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20,000 प्लास्टिक बोतलें उत्पादित होती हैं विश्व में प्रति सेकेंड,प्लास्टिक का जानलेवा कहर

आधुनिक जीवन-शैली में प्लास्टिक का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है. इसने हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया है. साल भर में पैदा होनेवाले प्लास्टिक का वजन पूरी मानवता के वजन के कमोबेश बराबर है. भारत उन देशों में शामिल है, जहां प्लास्टिक का चलन तेजी से बढ़ रहा है […]

आधुनिक जीवन-शैली में प्लास्टिक का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है. इसने हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया है. साल भर में पैदा होनेवाले प्लास्टिक का वजन पूरी मानवता के वजन के कमोबेश बराबर है. भारत उन देशों में शामिल है, जहां प्लास्टिक का चलन तेजी से बढ़ रहा है और जो समुद्र को इसके कचरे से सर्वाधिक प्रदूषित करते हैं. इस चिंताजनक मसले के विविध पहलुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का संडे-इश्यू…

दुनियाभर में पिछले दस वर्षों में प्लास्टिक का जितना उत्पादन हुआ है, उतना उसके पहले 50-60 वर्षों में भी नहीं हुआ था. इसका अर्थ यह है कि प्लास्टिक का उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ रहा है. और यह उत्पादन हर तरह के प्लास्टिक का है, सिर्फ बोतल का नहीं. जो खबर आयी है कि हर मिनट एक मिलियन प्लास्टिक बोतल लाये जा रहे हैं दुनियाभर में, तो दरअसल यह नजर आती है कि इतने बोतल किसी न किसी रूप में खरीदे-बेचे और फेंके जा रहे हैं.

हालांकि, आज करीब ज्यादातर चीजें प्लास्टिक की ही बनने लगी हैं, और किचेन-आॅफिस के सामानों से लेकर गाड़ी-प्लेन तक में ज्यादातर प्लास्टिक का ही इस्तेमाल होने लगा है. लेकिन, चूंकि बोतल हर जगह दिख जाता है, इसलिए इसे समस्या के रूप में देखा जा रहा है, जबकि हमारी जिंदगी के हर हिस्से में प्लास्टिक किसी न किसी रूप में दाखिल है. प्लास्टिक कई तरह का होता है. आज हर चीज तो प्लास्टिक में ही पैकेट बंद होके बाजार में आ रहा है. इसलिए इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन भी हो रहा है. अगर प्लास्टिक के उत्पादन पर ही रोक लगा दिया जाये, तो इसके उपयोग को कम किया जा सकता है.

प्लास्टिक कचरे के बढ़ने का मुख्य कारण वो कंपनियां हैं, जो प्लास्टिक का उत्पादन करती हैं और वे विश्व की बड़ी कंपनियों में शुमार हैं. ये कंपनियां चाहती हैं कि प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ता रहे, ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे. सरकारें चाह कर भी इनका कुछ नहीं कर सकतीं, क्योंकि ये कंपनियां विश्वभर में इतनी ताकतवर हैं कि सरकारें इनके सामने घुटने टेक देती हैं. भारत में रिलायंस प्लास्टिक सबसे बड़ी प्लास्टिक कंपनी है, जो गुजरात में स्थित है. अब कोई यह बताये कि क्या रिलायंस प्लास्टिक कंपनी के उत्पादन को भारत सरकार रोक सकती है? बिल्कुल नहीं. इसलिए सरकारी नीतियां तो ऐसी बन रही हैं, जो प्लास्टिक के उत्पादन पर रोक लगाने में न तो सक्षम हैं और न ही राजनीतिक ताकत ही है. अगर प्लास्टिक उपयोग पर नियंत्रण कोई कर सकता है या कर रहा है, तो वह व्यक्तिगत स्तर पर ही हो रहा है कि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार से प्लास्टिक के उपयोग से बचता हो. लेकिन, मसला यह है कि व्यक्तिगत स्तर पर प्लास्टिक उपयोग को कम करने से प्लास्टिक उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ता. और जब एक बार उत्पादन हो जाता है, तो फिर उसको उपयोग में लाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना कर किसी तरह बाजार के हवाले कर दिया जाता है. और बाजार की उपभोक्तावादी नीतियों ने प्लास्टिक को हमारी जिंदगी के लिए बेहद जरूरी बना दिया है, जिसकी जद में आकर हम उसके उपयोग को मजबूर हैं.
जहां कहीं भी प्लास्टिक का कचरा आपको नजर आता है, वह पूरे प्लास्टिक का सौवां हिस्सा मात्र है, यानि एक प्रतिशत है. बाकी 99 प्रतिशत प्लास्टिक तो आपको नजर ही नहीं आता, इसलिए उसके कचरा होने को आप नहीं देख पाते. वह प्लास्टिक एक प्रकार से अदृश्य हो जाता है. मसलन, आपके मोबाइल फोन में भी प्लास्टिक का इस्तेमाल हुआ है, और आप अब तक कई मोबाइल बदल भी चुके होंगे, फिर वह प्लास्टिक कहां गया. कहीं न कहीं तो वह कचरे के रूप में मौजूद होगा ही, लेकिन वह आपको नजर नहीं आता. इसी तरह अनेकों प्लास्टिक से बनी चीजें हम इस्तेमाल करके फेंक देते हैं, जो आपके लिए अदृश्य हो जाती हैं, लेकिन कचरे के रूप में मौजूद होती हैं. आज अगर यूरोप के देशों में स्थानीय लोग पर्यटकों के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं, तो यही कारण है कि हम उपभोक्तावादी लोग कहीं घूमने जाते हैं और वहां अपना प्लास्टिक और गंदगी छोड़ कर चले आते हैं. यह स्थिति पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत नुकसानदायी है. दरअसल, टूरिज्म के बढ़ने के साथ ही आवभगत और सेवा-सत्कार के पूरे इंतजाम में फास्ट फूड की जरूरत होती है. और यह फास्ट फूड बिना प्लास्टिक के पैकेट बंद नहीं हो सकता. आज आलम यह है कि दुनिया के तमाम बड़े शहरों में सड़कों पर लगे कूड़ेदान शाम को खाली करने के वक्त से पहले ही पूरा भर जाते हैं, जिससे बाकी प्लास्टिक के कचरे सड़क पर गिर कर इधर-उधर बिखरने लगते हैं.
प्लास्टिक के कूड़े के लगातार बढ़ते जाने के चलते अमेरिका ने इस मसले का हल निकालने के लिए अस्सी के दशक में एक फंड बनाया. उसके बाद से वहां का प्लास्टिक कचरा जहाजों में भर-भर कर कुछ तो दुनिया के छोटे देशाें में भेजा जाने लगा और कुछ समंदर में फेंका जाने लगा. भारत में तीन ऐसे बंदरगाह हैं, जहां आज भी प्लास्टिक कचरा दूसरे देशों से आता है, जिसका इस्तेमाल यहां की कुछ फैक्ट्रियां उसे रियूज कंसेप्ट के तहत नये तरह के प्रोडक्ट बनाने में करती हैं. यह रिसाइकिलिंग तो प्लास्टिक के उत्पादन को और भी बढ़ावा देता है, क्योंकि तब बड़ी कंपनियां यह कह कर अपना बचाव करती हैं कि इसका रिसाइकिलिंग हो जायेगा. इसी तर्क पर पूरी प्लास्टिक इंडस्ट्री जिंदा है और प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ता जाता है. यह प्रक्रिया पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक है.
हम प्लास्टिक के कम से कम इस्तेमाल के साथ अच्छी तरह जी सकते हैं. लेकिन, बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इश्तेहार दे-देकर हमारी जीवनशैली ऐसी बना दी है कि हम इसके इस्तेमाल के मोहपाश में जकड़ गये हैं. इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर प्लास्टिक बोतल के इस्तेमाल पर रोक लगने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जब तक कि इसके उत्पादन पर ही नियंत्रण न किया जाये. और यह काम सरकार का है, लेकिन सरकारें मौन हैं, क्योंकि कई सरकारें तो ऐसी कंपनियों के ही दम पर चलती हैं. इसलिए यह व्यक्तिगत मसला नहीं है, यह राजनीतिक मसला है. लेकिन, विडंबना यह है कि सरकारें प्लास्टिक का इस्तेमाल रोकने के लिए एक तरफ जनता पर जुर्माना लगाती है, और दूसरी तरफ कंपनियों से टैक्स लेकर उनके उत्पादन को बढ़ावा देती हैं. इसलिए यह एक राजनीतिक समस्या है. जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक प्लास्टिक के उत्पादन पर न तो रोक लगेगा, न ही इस समस्या का कोई हल निकलेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
सुविधा से संकट में तब्दील होतीं प्लास्टिक बोतलें
विश्वभर में प्रति मिनट दस लाख प्लास्टिक बोतलें खरीदी जाती हैं और 2021 तक इस तादाद में 20 फीसदी इजाफे की संभावना भी है. इससे एक ऐसा पर्यावरणीय संकट पैदा होनेवाला है, कुछ जानकारों के अनुसार जो जलवायु परिवर्तन जैसा ही गंभीर होने जा रहा है. ‘गार्डियन’ द्वारा हासिल नये आंकड़ों के मुताबिक, प्लास्टिक बोतलों के इस्तेमाल में काफी तेजी आयी है और इस दशक के अंत तक प्रति वर्ष 50 हजार करोड़ बोतलें बिका करेंगी. यह हिसाब प्रति सेकंड 20 हजार बोतलों की खरीद पर जा टिकता है, जो बोतलबंद पेयजल के लिए पैदा एक बुझायी न जा सकनेवाली प्यास के साथ ही चीन तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र तक पाश्चात्य शहरी संस्कृति के प्रसार का परिणाम प्रतीत होता है.
वर्ष 2016 के दौरान पूरी दुनिया में 480 अरब बोतलें बिकीं, जो इसके दस वर्ष पहले के 300 अरब बोतलों की बिक्री से काफी अधिक थीं. यदि ये सारी बोतलें एक दूसरे के आगे रख दी जायें, तो वे पृथ्वी से सूर्य तक की आधी से भी अधिक दूरी नाप लेंगी. अंतरराष्ट्रीय वैश्विक पैकेजिंग रुझान की रिपोर्ट करनेवाले ‘यूरोमॉनिटर’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, साल 2021 तक बोतलों की यह विक्रय संख्या बढ़ कर प्रति वर्ष 583.3 अरब तक पहुंच चुकी होगी.
पेयजल तथा सॉफ्ट ड्रिंक के लिए इस्तेमाल की जानेवाली अधिकतर प्लास्टिक बोतलें पॉलीएथिलीन टेरेफ्थलेट (पेट) से बनी होती हैं, जिन्हें रीसाइकल किया जा सकता है. पर पूरे विश्व में उनका उपयोग इतना ज्यादा बढ़ रहा है कि सागरों को प्रदूषित करने से रोकने हेतु ये बोतलें इकठ्ठा कर रीसाइकल करने के प्रयास उनके उपयोग की तुलना में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. एक बार पुनः 2016 के आंकड़े लें, तो उस वर्ष खरीदी कुल बोतलों में आधी से भी कम ही इकठ्ठा की जा सकीं और उनमें भी सिर्फ सात प्रतिशत ही रीसाइकल होकर नयी बोतलों में तब्दील हुईं. उत्पादित की जातीं ज्यादातर बोतलें अंततः जमीन के गड्ढे भरने में अथवा महासागरों में चली जाती हैं.

समंदर में लाखों टन कचरा
प्रति वर्ष 50 लाख टन से लेकर 1.30 करोड़ टन प्लास्टिक दुनियाभर के महासागरों में पहुंच जाता है, जिसे समुद्री पक्षियों, मछलियों एवं अन्य जीव-जंतुओं द्वारा निगल या जज्ब कर लिया जाता है. एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन द्वारा किये गये शोध से यह तथ्य सामने आया है कि वर्ष 2050 तक महासागरों में उनकी कुल मछलियों के वजन से ज्यादा वजन उनमें पहुंच चुके प्लास्टिक का होगा. विशेषज्ञ यह चेतावनी दे रहे हैं कि इसका कुछ हिस्सा अभी ही मानवीय खाद्य शृंखला में प्रवेश कर चुका है.
बेल्जियम के घेंट विश्वविद्यालय ने हाल ही यह हिसाब लगाया कि सामुद्रिक खाद्य का सेवन करनेवाले लोग प्रति वर्ष प्लास्टिक के 11 हजार छोटे टुकड़े खा जाते हैं. पिछले अगस्त में प्लाइमाउथ विवि द्वारा किये गये एक शोध ने यह दर्शाया कि ब्रिटेन में पकड़ी गयीं एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक पाया गया. पिछले ही साल, यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकार ने मानव स्वास्थ्य एवं खाद्य सुरक्षा के प्रति बढ़ती चिंता का जिक्र करते हुए ‘व्यावसायिक मछलियों के खाद्य उत्तकों में सूक्ष्म प्लास्टिक प्रदूषण की खासी संभावना के मद्देनजर’ अत्यावश्यक शोध की जरूरत जतायी.
नौकायन करते हुए दुनिया के चक्कर लगानेवाली सुप्रसिद्ध महिला एलेन मैकआर्थर अब एक चक्रीय अर्थव्यवस्था की वकालत का अभियान चलाती हैं, जिसमें प्लास्टिक बोतलों को सिर्फ एक बार उपयोग कर फेंक देने की बजाय उन्हें फिर से इस्तेमाल किया, भरा और रीसाइकल किया जायेगा. वे कहती हैं, ‘प्लास्टिकों के लिए एक वास्तविक चक्रीय अर्थव्यवस्था को अपनाना एक प्रक्रिया पूरी करने, अरबों डॉलरों के साथ ही प्लास्टिक उत्पादन में खपत होनेवाले जीवाश्म ईंधन (तेल, गैस, कोयले आदि) की बचत करने का एक अनोखा अवसर प्रदान करता है.’
ब्रिटेन में प्रति दिन 3.85 करोड़ प्लास्टिक बोतलें इस्तेमाल की जाती हैं, जिनमें से बमुश्किल आधे से कुछ ही अधिक रीसाइकल हो पाती हैं, जबकि 1.60 करोड़ से भी ज्यादा बोतलें गड्ढों में भरी, जलायी अथवा पर्यावरण या महासागरों तक पहुंच जाती हैं. टहोम के मुताबिक, ‘अगले 20 वर्षों में प्लास्टिक का उत्पादन दोगुना और वर्ष 2050 तक चार गुना हो जानेवाला है, इसलिए इस दिशा में कुछ करने का वक्त यही है.’
विश्वभर के महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण के दुष्प्रभावों के विषय में चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. पिछले ही महीने वैज्ञानिकों ने यह पाया कि विश्व के सर्वाधिक दूरस्थ द्वीपों में से एक, दक्षिणी प्रशांत महासागर के एक प्रवाल द्वीप पर भी लगभग 18 टन प्लास्टिक इकठ्ठा था. उत्तर ध्रुवीय सागर तटों पर किये गये एक अन्य अध्ययन में भी यह पाया गया कि वे नाम मात्र की स्थानीय आबादी के बावजूद प्लास्टिक के भारी प्रदूषण से ग्रस्त हैं. पिछले महीने ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी कि वहां के कुछ सबसे सुंदर सागर तट तथा यहां तक कि दूरस्थ तट भी प्लास्टिक बोतलों तथा अन्य पैकेजिंग सामग्रियों से पटे पड़े हैं, जो धूप सेंकते शार्कों से लेकर छोटे पक्षियों तक के लिए खतरे की वजह बन चुकी हैं.
पेयजल आपूर्ति और प्लास्टिक उपभोग
प्लास्टिक बोतल उत्पादन की वैश्विक विशेषज्ञों में एक तथा ‘यूरोमॉनिटर’ में पैकेजिंग की प्रमुख रोजमेरी डाउनी के अनुसार पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जानेवाली अधिकतर प्लास्टिक बोतलें पेयजल के लिए काम आती हैं और इनकी मांग में ज्यादातर हालिया इजाफे के लिए चीन जिम्मेवार है. चीनी जनता द्वारा बोतलबंद पेयजल का उपभोग वैश्विक मांग का लगभग एक चौथाई है. वर्ष 2015 में चीन के लोगों ने पेयजल की 68.40 अरब बोतलें खरीदीं, जो 2016 में 5.40 अरब बढ़ कर 73.80 अरब बोतलों की खपत तक जा पहुंची. भारत तथा इंडोनेशिया में भी इसमें कुछ ऐसी ही बढ़ोतरी देखी जा रही है. प्लास्टिक पहली बार 1940 के दशक में लोकप्रिय हुआ और आज उसके उपयोग में भयावह वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा प्लास्टिक बोतलों का है. उस वक्त से प्रारंभ कर उत्पादित होते प्लास्टिक का अधिकांश आज भी मौजूद है, क्योंकि पेट्रोकेमिकल आधारित इस यौगिक के विघटन के लिए सैकड़ों सालों का समय चाहिए.
पेय पदार्थ उत्पादन के प्रमुख ब्रांड प्लास्टिक बोतलों का सबसे ज्यादा उत्पादन किया करते हैं. कोका-कोला कंपनी द्वारा अपने वैश्विक प्लास्टिक उपयोग आंकड़े के सार्वजनिक खुलासे से इनकार करने के बाद ‘ग्रीनपीस’ द्वारा किये गये उसके एक विश्लेषण के आधार पर यह अनुमान है कि यह कंपनी प्रति वर्ष 100 अरब, यानी प्रति सेकेंड 3,400 फेंक देनेवाली प्लास्टिक बोतलें उत्पादित करती है.

ग्रीनपीस के मुताबिक, विश्व की छह सबसे बड़ी पेय कंपनियां अपने उत्पादन में सिर्फ 6.6 फीसदी रीसाइकल किये पेट का सम्मिलित इस्तेमाल करती हैं. प्लास्टिक की पेय बोतलों का उत्पादन 100 प्रतिशत रीसाइकल किये गये प्लास्टिक से हो सकता है, जिसे ‘आर पेट’ के नाम से जाना जाता है और इस मुहिम में लगे लोग इन बड़ी कंपनियों पर इस हेतु दबाव डाल रहे हैं कि अपनी बोतलों में वे इसके उपयोग में बड़ी बढ़ोतरी करें. मगर ये ब्रांड इसका इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहते, क्योंकि वे अपने प्लास्टिक उत्पाद को चमकदार और पूरी तरह पारदर्शक दिखता बनाना चाहते हैं.

कोका-कोला ने कहा कि वह अपने वैश्विक प्लास्टिक इस्तेमाल के आंकड़े सार्वजनिक किये जाने के ग्रीनपीस के अनुरोध पर अभी भी विचार ही कर रहा है. कंपनी की एक प्रवक्ता ने कहा, ‘जिस किसी देश के बाजार में ‘आर पेट’ का उपयोग बढ़ाने की गुंजाइश है तथा वहां खाद्य स्तरीय प्लास्टिक के विनियमों द्वारा इसकी अनुमति है, हम ऐसा कर रहे हैं. जिन 200 देशों में हमारी गतिविधियां संचालित होती हैं, उनमें ऐसे देशों की संख्या 44 है.’ ग्रीनपीस का कहना है कि छह बड़ी पेय कंपनियों को अपनी प्लास्टिक बोतलों में रीसाइकल घटक की मात्रा में वृद्धि हेतु और अधिक कुछ करने की जरूरत है. ग्रीनपीस की महासागरीय मुहिम की सदस्य लुइसा कैसन कहती हैं, ‘स्कॉटलैंड के दूरस्थ सागर तटों पर प्लास्टिक प्रदूषण की तहकीकात के दौरान हम जहां भी गये, तकरीबन सभी जगहों पर हमने प्लास्टिक बोतलें पड़ी पायीं. इससे यह साफ है कि सॉफ्ट ड्रिंक उद्योगों द्वारा प्लास्टिक के अपने उपयोग से पर्यावरण पर पड़ते प्रतिकूल प्रभावों में कमी लाने की भरपूर जरूरत है.’
(द गार्डियन में प्रकाशित लेख का संपादित अंश. साभार. अनुवाद: विजय नंदन)

सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करनेवाले राज्य
  • 4,69,098 लाख टन प्लास्टिक कचरा प्रतिवर्ष उत्पन्न होता है महाराष्ट्र में.
  • 2,69,295 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष उत्पन्न हाेता है गुजरात में.
  • 1,50,323 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष तमिलनाडु उत्पन्न करता है.
  • 1,30,777 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष उत्तर प्रदेश में उत्पन्न होता है.
  • 1,29,600 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष कर्नाटक में उत्पन्न होता है.
  • 1,28,480 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष आंध्र प्रदेश उत्पन्न करता है.
  • 1,20,961 लाख टन कचरा प्रतिवर्ष तेलंगाना उत्पन्न करता है.
  • 48,073 हजार टन कचरा प्रतिवर्ष पंजाब उत्पन्न करता है.
  • 35,854 हजार टन कचरा प्रतिवर्ष झारखंड उत्पन्न करता है.
  • 30,884 हजार टन कचरा प्रतिवर्ष उत्पादित होता है मध्य प्रदेश में.
  • 9,600 मीट्रिक टन कचरा प्रतिदिन दिल्ली में उत्पन्न होता है.

    पॉलीइथीलीन टेरेफ्थैलेट रिसाइक्लिंग
    काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च- नेशनल केमिकल लेबोरेटरी के मुताबिक, पॉलीइथीलीन टेरेफ्थैलेट यानी पेट की रिसाइक्लिंग दर भारत में सबसे ज्यादा है. पानी की बोतल व फूड कंटेनर बनाने में इसी प्लास्टिक का उपयोग होता है.
    • 900 किलो टन पेट (एक प्रकार का प्लास्टिक) का उत्पादन हर वर्ष होता है भारत में.
    • 65 प्रतिशत पेट पंजीकृत तरीकों से व 15 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में रिसाइकिल किये जाते हैं.
    • 10 प्रतिशत पेट घरों में पुन: उपयोग में आ जाते हैं और बाकी बचे प्लास्टिक कचरे के रूप में फेंक दिये जाते हैं.

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