लोकसभा चुनाव, 2014 की बहस में ‘गुजरात का विकास मॉडल’ एक प्रमुख मुद्दा बन कर उभरा है. आलोचक बताते हैं कि गुजरात का विकास आंकड़ों की बाजीगरी पर आधारित एक छलावा है, जबकि समर्थकों का दावा है कि मोदी प्रधानमंत्री बने तो ‘विकास का गुजरात मॉडल’ देश की अर्थव्यवस्था में एक नयी जान फूंक देगा. कल आपने कुछ जाने-माने विद्वानों का आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण पढ़ा, जिसमें बताया गया था कि गरीबी एवं गैर-बराबरी गुजरात के विकास की जमीनी हकीकत है. आज के अंक में पढ़ें गुजरात मॉडल के कुछ प्रशंसकों का नजरिया
आज देश में गुजरात के विकास मॉडल पर व्यापक चर्चा चल रही है. यह चुनाव में एक प्रमुख विषय बन कर उभरा है. इस लिहाज से देखें, तो गुजरात मॉडल की हकीकत अलग विषय है और इसे लेकर बनी छवि दूसरा विषय. नरेंद्र मोदी जिस बात के लिए चर्चित हैं, या खुद गुजरात में जिस मॉडल को सामने रखा या हकीकत के धरातल पर जो रखने की कोशिश की है, उसे अब देश के पैमाने पर परखा जाना है.
आमतौर पर होता यह है कि कोई भी बहस यदि किसी नेता के इर्द-गिर्द छिड़ जाये, तो दो पक्ष बन जाते हैं. नरेंद्र मोदी इस देश के अकेले नेता हैं, जिन पर अविराम बहस पिछले 12 वर्षो से चल रही है. एक तरफ मोदी बहस के केंद्र में हैं, तो वहीं दूसरी तरफ अपने राज्य में वे शासन, राजनीति और विकास के नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं. हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार हरीश चंद्र बर्णवाल की पुस्तक ‘मोदी मंत्र’ पढ़ने को मिली. उन्होंने अपनी पुस्तक में मोदी के विषय में लिखा है- ‘एक अच्छे शासक व खुशहाल प्रजा की बातें सिर्फ किस्सों-कहानियों में ही रह गयी हैं, लेकिन इस किताब में ऐसी दर्जनों सच्ची और रोमांचित कर देनेवाली घटनाएं मिलेंगी, जिनकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. मैं कोई भविष्यवक्ता नहीं, लेकिन अपने भूतकाल को मैं देखता हूं, वर्तमान का आकलन करता हूं, तब मुङो लगता है कि अगर मोदी को समझना है, तो पहले आपको हर तरह के पूर्वाग्रह से बाहर निकलना होगा. मैंने किताब में तमाम जगहों से स्नेत जुटाये हैं. उनकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि उनके सारे काम पब्लिक डोमेन में हैं. उनकी सारी नीतियां आम जनता तय करती है. उनके राज में कोई भेदभाव का आरोप नहीं लगाता, बल्कि सिस्टम से सारे काम अपने आप होते हैं.’
इसी तरह एक अन्य पत्रकार ने पिछले दो वर्षो के मोदी के भाषणों के जरिये उनको समझने की कोशिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि इन लोगों ने मोदी के विषय में उपलब्ध जानकारियों को ही किताब की शक्ल में सामने रखा है. मुङो नहीं लगता कि उन्होंने किताब लिखने के लिए गुजरात की धरती पर उतर कर जानकारी जुटायी है.
परंतु वरिष्ठ पत्रकार मधु किश्वर ने ‘मोदी, मुसलिम और मीडिया’ के नाम से शोध पर आधारित पुस्तक लिखी है. हमें यह याद रखना होगा कि यह वही मधु किश्वर हैं, जो 2002 के गोधरा दंगे के बाद चंदा एकत्रित करते हुए दंगा पीड़ितों की मदद के लिए आगे आयी थीं. इतना ही नहीं, इन्होंने नरेंद्र मोदी को ‘दंगाइयों का मुख्यमंत्री’ घोषित किया था. इन्होंने गुजरात जाकर, लंबे समय तक प्रवास कर मोदी के विकास मॉडल को देखा और कथित तौर पर बनायी उस छवि को तोड़ा, जिसमें माना जाता था कि गुजरात के मुसलमान द्वितीयक या तृतीयक श्रेणी के नागरिक हैं. इसी तरह आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में गुजरात यात्र के दौरान मोदी के विकास मॉडल और गुजरात के विकास पर सवाल खड़ा किया. लेकिन ‘यथावत’ के हालिया अंक में जितेंद्र बजाज ने एक लेख में इसका खंडन किया है. इसमें केजरीवाल द्वारा बुने गुजरात के छद्म विकास का सिलसिलेवार खंडन किया गया है. वे कहते हैं कि आंकड़ों की अनदेखी करते हुए अरविंद केजरीवाल गुजरात में कृषि के ह्रास की कहानी बताते घूम रहे हैं. जबकि आंकड़े न तो सड़कों पर पड़े होते हैं और न ही गुजरात के किसी खेत को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस वर्ष राज्य में कितना उत्पादन होगा और दस वर्ष पहले कितना हुआ होगा. इसलिए सिर्फ दो दिन गुजरात में घूम कर वहां के विकास के बारे में जान लेने की बात असंगत ही है.
भारत सरकार के पास आंकड़ों के संकलन का एक बड़ा व सक्षम तंत्र है. केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार, गुजरात की खेती में पिछले दसेक वर्षो में असाधारण बढ़ोतरी हुई है. कृषि उत्पादन 20 फीसदी बढ़ा है. फसल उत्पादन का सकल क्षेत्र 14 फीसदी बढ़ा है. सिंचाई की सुविधा में डेढ़ गुना वृद्धि हुई है. गेहूं का उत्पादन साढ़े तीन गुना और कपास का उत्पादन पांच गुना बढ़ा है. ऐसे में आइआरएस अधिकारी रहे केजरीवाल अगर कुछ कहते हैं, तो उन्हें स्नेत भी बताना चाहिए.’
दरअसल, गुजरात मॉडल को लेकर दोनों तरह के दावे हो रहे हैं. इसकी जमीनी हकीकत क्या है, यह मैं ज्यादा नहीं जानता, पर हम सभी जानते हैं कि गुजरात मॉडल देश के मतदाताओं का एक सपना बन गया है, इसलिए इसे मैं एक ‘इमेज’ मानता हूं. वोट की राजनीति में हकीकत क्या है, यह उतना मायने नहीं रखता. आज ‘इमेज’ यह हो गयी है कि मोदी के पीएम बनने से देश का विकास होगा. चुनावी समर में यह ‘इमेज’ काम करने लगता है और लोगों के सोच में ‘रासायनिक परिवर्तन’ होने लगता है.
हमारा देश विविधताओं और बहुलताओं का देश है और उसमें एक गुजरात मॉडल बनाने का यह मतलब नहीं कि विविधता या बहुलता नष्ट हो गयी. हमें हर तरह के मॉडल चाहिए. वर्ष 1990 से 2014 के बीच राजनीति और अर्थव्यवस्था का संचालन जिस तरह से बदला है, उसने विविधता और बहुलता को संकट में डाला है. यहां तक कि कौशल विकास का पूरा प्रयास ही संकट में पड़ गया. ऐसे में नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल से यह धारणा तो बनी ही है कि नयी पीढ़ी को रोजगार मिलेगा, खुशहाली आयेगी.
इस मॉडल की एक विशेषता है कि यह किसी ब्रांड को रिफ्लेक्ट नहीं करती. न तो सोशलिस्ट, न कैपिटलिस्ट, न कम्युनिस्ट और न ही नेशनलिस्ट़ मालूम हो कि यूरोप की औद्योगिक क्रांति के बाद देश-दुनिया में ये चार धाराएं रही हैं. 21वीं सदी के मुहाने पर ये विचारधाराएं पृष्ठभूमि में चली गयीं और जनतंत्र व भूमंडलीकरण ही इस सदी का यथार्थ है. मोदी अकसर अपने बयानों में वाजपेयीजी के शासन को याद करते हुए उसे आगे बढ़ाने की बात करते हैं. लेकिन मेरा मानना है कि मोदी का यह बयान शुद्ध राजनीतिक बयान है, क्योंकि वे एक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं.
वैसे भी एनडीए ने पीवी नरसिंह राव द्वारा लागू की गयी आर्थिक नीतियों को ही थोड़े बेहतर तरीके से लागू किया, कोई नया मॉडल नहीं दिया. वाजपेयी के योगदान को देश सिर्फ एक बेहतर प्रधानमंत्री के रूप में याद करता है. मोदी यदि पीएम बनते हैं, तो किस आर्थिक नीति पर अमल करेंगे, यह देखनेवाली बात है. इस बारे में अभी ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता. इस समय मोदी के बयानों से यही लगता है कि वे सर्वसमावेशी नीतियों को अपनाने की बात कह रहे हैं. लेकिन यह उनका सार्वजनिक बयान है और वोट पर निगाह रख कर दिया जा रहा है. शासन में आने पर उन्हें अर्थव्यवस्था की कठोर सच्चाई का सामना करना पड़ेगा और यदि उन्हें सफलता मिलती है, तो इसे मोदी मॉडल या किसी और नाम से याद किया जा सकता है. नरेंद्र मोदी इसी संविधान, इसी कानून, इसी व्यवस्था के साथ बेहतर शासन देने की बात कह रहे हैं. यह भरोसा देनेवाली बात है और शायद उनके चुनाव के लिए जरूरी भी. हालांकि, परिवर्तनकारी शक्तियां संविधान में शासन के बुनियादी सुधार की जरूरत महसूस कर रही हैं, लेकिन कोई भी उत्सव में खलल डालने को तैयार नहीं.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
एक राज्य के विकास मॉडल के इर्द-गिर्द पहली बार हो रहा है आमचुनाव
आम चुनाव 2014 को भारतीय इतिहास में ऐसे चुनाव के रूप में जाना जायेगा, जो धर्म, जाति व क्षेत्रीय समीकरणों से इतर विकास के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता रहा. इस चुनाव का एक उल्लेखनीय पहलू यह है कि एक राज्य यानी गुजरात का विकास मॉडल राष्ट्रीय परिदृश्य पर छाया रहा, जो भारतीय चुनाव के इतिहास में पहली बार हुआ है. नरेंद्र मोदी द्वारा प्रतिपादित इस मॉडल पर राजनीति के गलियारों में व्यापक बहस हो रही है, जबकि विकास के अन्य पक्षधर वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करते हैं. इस बहस में भाग लेने के लिए यह जानना जरूरी है कि गुजरात मॉडल वाकई में क्या है? आम आदमी की भाषा में कहें तो यह संसाधनों के समुचित इस्तेमाल से प्रत्येक नागरिक को फायदा पहुंचाते हुए राज्य को विकास की ओर ले जानेवाला मॉडल है. इस राज्य में कृषि और उद्योग-धंधों, दोनों ही क्षेत्रों में बढ़ोतरी हुई है, जबकि अन्य राज्यों में ऐसा नहीं है. इस उपलब्धि की वजह है कि राज्य सरकार ने ‘लैंड पॉलिसी’ को विकसित किया है, जिससे संबंधित समस्याएं निबटायी गयी हैं. जहां एक ओर अन्य राज्यों में जमीन अधिग्रहण करना उद्योगों के लिए गंभीर समस्या है, वहीं गुजरात में इनसे निबटने के लिए प्रभावी तंत्र गठित किया गया है. विकास मॉडल की अन्य उपलब्धि यह है कि पानी और खाद आदि के इस्तेमाल के लिए किसानों को तकनीक और प्रशिक्षण मुहैया कराया गया है. गुजरात के किसानों को ‘सोइल कार्डस’ दिया गया है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता की जांच कराने के साथ दीर्घ अवधि के लिए कृषि भूमि की उर्वरता कायम रखने के बारे में जाना जाता है. नतीजन, गुजरात में कृषि बढ़ोतरी दर 11 फीसदी के आसपास रही है, जबकि देशभर में यह महज तीन फीसदी है.
महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी गुजरात मॉडल सबसे आगे है. ‘सखी मंडल’ सरीखी योजनाओं से राज्य में महिलाओं को आर्थिक मदद मुहैया करायी गयी है. खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में इस योजना से महिलाओं को प्रत्यक्ष लाभ मिला है. इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में गरीब छात्रों को मुफ्त किताबें और कॉपियां मुहैया करायी गयी हैं, जिससे स्कूल छोड़ कर जानेवाले बच्चों की संख्या में तेजी से कमी आयी है. मुख्यमंत्री समेत अन्य मंत्री ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में आयोजित ‘शाला प्रवेशोत्सव’ में शामिल होते हैं, जिसमें स्कूल जानेवाले बच्चों का नामांकन सुनिश्चित किया जाता है. इसमें निचले स्तर से लेकर मुख्य सचिव स्तर तक के अधिकारी शामिल होते हैं, जिसके अच्छे नतीजे सामने आये हैं.
उच्च शिक्षा की बात करें तो गुजरात में पिछले एक दशक में 25 से ज्यादा विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है. आदिवासी क्षेत्रों में राज्य सरकार ने आदिवासियों को शिक्षा मुहैया कराने के लिए सफलतापूर्वक ‘वनबंधु कल्याण योजना’ लागू की और इस मकसद से 15,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. गुजरात मॉडल ने बेघरों को छत मुहैया करायी और ‘उम्मीद योजना’ के तहत दो लाख से ज्यादा युवाओं को कौशल विकास प्रशिक्षण दिलाया, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके.
जहां तक बुनियादी ढांचे की बात है तो इस संबंध में व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं बताना चाहूंगा कि जिला अदालतों के भवन पहले जजर्र हालत में थे और वकीलों समेत अन्य लोगों के लिए सुविधाओं का अभाव था. राज्य में आधुनिक सुविधाओं वाले अदालत भवनों का निर्माण किया गया. न्याय दिलाने की व्यवस्था में व्यापक सुधार के लिए यह मददगार साबित हुआ है.
शिकायत निवारण प्रणाली के क्षेत्र में भी गुजरात मॉडल उत्कृष्ट है, क्योंकि मुख्यमंत्री स्वयं जनता दरबार में साप्ताहिक रूप से जनता की शिकायतें निबटाते हैं. इसमें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये अधिकारी मौजूद रहते हैं और इसकी सफलता दर 90 फीसदी से ज्यादा है.
समुचित प्लानिंग और कार्यान्वयन से गुजरात मॉडल प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहा है, जहां राज्य के सरकारी अमले में क्लर्क से लेकर तमाम विभागों के उच्च अधिकारी और मंत्री समेत मुख्यमंत्री जनता की सेवा में जुटे हैं.
ढोल पीटने से नहीं बनी है विकास की छवि
पुष्पेश पंत, राजनीतिक विश्लेषक
आज चुनावी गहमागहमी में ‘मोदी लहर’ का जिक्र बारंबार हो रहा है. इस लहर को भाजपा के पक्ष में एक ज्वार में बदलने के लिए गुजरात के ‘असाधारण विकास’ का उल्लेख भी बारंबार होता रहा है. ‘विकास पुरुष’ वाली छवि ने निश्चय ही नरेंद्र मोदी को किसी और नेता की तुलना में कद्दावर बनाया है. ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं, जिनका मानना है कि विकास के जिस ‘गुजरात मॉडल’ से मोदी ने अपने राज्य का कायाकल्प किया है, उसी के जरिये देश की बेहतरी संभव है और इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी का सबसे मजबूत दावेदार समझा जाना चाहिए. दूसरी तरफ उन आलोचकों की तादाद भी काफी बड़ी है, जो यह दोहराते नहीं थकते कि यह ‘गुजरात मॉडल’ महज मीडिया का चमत्कार है. एक छलावा, जानलेवा मरीचिका जैसा, जिसमें फंसना देश के लिए घातक और सर्वनाशक ही साबित हो सकता है. देशभर में मतदाता ‘गुजरात मॉडल’ के पक्ष या विपक्ष में बंट चुके हैं. इसलिए इसकी असलियत टटोलने के काम को टाला जाना असंभव हो चुका है.
सबसे पहले यह पूछने की जरूरत है कि क्या वास्तव में गुजरात ने मोदी के शासनकाल में प्रगति की है? मेरा मानना है कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर किसी नतीजे तक पहुंचना नादानी है. ‘कानों सुनी’ की जगह ‘आंखों देखी’ की कसौटी को ही ज्यादा विश्वसनीय माना जाना चाहिए. पिछले साल-डेढ़ साल में चुनावी जुनून के उफान के पहले कई बार गुजरात यात्र का मौका हमें मिला है. संयोगवश गुजराती पढ़ने और बोल सकने के कारण बिना किसी दुभाषिये के स्थानीय लोगों से आत्मीय संवाद सहज संभव रहा है. मां का जन्म सौराष्ट्र में होने और किशोरावस्था तक लालन-पालन वहीं होने के कारण गुजरात ननिहाल लगता रहा है. इसलिए बिना वहां का भूमिपुत्र हुए उस प्रदेश के सामाजिक- राजनैतिक जीवन से आत्मीय नाता रहा है. इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि गुजरात देश के अनेक दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक खुशहाल और सुशासित है. पर इस बात को कबूल करने से अपने आप यह बात प्रमाणित नहीं होती कि इस उपलब्धि के लिए मोदी का नेतृत्व ही जिम्मेवार है और यहीं कुछ अन्य अहम सवाल हमारे सामने खड़े होने लगते हैं.
जो लोग मोदी के गुब्बारे की हवा निकालने को कमर कसे हुए हैं, उनका कहना है कि यह राज्य हमेशा से अपने नागरिकों की उद्यमिता तथा व्यावसायिक कौशल के लिए पहचाना जाता रहा है. सहकारिता हो या गैर-सरकारी संगठनों का उत्साह, गुजरात तरक्की की दौड़ में आगे रहा है और हकीकत यह है कि मोदी पुरखों की बोई फसल ही काट रहे हैं! हमारी समझ में यह सरासर बेमानी है. यह सच है कि पिछड़े ‘बीमारू’ राज्यों जैसी चुनौतियों का सामना मोदी या उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों को नहीं करना पड़ा है, पर इस बात को नकारना असंभव है कि चुनावी हैट्रिक लगानेवाले इस नेता ने गुजरात को तरक्की की दौर में पिछड़ने नहीं दिया है. मध्य प्रदेश, गोवा अथवा बिहार के साथ तुलना करने का कोई तुक नहीं. याद रहे कभी कानपुर की तुलना अहमदाबाद से ही नहीं, मैनचैस्टर से की जाती थी अपने कपड़ा उद्योग के कारण. आर्थिक विकास की विरासत की हिफाजत को कतई नजरंदाज नहीं किया जा सकता. खुद की चमश्दीद गवाही के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सड़कें हों या बिजली, बड़े उद्योगधंधे हों या छोटे कारोबारी, स्वरोजगारी गुजरात की हालत पिछले दस-बारह सालों में बेहतर ही हुई है, बदतर नहीं. अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत जैसे शहरों में ही नहीं, छोटे कसबों और देहात में भी नागरिक अपनी सरकार से संतुष्ट नजर आता है.
यह साफ करने की जरूरत है कि हमारी किसी भी गुजरात यात्र का खर्च किसी सरकार ने वहन नहीं किया और न ही यह एक-दो दिन के ‘उड़नछू’ दौरे थे. जिन लोगों ने मेहमाननवाजी की उनमें उत्तराखंडी प्रवासी बिरादरी भी थे और परिवार के पुराने मित्र, स्थानीय अल्पसंख्यक तथा हमपेशा या समान रुचि-संस्कार वाले लेखक-कलाकार. इनमें से अनेक मोदी के कट्टर एवं मुखर राजनीतिक विरोधी भी थे जो इस घड़ी भी दिलेरी से यह कहने से नहीं हिचक रहे कि मोदी का प्रधानमंत्री बनना इस देश में जनतंत्र के लिए सबसे बड़ा जोखिम पैदा कर सकता है. विडंबना यह है कि ये लोग भी 24 घंटे बिजली की आपूर्ति या राजपथ सरीखी सड़कों के रखरखाव को दरकिनार नहीं करते. हां, मोदी को इसका चुनावी लाभ उठाने से रोकने के लिए यह जोड़ते हैं कि यह तरक्की मोदी के कारण नहीं. एक छोर पर राहुल गांधी हैं, जिन्हें लगता है कि केंद्र से भेजी निधि से ही यह करिश्मा सामने आया है, तो उनसे सुर मिलानेवाले यह अलग राग भी अलाप रहे हैं कि इस विकास का लाभ सभी को समान रूप से नहीं मिला है. ‘गुजरात मॉडल’ महज बड़े पूंजीपतियों को ही रास आ रहा है. इस गंभीर आरोप की तटस्थ पड़ताल जरूरी है.
यह सच है कि मोदी की उम्मीदवारी को कॉरपोरेट जगत का जबर्दस्त समर्थन प्राप्त है. गुजरात के अंबानी और अदानी ही नहीं, कर्नाटक के अजीम प्रेमजी, किरन मजूमदार शॉ, नारायणमूर्ति, रतन टाटा, आदि गोदरेज, कुमारंगलम बिड़ला सभी इस बारे में एकमत हैं कि देश को मंदी की चपेट से निकालने के लिए ‘गुजरात मॉडल’ की जरूरत है. विदेशी निवेशकों की नजर में भी, चाहे वे अमेरिकी हों या यूरोपीय, मोदी का गुजरात आकर्षक है.
यहां यह सवाल उठाना नाजायज नहीं कि कौन सा राजनीतिक दल या बड़ा नेता आर्थिक सुधारों के सूत्रपात के बाद, भूमंडलीकरण के इस युग में कॉरपोरेट दुनिया के सरमायेदारों को गले लगाने को व्याकुल नहीं? क्या यह सच नहीं कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना में ही महफूज है और विकास का साम्यवादी/ समाजवादी वैकल्पिक मॉडल दुनियाभर में मुर्दा है? हां, जातिवादी, मजहबी या क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करनेवाले ‘विकास के साथ सामाजिक न्याय’ का नारा बुलंद करते अपनी-अपनी दुकानें सजाने में व्यस्त दिखाई देते हैं. पलभर के लिए मोदी के खिलाफ ‘सेकुलर’ जिहादियों के हमले के शोर से मुक्त होने का प्रयास करते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘गुजरात मॉडल’ मोदी का आविष्कार नहीं, पर रचनात्मक आर्थिक क्रियाकलाप को प्रोत्साहित करनेवाला माहौल पैदा करने में वह कामयाब रहे हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश ही नहीं, आंध्र प्रदेश तक से आप्रवासी रोजगार और बेतहर जिंदगी की तलाश में गुजरात का रुख नहीं कर रहे होते.
कई दिन साथ रहे टैक्सी ड्राइवर ने जिस आपबीती का साझा हमसे किया उसका साझा हम आपसे करना चाहेंगे- ‘साहिब कोई कुछ कहे, पर इस बात से हम खुश हैं कि आज धंधा पनप रहा है. अमन चैन है. बस्ती में जो दबंग दादा हफ्ता वसूली को पहुंचते थे, जिन्होंने हमारे बीवी-बच्चों का बाहर निकलना मुश्किल कर रखा था, उनका सफाया हो गया है. दंगों फसाद का डर नहीं. हम चार पैसे कमा रहे हैं और रात के वक्त भी बेखौफ घर से बाहर निकल सकते हैं.’ शब्द बदलते रहे पर इसी आशय की बातचीत ‘गुजरात मॉडल’ की पड़ताल करते वक्त जगह-जगह सुनने को मिली और राज्य में घूमते हुए खुद भी महसूस हुआ कि ‘गुजरात मॉडल’ का शोरगुल मोदी ब्रिगेड के ढोल पीटने से ही नहीं पैदा हुआ है. पुरानी कहावत है- ‘खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से!’