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संस्मरण- ‘पॉल साब नहीं होते तो रघु राय भी नहीं होता’

सगा भाई जिगर का टुकड़ा होता है. चाहे कहीं भी हो, कुछ भी हो, भाई तो भाई ही होता है. मेरी ख़ुशकिस्मती ऐसी रही कि मेरे सगे बड़े भाई एस पॉल जैसे जीनियस थे. अब वे नहीं हैं लेकिन उनका काम मौजूद है, रहेगा भी. उनको देखकर ना जाने कितने ही लोग फोटोग्राफ़ी में आए […]

सगा भाई जिगर का टुकड़ा होता है. चाहे कहीं भी हो, कुछ भी हो, भाई तो भाई ही होता है. मेरी ख़ुशकिस्मती ऐसी रही कि मेरे सगे बड़े भाई एस पॉल जैसे जीनियस थे.

अब वे नहीं हैं लेकिन उनका काम मौजूद है, रहेगा भी. उनको देखकर ना जाने कितने ही लोग फोटोग्राफ़ी में आए होंगे. मैं भी उनमें एक हूं.

मैं जब बच्चा था, तब ऐसा दौर तो नहीं था कि लोग बचपन में तय कर पाते थे कि क्या करना है. तो कुछ तय जैसा नहीं था कि क्या बन पाऊंगा.

पिताजी चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं. तो 22 साल की उम्र तक मैंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर ली. इसके बाद पंजाब के ही फिरोजपुर में जाट रेजिमेंट में ड्राइंग इंस्ट्रक्टर का काम भी किया, लेकिन मेरा मन काम में लग नहीं रहा था.

ये कोई 1962-63 की बात है. उस वक्त मेरे बड़े भाई फोटोग्राफ़ी की दुनिया में स्थापित हो चुके थे. हिमाचल सरकार के पर्यटन विभाग में फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर शुरुआत करने के बाद वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के चीफ़ फ़ोटोग्राफ़र बन चुके थे.

भाई साब और मेरी पहली तस्वीर

मैं अपना काम छोड़कर भाई साब के पास रहने आ गया था. उस वक्त ऐसा था कि भाई साब का घर हमेशा फोटोग्राफ़रों से घिरा होता था, हर आदमी कैमरा और फ़ोटो की बातें करता मिलता था, तब मुझे लगता था कि क्या पागल लोग हैं, इनकी जिंदगी में बस यही बातें करने को बची रह गई हैं.

दो तीन साल ऐसे ही निकल गए थे फिर एक दिन ऐसा हुआ कि भाई साब के एक दोस्त अपने गांव जा रहे थे, मैंने पॉल साब से ज़िद ठान ली कि मुझे वे अपने दोस्त के साथ जाने दें.

जबर्दस्ती से उनका कैमरा भी ले लिया, यही सोचा था कि कुछ तस्वीरें भी लेकर देखता हूं. रास्ते में एक गदहा दिखा, मैंने उसकी तस्वीर लेनी चाहिए. पर वह भागने लगा. मैं भी गदहे के पीछे भागने लगा. यह खेल तब तक चला जब तक गदहा थक कर रुक नहीं गया.

जब वह रुका तो मैंने उसकी तस्वीर ले ली. बाद में लौटा तो भाई साब ने तस्वीर देखी, उसका प्रिंट तैयार किया और उसे विदेश के कुछ अख़बारों के लिए भेज दिया. गदहे की पहली तस्वीर ही लंदन टाइम्स में आधे पन्ने पर छप गई. मुझे लगा कि ये काम तो मैं कर सकता हूं.

भाई साब का रुतबा था, उनकी पहचान की बदौलत ही मुझे हिंदुस्तान टाइम्स में नौकरी भी मिल गई. उन्होंने मुझे पहला कैमरा ख़रीद कर दिया. शुरुआती सालों में उनके साथ ही रहा.

तो आज जिस रघु राय को दुनिया जानती है, वो रघु राय नहीं बन पाता अगर भाई साब नहीं होते, उन्होंने मेरी पहली तस्वीर टाइम्स को ना भेजी होती.

हमेशा मिलती रही प्रेरणा

रचनात्मक दुनिया में सबकी यात्रा अपनी अपनी होती है, हर किसी को अपना रचनात्मक संघर्ष करना होता है, लेकिन शुरुआत कराने वाले की भूमिका बेहद अहम होती है. तो फ़ोटोग्राफ़ी के मेरे शुरुआती दिनों में एक तरफ़ तो पॉल साब थे, तो दूसरी तरफ़ किशोर पारीख जैसे जीनियस भी आ गए थे, जिनके साथ मैंने हिंदुस्तान टाइम्स में अपने करियर की शुरुआत की थी.

ऐसे में दो जीनियस के बीच दबने का ख़तरा था, सैंडविच बन जाने का डर भी था. लेकिन मेरी दोनों ओर इतने जालिम लोग थे कि उनके सामने हमेशा बेहतरीन करते रहने की प्रेरणा मिलती थी.

पॉल साब जब इंडियन एक्सप्रेस के चीफ़ फोटोग्राफ़र रहे, उसे फ़ोटोग्राफ़ी के लिहाज से किसी भी अख़बार का सर्वश्रेष्ठ दौर माना जाता है, आज भी. उन्होंने एक तरह से क्रांति कर दी थी, स्पोर्ट्स फोटोग्राफ़ी के लिहाज से या राजनीतिक फ़ोटोग्राफ़ी के लिहाज से, पॉल साब ने जिन चीज़ों की शुरुआत की उसे बाद में किशोर ने आगे बढ़ाया.

1960 के दौर में वे भारत के पहले ऐसे फ़ोटोग्राफ़र थे जिन्होंने पिक्टोरियल ट्रीटमेंट का विरोध किया था, यानी बड़े बुजुर्गों की झुर्रियों और सुंदर बच्चों के चेहरे की फोटोग्राफ़ी के वे सख़्त खिलाफ थे.

वे उसे फोटोग्राफ़ी नहीं मानते थे, वे कहते थे कि आपकी तस्वीरों में अगर ज़िंदगी का कोई जादू नहीं है, मानवीय वैल्यू नहीं है तो फिर वो फ़ोटोग्राफ़ी नहीं है. उन्होंने हमेशा कहा कि वैसी तस्वीरों के आसपास भी नहीं जाना है. इसका असर रहा मुझपर.

वे मेरे काम की सराहना करते थे, लेकिन ख़राब काम हो तो नाराज़ भी होते थे. नाराज होने पर कहते थे पता नहीं क्या करता फिरता था. मैं थोड़ा लापरवाह भी था.

मेरे लिए मूमेंट पकड़ना ज़्यादा अहम था, इसके लिए क्वालिटी से समझौता कर लेता था. लेकिन भाई साब क्वालिटी से समझौता नहीं किया करते थे. दो क्रिएटिव लोग एक जैसे नहीं होने चाहिए, तो आप ये अंतर मान लीजिए हम दोनों में.

पॉल साब की ख़ासियत

एक बात और थी, उनके काम में. उनकी टेक्नीकल क्वालिटी, प्रिंट क्वालिटी, निगेटिव क्वालिटी बेहद ख़ूबसूरत हुआ करती थी, बिलकुल मलाई की तरह. मुझे पचास साल हो गए हैं फोटोग्राफी करते हुए, भाई साब ने तो 65 साल तक फोटोग्राफ़ी की. 15 साल ज़्यादा का अनुभव भी था उनके पास.

उन्होंने 20 साल की उम्र में उन्होंने पहला कैमरा ख़रीद लिया था. वे फ़ोटोग्राफ़ी के उपकरणों के दीवाने थे. कोई भी नया कैमरा बाज़ार में आता था, लेंस आए चाहे वो कैनन हो, सोनी हो, निक्कान हो या पैंटेक्स हो, वे ख़रीद लाते थे और उससे प्रयोग करते थे. मुझे इससे डर लगता था, तो मैं एक ही उपकरण के साथ टिका रहा.

लेकिन भाई साब उपकरणों की तरफ़ खिंचे चले जाते थे. उनके पास नहीं भी तो कम से सौ कैमरे तो होंगे ही. प्रयोग करते, उससे सीखते और ख़ुद को बेहतर बनाते हुए ही वे अपने दौर के महान फ़ोटोग्राफ़रों में जगह बनाने में कामयाब रहे.

भाई साब ने 30 साल पहले न्यूज़ फोटोग्राफ़ी छोड़ दी और मैंने भी क़रीब 20 साल पहले क्योंकि न्यूज़ में फोटोग्राफ़्स तो दिन के साथ ही ख़त्म हो जाते हैं, ख़बर ख़त्म होते ही पिक्चर की वैल्यू ख़त्म हो जाती है. लेकिन हम दोनों लगातार काम करते रहे. फोटोग्राफ़ी पर हमारी बातें होती रहती थीं, लगातार इमोशंस भरी फोटोग्राफ़ी और लैंड स्केप के रूपों पर. खूब बातें होती थीं.

पॉल साब अपने काम से एक अलग तरह की पोएट्री रचते थे, मेरे काम में अलग तरह की इंटेंसिटी है, म्यूज़िक है. दो भाई, दोनों फ़ोटोग्राफ़र लेकिन हम दोनों की पहचान अलग अलग बनी, क्रिएटिव फ़ील्ड तो इसकी मांग भी करती है.

इसके अलावा ये भी था कि भाई साब बाहर की दुनिया में कम ही लोगों से मिलते जुलते थे, विदेश जाना हो या हवाई यात्रा, उससे बचते थे, निहायत प्राइवेट तौर पर रहने लगे थे. इस वजह से भी उनका ज़्यादातर काम दिल्ली और उसके आसपास ही सीमित रहा.

वे मुझे ना केवल फ़ोटोग्राफ़ी में लेकर आए बल्कि उनके चलते कई दूसरी चीज़ों के प्रति भी मेरा झुकाव हुआ. मसलन भाई साब को शास्त्रीय संगीत की बहुत अच्छी समझ थी, तो उनको सुनते देखकर मेरा झुकाव भी उस तरफ़ हुआ.

इतना ही नहीं वे ख़ुद बहुत अच्छी पोएट्री सुनाते थे. ख़ासकर उर्दू साहित्य के. उनकी ज़ुबान में साहित्य को सुनते गुनते ही मेरे अंदर साहित्यक समझ भी बनने लगी. उनके साथ गुजारा गया हर लम्हा मेरे लिए क़ीमती रहा, सीखने को मिलता रहा.

ये बात मैं कई बार पहले भी कह चुका हूं और सच्चाई भी यही है कि अगर पॉल साब नहीं होते तो मैं रघु राय भी नहीं बन पाता.

(रघु राय ने जैसा बीबीसी संवाददाता प्रदीप कुमार को बताया.)

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