियों का परित्याग करे, लेकिन सरकार से यह कहने में उसे संकोच नहीं होता कि वह उन्हें संकट से उबारे, उन्हें बेलआउट पैकेज दे और अन्य लाभ प्रदान करे. यहां तक कि कुछ साल पहले ही कॉरपोरेट जगत ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है.

यूपीए सरकार द्वारा जो कवायद शुरू की गयी थी, एक तरह से उसका समापन हो चुका है. उद्योगपतियों के तीन प्रमुख संगठनों- सीआइआइ, फिक्की और एसोचेम के अध्यक्षों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह सूचित किया कि वे अनुसूचित जाति और जनजाति से आनेवाले लोगों के लिए पांच फीसदी नौकरियां अपने यहां आरक्षित नहीं कर सकते (इंडियन एक्सप्रेस, 27 सितंबर, 2010). निश्चित ही घोषणापत्र इस मसले पर स्पष्ट नहीं है कि वह कैसे इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बहसों में यह बात आगे बढ़े.

भारत और अमेरिका का फर्क

वंचितों को अवसर देने को लेकर भारत के पूंजीपतियों एवं अमेरिका के पूंजीपतियों में फर्क दिखता है. अमेरिका में पिछले दिनों एक ऐतिहासिक मुकदमे की काफी चर्चा हुई, जिसके तहत शिक्षा संस्थानों में ‘एफर्मेटिव एक्शन’ कार्यक्रम के औचित्य पर बहस चली. गौरतलब है कि फॉच्यरून 500 में शामिल अमेरिका की कई अग्रणी कंपनियों- माइक्रोसाफ्ट, इंटेल, केलोग, कोडाक आदि- ने एफर्मेटिव एक्शन कार्यक्रम की हिमायत में अर्जी दी.

भेदभाव से कार्यक्षमता में कमी

इस संदर्भ में विश्व बैंक के लिए प्रोफेसर बर्डसाल और सेबोट द्वारा किये गये अध्ययन को भी देखा जा सकता है, जो भेदभाव को लेकर स्टैंडर्ड नवक्लासिकीय सिद्धांत का निचोड़ पेश करते हैं. अलग-अलग प्रतिष्ठानों में श्रम के आवंटन की कार्यक्षमता को कम करके पहले से कायम भेदभाव आर्थिक बढ़ोतरी को अधिक धीमा करेगा.

अपने आप को अन्याय का शिकार माननेवाले मजदूरों की काम के प्रति प्रतिबद्धता एवं कोशिशों में कमी लाते हुए वह अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करेगा. यदि अर्थव्यवस्था में बदलाव की गति अधिक तेज है, तो भेदभाव से होनेवाले नुकसान अधिक होंगे.

कुछ समय पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरपर्सन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में लिखे ‘रिजर्वेशन एंड एफीशियंसी : मिथ एंड रिएलिटी’ शीर्षक एक आलेख में इस मसले को अर्थशास्त्र के नवक्लासिकीय संदर्भो के जरिये भी समझाने की कोशिश की थी.

उनके मुताबिक एक तरफ उदारीकरण, निजीकरण की नीतियों की हिमायत में कॉरपोरेट क्षेत्र नवक्लासिकीय आर्थिक प्रतिमानों को कबूल करता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं प्रतिमानों के अंतर्गत जिन भेदभाव विरोधी नीतियों की बात कही जाती है, उन्हें वह खारिज करता है. उनके मुताबिक इस विरोधाभास को समझने की जरूरत है.

वे कहते हैं, ‘आम भेदभाव के संदर्भ में तथा जातिगत विशिष्टता से उत्पन्न भेदभाव को लेकर स्टैंडर्ड नवक्लासिकीय सिद्धांत यही बताते हैं कि लेबर मार्केट में मौजूद भेदभाव श्रम के आवंटन में जबरदस्त अकार्यक्षमता को जन्म देता है, प्रतियोगिता को कम करता है और आर्थिक बढ़ोतरी को प्रभावित करता है.’

क्या है एफर्मेटिव एक्शन

एफर्मेटिव एक्शन या सकारात्मक विभेद उस नीति को कहा जाता है, जो भेदभाव का शिकार वंचित समूहों के लिए विशेष अवसर प्रदान करती है. अलग-अलग क्षेत्रों में सकारात्मक विभेद की नीतियों का स्वरूप बदलता है. भारत जैसे कुछ मुल्कों में, विशिष्ट समूहों के लिए शिक्षा या नौकरियों में निश्चित प्रतिशत सीटें उपलब्ध करायी जाती हैं, जबकि अन्य मुल्कों में वंचित/ अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को चयन प्रक्रिया में वरीयता दी जाती है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमेटी के मुताबिक, समानता के सिद्धांत को सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी होता है कि राज्य ऐसी सकारात्मक कार्रवाई करे, ताकि मानवाधिकार कन्वेंशन के तहत जिस किस्म के भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया है, उन्हें जारी रखनेवाली स्थितियों का समाप्त किया जा सके. उदाहरण के तौर पर, एक ऐसे राज्य में जहां आबादी के कुछ हिस्से की आम स्थितियां मानवाधिकार को लागू करने को रोकती हैं, राज्य को चाहिए कि वह विशिष्ट कार्रवाई करे, ताकि ऐसी स्थितियां दूर की जा सकें.

ऐसी कार्रवाइयों के अंतर्गत आबादी के संबंधित हिस्से के साथ अन्य आबादी की तुलना में कुछ विशिष्ट मामलों में वरीयता का व्यवहार करना पड़ सकता है.हालांकि, जब तक ऐसी कार्रवाइयों की जरूरत पड़ती है, इसे हम कन्वेंशन के अंतर्गत वैध भेदभाव कह सकते हैं.

ब्राजील की कोटा प्रणाली

ब्राजील के कुछ विश्वविद्यालयों ने (राज्य और संघीय) नस्लीय अल्पसंख्यकों (अश्वेत और देशज ब्राजीलवासी), गरीबों और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए वरीयता के आधार पर प्रवेश (कोटा) की प्रणालियां विकसित की हैं. इसके अलावा पब्लिक सिविल सेवाओं में विकलांगों के लिए 20 प्रतिशत रिक्तियां आरक्षित की गयी हैं. जब वहां की डेमोक्रेट्स पार्टी इन नीतियों के खिलाफ ब्राजीलिया विश्वविद्यालय के निदेशकों पर अदालत में गयी और उसने अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीटों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया, तब सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल, 2012 के अपने ऐतिहासिक फैसले में इन निर्णयों पर मुहर लगा दी.

मलयेशिया की नयी आर्थिक नीति

मलयेशिया की नयी आर्थिक नीति एक तरह से एफर्मेटिव एक्शन का ही नमूना है. मलयेशिया बहुमत के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां अपनाता है, क्योंकि बहुसंख्यक मलय लोगों की आय पारंपरिक तौर पर व्यवसाय में लगे चीनियों से काफी कम है. मलयेशिया एक बहुनस्लीय मुल्क है, जहां मलय लोग आबादी का 52 फीसदी हिस्सा हैं. 30 फीसदी चीनी मूल के मलयेशियाई हैं और आठ फीसदी भारतीय मूल के मलयेशियाई हैं. ब्रिटिश वर्चस्व के सौ से अधिक वर्षो के दौरान चूंकि ब्रिटिश शासकों ने चीनी और भारतीय आप्रवासी लोगों को बढ़ावा दिया उसके चलते मलय लोगों के साथ भेदभाव होता रहा था, जिसे ठीक करने की कोशिश चल रही है.

अश्वेत आर्थिक सशक्तीकरण

1994 में जनतंत्र में संक्रमण होने के बाद अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की अगुआईवाली सरकार पहले के असंतुलन को समाप्त करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई विधेयक को (जिसे रोजगार समानता नीति कहा गया) लागू करने का निर्णय लिया.

इसके चलते, सभी मालिकों/ एम्प्लॉयर के लिए कानून के अंतर्गत यह अनिवार्य बनाया गया कि वह पहले से वंचित समूहों (अश्वेत, इंडियन और कलर्डस) को रोजगार में लगाये. इसी से जुड़ी धारणा है अश्वेत आर्थिक सशक्तिकरण की अवधारणा. रोजगार समानता अधिनियम और ब्लेक इकॉनोमिक एम्पॉवरमेंट एक्ट का मकसद है, निर्दिष्ट समूहों को बढ़ावा देकर कार्यस्थल पर समानता को हासिल करना.

इन निर्दिष्ट समूहों में शामिल माने जाते हैं सभी रंगों के लोग, महिलाएं (जिनमें श्वेत महिलाएं भी शामिल होती हैं) और शारीरिक अशक्त (श्वेत भी शामिल). रोजगार समानता अधिनियम के लिए जरूरी है कि ऐसी कंपनियां जहां 50 से अधिक लोग काम करते हैं, वे ऐसी योजना बनायें और उन पर अमल करें, ताकि कार्यबल में विविध तबकों को प्रतिनिधित्व मिले और उसकी सूचना श्रम विभाग को दें.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें