2014 के भारतीय आम चुनाव में जितनी दिलचस्पी देशी मीडिया को है, विदेशी मीडिया भी उतनी ही रुचि ले रहा है. दुनिया भर के बड़े अखबारों और चैनलों के पत्रकार इस चुनाव के विभिन्न पहलुओं की कवरेज के लिए इन दिनों भारत में हैं. कैसा है उनका कवरेज, इसी पर नजर डाल रही है इस बार की कवर स्टोरी..
घर से आयी है खबर, हो गया चहल्लुम उनका/ पायनियर लिखता है, बीमार का हाल अच्छा है- ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ की सलाह देनेवाले अकबर इलाहाबादी का एक शेर यह भी है. जाहिर है, खबर लिखने में अखबारों से चूक होती आयी है. अकबर इलाहाबादी के जमाने में पॉयनियर से यह चूक उस वक्त की डाक-व्यवस्था की कछुआ-चाल की वजह से हुई थी. संवाददाता ने बेगम अकबर की तबीयत में सुधार का समाचार डाक से डिस्पैच किया था और समाचार के पहुंचने और छपने के बीच बेगम अकबर का चालीसवां तक हो चुका था. आज के कंप्यूटरी और इंटरनेटी जमाने में खबर लिखने में चूक संचार-व्यवस्था की देरी की वजह से कम और घटना के मिजाज को न भांप पाने की वजह से ज्यादा होती है. और, चूक की आशंका तब और ज्यादा बढ़ जाती है, जब आप 81 करोड़ मतदाताओं के बूते दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलानेवाले देश भारत के लोकसभाई चुनावों की रिपोटिर्ंग करने चलें और उसके निर्वाचन-क्षेत्र की बहुरंगी विविधता को भूल सच्चाई को अपने मनचीते चश्मे से देखने की कोशिश करें. विदेशी मीडिया, खास कर विदेशी अखबारों से भारत के लोकसभाई चुनावों की रिपोटिर्ंग में यही चूक हो रही है.
मिसाल के लिए, अखबार ‘द गार्जियन’ ने मार्च महीने के एक संस्करण में अपने लखनऊ संवाददाता की रिपोर्ट का जो शीर्षक लगाया, उसका हिंदी अनुवाद कुछ यों होगा- ‘भारत में विपक्ष के नेता नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव मैदान में’. अब इस बात पर चौंकिये कि नरेंद्र मोदी केंद्र में विपक्ष के नेता कब से हो गये! ऊपरी तौर पर यह तथ्य की गैर-जानकारी में हुई चूक जान पड़ती है, लेकिन गहरे उतरें तो पता चलेगा कि अखबार ‘द गार्जियन’ भारतीय मीडिया के भीतर मोदीमय होते माहौल की चपेट में आ गया. वह मान बैठा कि भाजपा की तरफ से चूंकि मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, सो इस पद के लिए दावेदारी की हैसियत उन्होंने नेता विपक्ष की दमदार भूमिका निभाते हुए ही कमाया होगा. सत्ताधारी यूपीए की अगुआ कांग्रेस चूंकि इस बार के चुनाव में प्रभाहीन नजर आ रही है. ऐसे में ‘द गार्जियन’ ने मान लिया कि नेता विपक्ष के रूप में यह मोदी का ही करिश्मा है, सो वे जाहिरा तौर पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनाये गये हैं! तभी उसने अपने संपादकीय में यह राय भी दे डाली कि सरकार तो भाजपा की ही बनने जा रही है.
इसमें कोई शक नहीं कि भारत में इस बार के चुनावी-जंग की मीडिया-कथा के नायक मोदी हैं. यह नायकत्व उन्होंने अपने प्रचार-अभियान की आक्रामक शैली और मीडिया के कामकाज की बेहतर समझ के आधार पर हासिल किया है. कहावत है, खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. कुछ इसी तर्ज पर देसी मीडिया पर छायी मोदी-कथा को देख कर विदेशी मीडिया ने भी रंग बदला है. ऐसे में भारत की मुख्यधारा के मीडिया में छायी रहनेवाली मोदी-कथा विदेशी अखबारों में भी अपने रंग भर रही है और चुनावी-जंग की शेष कथाओं का रंग विदेशी अखबारों पर उसी मात्र और गहराई में चढ़ रहा है, जिस हद तक ये कथाएं खुद को मोदी के नायकत्व के बरक्स पेश कर पाने में सफल हो पा रही हैं. विदेशी अखबारों में आपको केजरीवाल नजर आयेंगे, क्योंकि वे मोदी के खिलाफ बनारस से चुनाव लड़ रहे हैं. वहां आपको अपने बुढ़ापे के कारण भाजपा के भीतर दरकिनार किये जाते नेता भी नजर आएंगे, क्योंकि वे मोदी की विकास-कथा में बाधक हैं. विदेशी अखबारों में चर्चा मिलेगी कि भारत में चुनावी माहौल हिंसक मुहावरे से भर गया है, क्योंकि ये मुहावरे मोदी को लक्ष्य करके गढ़े गये या मोदी-प्रेरित राजनीति की उपज हैं. और, विदेशी अखबार यह भी बतायेंगे कि इस बार भारत के मुसलमान चुनावी आसमान पर चढ़े विकास के मुहावरे को लेकर उत्साहित हैं या नहीं, क्योंकि विकास का यह मुहावरा मोदी ने गढ़ा है. यानी इस समय विदेशी मीडिया का मोदीमय होता माहौल आपको मोदी के प्रसंग से जुड़ी हर बात बतायेगा, बस यही नहीं बतायेगा कि चुनाव-परिणाम के बाद बनने वाली केंद्र की सरकार की कुंजी क्षेत्रीय दलों के पास है.
कुल मिलाकर, निष्कर्ष यह है कि भारत की चुनावी रिपोटिर्ंग के मामले में देसी अखबारों का चलन विदेशी अखबारों पर भी दिख रहा है, वहां भी कथा मोदी प्रसंग के इर्द-गिर्द गढ़ी जा रही है और ऐसे में बहुरंगे भारत की बहुधर्मी राजनीतिक सच्चाई से विदेशी मीडिया ने अपना मुंह मोड़ रखा है.
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस