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इस अखाड़े में कोई भी योद्धा अजेय नहीं

मिथिलेशबिहार के राजनीतिक अखाड़े में कोई भी योद्धा अजेय नहीं हैं. पुरानी पीढ़ी के बाबू जगजगीवन राम को छोड़ दिया जाये, तो अधिकतर नेताओं को चुनावी शिकस्त खानी पड़ी है. 1960 के दशक में ललित नारायण मिश्र, बीपी मंडल, सीताराम केसरी और बाद के दिनों में पिछड़ों के मसीहा कपरूरी ठाकुर, मुखर समाजवादी नेता जार्ज […]

मिथिलेश
बिहार के राजनीतिक अखाड़े में कोई भी योद्धा अजेय नहीं हैं. पुरानी पीढ़ी के बाबू जगजगीवन राम को छोड़ दिया जाये, तो अधिकतर नेताओं को चुनावी शिकस्त खानी पड़ी है. 1960 के दशक में ललित नारायण मिश्र, बीपी मंडल, सीताराम केसरी और बाद के दिनों में पिछड़ों के मसीहा कपरूरी ठाकुर, मुखर समाजवादी नेता जार्ज फर्नाडीस, शरद यादव, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी चुनावी हार का सामना कर चुके हैं. चुनाव हारने वाले दिग्गजों में भूपेंद्र प्रसाद मंडल, केदार पांडेय, अब्दुल गफुर, महामाया प्रसाद सिन्हा, सीताराम केसरी और रामलखन सिंह यादव के नाम भी शामिल हैं.

आजादी के बाद के दिनों में बिहार ही नहीं, देश की राजनीति में ललित नारायण मिश्र का कद बढ़ता जा रहा था. कांग्रेस के दमखम वाले नेताओं में उनकी गिनती होती थी. उन्हीं दिनों 1962 का आम चुनाव हुआ. इस चुनाव में लतित नारायण मिश्र भूपेंद्र नारायण मंडल से 15 हजार मतों से चुनाव हार गये थे.

1971 के आम चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सीताराम केसरी कटिहार लोकसभा सीट पर चुनाव हार गये. इसी चुनाव में समाजवादी नेता मधु लिमिये मुंगेर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर चुनाव मैदान में थे. यहां से कांग्रेस ने डीपी यादव को उम्मीदवार बनाया था. चुनाव परिणाम मधु लिमये के खिलाफ गया और वह पराजित हो गये.

1971 के ही चुनाव में भारतीय जनसंघ के दिग्गज उम्मीदवार कैलाशपति मिश्र को भी पटखनी खानी पड़ी थी. उन दिनों भाजपा जनसंघ के ही नाम से जानी जाती थी. कैलाशपति पटना लोकसभा सीट से प्रत्याशी हुए. उन्हें भाकपा के रामावतार शास्त्री ने पराजित किया. पूर्व रेल मंत्री रामसुभग सिंह भी 1971 के चुनाव में हार गये. उन्हें बक्सर लोकसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा था. इसी चुनाव में जमशेदपुर में वामपंथी दिग्गज नेता केदार दास भी पराजित हुए.

1977 के चुनाव में जब देश में चारो ओर जनता पार्टी की लहर थी. इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री केदार पांडेय बेतिया से, अब्दुल गफुर सीवान से, शिवहर से हरिकिशोर सिंह, मधुबनी से भाकपा के भोगेंद्र झा, झंझारपुर से डा जगन्नाथ मिश्र, दरभंगा से राधानंदन झा, और भागलपुर से भागवत झा आजाद को भी पराजित होना पड़ा था. 1980 के दशक में एलपी शाही वैशाली से, सिद्धेश्वर

प्रसाद नालंदा से और पूर्व मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा पटना लोकसभा सीट से चुनाव हार गये.

राजनीति में पिछड़ी जातियां जिस समय चार सवर्ण जातियों को अपदस्थ कर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही थी, उसी समय आया 1984 का आम चुनाव. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के तत्काल बाद होने वाले इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री कपरूरी ठाकुर को हार का सामना करना पड़ा था. जिस समस्तीपुर लोकसभा सीट पर उन्होंने 1977 में भारी मतों से चुनाव जीता था, उसी सीट पर महज सात साल बाद उन्हें पराजय स्वीकारनी पड़ी.

1985 में बांका लोकसभा सीट पर उप चुनाव हुआ था. इस उप चुनाव में जार्ज फर्नाडीस को हार खानी पड़ी थी. उस समय चंद्रशेखर सिंह बिहार के मुख्यमंत्री हुए थे. वह सांसद थे इसलिए जब मुख्यमंत्री बने तो यहां उप चुनाव कराया गया. मनोरमा सिंह कांग्रेस की प्रत्याशी बनी. जार्ज विपक्षी उम्मीदवार थे. चुनाव परिणाम उनके खिलाफ गया.

इसी प्रकार 1977 और 1989 में रिकार्ड मतों से चुनाव जीतने वाले रामविलास पासवान को 1984 में हाजीपुर लोकसभा सीट से चुनाव हार जाना पड़ा. कांग्रेस के रामरतन राम ने उन्हें पराजित किया था. बाद में उन्हें 2009 के चुनाव में भी जदयू के रामसुंदर दास से पराजय स्वीकारना पड़ा.

मंडल कमीशन के लागू होने के बाद पिछड़ों में नयी चेतना जगाने वाले राजद प्रमुख लालू प्रसाद को भी चुनावी राजनीति में कई बार हार का सामना करना पड़ा. पहली बार 1980 और 1984 में छपरा लोकसभा सीट पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा. बाद में मधेपुरा और 2009 में पाटलिपुत्र लोकसभा चुनाव में भी उन्हें पराजय मिली थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रेल मंत्री रहते हुए 2004 का लोकसभा चुनाव हार गये थे. उन्हें उनके मित्र विजय कृष्ण से परास्त होना पड़ा था. शेरे बिहार के नाम से चर्चित राजनेता रामलखन सिंह यादव 1989 में बाढ संसदीय सीट से जनता दल के उम्मीदवार नीतीश कुमार से चुनाव हार गये थे. आरा संसदीय सीट पर धनबाद के बाहुबली सूर्यदेव सिंह पराजित हुए. हालांकि, मतगणना के पहले ही उनकी मौत हो गयी थी.

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