बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य ने हाल में मणिपुर में पिछले 13 सालों से अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला से मुलाकात की. प्रस्तुत उनकी रिपोर्ट :
13 साल से हिरासत में रहने का मतलब क्या होता है? इस लंबी मियाद में इंसानों की कमी मुङो सबसे ज्यादा खलती है. फिर अपने आसपास रखी किताबों, पौधों और कुछ खिलौनों की ओर इशारा करते हुए वे बोलती हैं, ये बेजान चीज़ें ही मेरी दोस्त हैं. मैं बहुत बदल गयी हूं. हालात ने मुङो एक अलग इनसान बना दिया है.
आज़ाद भारत में नेतागीरी, समाजसेवा और आंदोलन करने वाले तो बहुत हैं. पर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध जताने के ‘जुर्म’ में इतना वक्त कैद में किसी ने भी नहीं काटा है, जितना इरोम शिर्मला ने.
वह 13 साल से मणिपुर के एक अस्पताल में न्यायिक हिरासत में हैं. 15 गुणा 10 फीट के अस्पताल के उस छोटे से कमरे में जब मैं उनसे मिलने पहुंची, तो उनके चेहरे पर अभी भी मुस्कान तैरती दिखी.
13 साल पहले, 28 वर्ष की उम्र में इरोम ने सरकार के एक फैसले का विरोध किया और रास्ता चुना आमरण अनशन का. वही रास्ता जिस पर बहुत पहले महात्मा गांधी चले थे.
फर्क इतना है कि इरोम के अनशन को आत्महत्या की कोशिश समझा गया और उन्हें हिरासत में ले लिया गया. नाक में नली लगा कर जबरन भोजन दिया जाने लगा और हर साल हिरासत की मियाद बढ़ाई जाती रही.
इरोम ने मुङो बताया, मुङो लगता है मेरे साथ भेदभाव किया जा रहा है. महात्मा गांधी को अपनी असहमति जाहिर करने की स्वतंत्रता थी, तो भारत के नागरिक के तौर पर मुङो क्यों नहीं है? मुङो कैद में क्यों रखा गया है?
हिरासत की इस मियाद के दौरान इरोम से बहुत कम लोगों को मिलने दिया जाता रहा है. पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार की कड़ी शब्दों में आलोचना की और कहा कि इरोम के साथ यह बरताव मानवता के खिलाफ है. अब पाबंदियां कुछ ढीली हुई हैं, जिसकी बदौलत मुङो शर्मिला से मुलाकात का मौका मिला.
साल 2000 में जब शर्मिला ने अनशन शुरू किया था, वह 28 साल की थीं. उनकी मांग थी कि मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाया जाए, क्योंकि उसकी आड़ में कई मासूम लोगों की जान ली जा रही है. इरोम की उम्र अब 41 पार कर चुकी है. कानून अब भी प्रदेश के कई इलाकों में लागू है और इरोम बंधी हैं अपनी ही शर्त में. तो वह अब क्या करना चाहती हैं? मैंने पूछा तो बोलीं, एक साधारण जीवन जीना चाहती हूं, जैसा पहले था, जिसका कोई मकसद न हो.
इस मुलाकात से कुछ ही दिन पहले कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव का टिकट देने का प्रस्ताव रखा था, पर इरोम ने मना कर दिया. मैंने पूछा क्यों? तो बोलीं, मैं राजनीति में दाखिल नहीं होना चाहती. पर साथ ही कहने लगीं कि उन्हें आम आदमी पार्टी से बहुत उम्मीद है. भारत में हिरासत में रखे गए लोगों को वोट डालने का अधिकार नहीं है. इरोम ने भी पिछले 13 साल से मतदान नहीं किया है.
मैंने पूछा कि वोट डालने की इच्छा कभी मन में उठती है? तो बोलीं, पिछले समय में चुनाव से कोई उम्मीद नहीं होती थी, पर आम आदमी पार्टी का काम देखने के बाद मुङो अपने एक वोट की अहमियत भी समझ आने लगी है.
डेसमंड कूटिन्हो की एक छोटी-सी तसवीर उनके सिरहाने रखी थी. मुङो कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी. जवानी के ज्यादातर साल अकेले काट चुकीं इरोम को शायद अब यही बात सबसे ज्यादा कचोटती है. आधे घंटे की मुलाकात में बहुत सारा समय चुप्पी में निकल गया. विदा होने से जरा पहले इरोम ने मेरी डायरी मुझसे ली और उस पर डेसमंड का इमेल आइडी लिख कर कहा कि उस पर उनका एक संदेश भेज दूं. यह कहते हुए उनकी आंखें भर आयीं और गला रु ंध गया. फिर वह कुछ कह नहीं पायीं. सब आंसुओं में लिखा था. कुछ देर मैंने उनका हाथ पकड़ा, एक रुमाल दिया. उन्होंने ख़ुद को समेटा और मुलाकात का वक्त हो गया. इरोम शर्मिला फिर अकेली हो गयीं. संविधान की किताब में लोकतंत्र और आज़ादी का मतलब ढूंढने के लिए.
क्या है सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून
मणिपुर में 25 से •यादा अलगाववादी गुट सक्रिय हैं. अलगाववाद से निबटने के लिए राज्य में कई दशकों से सेना तैनात है, जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के इस्तेमाल की छूट है. इसके तहत सुरक्षा बलों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इस कानून की आड़ में कई मासूम फर्जी मुठभेड़ में मारे गए हैं.