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इस परिवार में लोगों के नाम अमरीका, एशिया, रशिया हैं

ऑस्ट्रेलिया अभी 22 वर्ष की हैं और डी.फार्मा की पढ़ाई कर रही हैं. 20 वर्ष के यूरोप बी.ई. मेकैनिकल की पढ़ाई कर रहे हैं और छोटी बहन मलेशिया 12वीं की छात्रा हैं. इसके पहले कि उलझन बढ़े मैं साफ़ कर दूं कि ये सभी एक परिवार के सदस्य हैं. इस परिवार ने अपना ली दुनिया! […]

ऑस्ट्रेलिया अभी 22 वर्ष की हैं और डी.फार्मा की पढ़ाई कर रही हैं. 20 वर्ष के यूरोप बी.ई. मेकैनिकल की पढ़ाई कर रहे हैं और छोटी बहन मलेशिया 12वीं की छात्रा हैं. इसके पहले कि उलझन बढ़े मैं साफ़ कर दूं कि ये सभी एक परिवार के सदस्य हैं.

इस परिवार ने अपना ली दुनिया!

जी हां, इस अनोखे परिवार के सदस्य रशिया, अमरीका, एशिया और अफ्रीका ख़ासतौर से हाल ही में रक्षाबंधन मनाने के लिए अपने घर लौटे और ख़ुशी-ख़ुशी भारत से मिले.

पूर्वी विदर्भ में गोंदिया ज़िले के सड़क अर्जुनी तहसील के खोड़शिवनी में रहने वाले मेश्राम परिवार की ख़ासियत यह है कि यहां बच्चों को देशों के नाम दिए जाते हैं. क़रीब 50 साल पहले परिवार की दादी सुभद्राबाई मेश्राम ने यह फैसला लिया था. यही अब प्रथा बन गई है.

‘नाम बदलने से विकास होता, तो बेरोज़गार अपना नाम अंबानी रख लें’

सुभद्रा जी के 48 वर्षीय बेटे भारत ने 12वीं तक शिक्षा पूरी की और अब कारपेंटर का काम करते हैं. वह बताते हैं कि उनकी बड़ी बहनों के नाम रशिया और अमरीका हैं और उनसे छोटी बहनें एशिया और अफ्रीका हैं.

ऐसे नाम होने से मिले ताने

बचपन में स्वयं का नाम भारत होने से उन्हें साथियों के तानों का सामना करना पड़ता था. लिहाज़ा उन्होंने जब नाम बदलने की ज़िद कि तो उन्हें नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से सुभाष यह दूसरा नाम देकर दोबारा दाख़िला दिलाया गया था.

लेकिन अपने बच्चों के नाम रखते समय उन्होंने मां की परम्परा क़ायम की. उनके बेटे यूरोप को भी स्कूली दिनों में अपने नाम के चलते काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा.

‘शुद्धीकरण’ के लिए गांव का नाम बदलने का प्रस्ताव

यूरोप बताते हैं, "जब छोटा था तो बच्चों के तानों से परेशानी होती थी. लेकिन हमारे शिक्षक ऐसे बच्चों को समझाते थे तब अच्छा लगता था. उस समय ये अजीब था लेकिन अब इस अनोखेपन से अच्छा लगता है. ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का अर्थ होता है, सारा विश्व एक परिवार है. मेरी दादी ने यह साकार किया."

‘सारे बच्चे एक जैसे होते हैं!’

लेकिन अहम सवाल तो यह है कि दादी सुभद्राबाई को इस तरह नाम रखने का ख़याल आया तो कैसे?

इस परिवार के क़रीबी श्री भृंगराज परशुरामकर बताते हैं कि उस ज़माने में गांवों में स्वास्थ सुविधाएं नहीं होती थीं. लिहाज़ा सुभद्राबाई दाई का काम करती थीं. वह दलित परिवार से थीं लेकिन हर समाज के परिवार बच्चे के पैदा होने की स्थिति में उन्हें बुलाया जाता था.

यह उन दिनों की बात है जब समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव के ख़िलाफ़ डॉ. भीमराव अम्बेडकर संघर्ष कर रहे थे और उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था.

‘यहाँ कन्हैया लाल था, वहाँ कन्हैया पाकिस्तानी हूँ’

सुभद्राबाई वैसे अनपढ़ थीं लेकिन उन्हें एक सवाल हमेशा परेशान करता था. वह कहती थीं, "मैंने सभी समाज के हज़ारों बच्चे पैदा होते देखे हैं. सब एक जैसे होते हैं. कोई फ़र्क़ नहीं होता. फिर बाद में ये दीवारें क्यों खड़ी हो जाती हैं. इसी सोच से यह ख़याल उपजा."

भारत उर्फ़ सुभाष कहते हैं, "कुल मिलाकर बात यह है कि हमें विश्व के सभी खंडों को एक छत के नीचे लाने में 38 साल लग गए. अब बहन अमरीका ने अपने बेटों के नाम राष्ट्रपाल यानी राष्ट्रपति और राज्यपाल रखे हैं."

आगे भी परंपरा क़ायम रखने की उम्मीद

क्या यह परंपरा आगे भी क़ायम रहेगी? इस सवाल पर यूरोप कहते हैं, "मैंने ठान लिया है कि शादी के बाद इस प्रथा को जारी रखूंगा. आज दादी जीवित होतीं तो उन्हें यक़ीनन अभिमान होता."

परशुरामकर याद दिलाते हैं कि नाम में क्या रखा है, यह सवाल मशहूर अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने पूछा था। लेकिन कई बार यह नाम ही जाने-अनजाने में समाज को बांटते रहे हैं जबकि भारत की प्राचीन सोच तमाम दुनिया को एक परिवार समझने की रही है.

परशुरामकर कहते हैं कि यह मेश्राम परिवार किसी सामान्य परिवार की तरह भले ही छोटे-से मकान में रहता है लेकिन जाति और संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर विश्व के देशों को अपने परिवार में शामिल करने और इस तरह प्राचीन भारतीय सोच पर अमल करने से यह परिवार सचमुच बड़ा बन गया है.

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