आज ऐसे कई गांव हैं, जहां की महिलाओं ने अपनी जिम्मेवारियों को सिर्फ परिवारवालों का खाना बनाने या घर की देखभाल करने तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि वे अपने परिवार को बेहतर बनाने के लिए कई सकारात्मक परिवर्तनों की पहल कर रही हैं. अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेज रही हैं और बच्चों के स्कूल की फीस के लिए बचत भी कर रही हैं. यह कहना है सलोनी मल्होत्र का, जिन्होंने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवालों को रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए ‘देसीक्रू’ नामक बीपीओ कंपनी की शुरुआत की.
बचपन में मैं बहुत ही शर्मीली और कम बात करनेवाली लड़की हुआ करती थी. मैं घर से बाहर बहुत कम ही निकला करती थी. मेरा बचपन बिल्कुल वैसा ही रहा, जैसा एक मिडिल क्लास में पली-बढ़ी बच्ची का होता है. मेरे माता-पिता डॉक्टर हैं और उन्होंने हमेशा ही मुङो कुछ बनने और अपने सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित किया है. उन्हीं के प्रोत्साहन से मैंने देसीक्रू की नींव रखी. स्नातक की पढ़ाई करने के बाद मैं स्टार्टअप कंपनी वेबचटनी के साथ जुड़ कर बिजनेस डेवलपिंग के क्षेत्र में काम करने लगी थी. वेबचटनी में छह महीने तक काम करने के बाद मेरे अभिभावकों ने मुङो समझाना शुरू कर दिया कि मुङो अपनी जॉब छोड़ कर अपना खुद का काम शुरू करने के बारे में सोचना चाहिए. वैसे, जब मैं ग्रेजुएशन में थी, तभी मैंने यह तय कर लिया था कि मैं ग्रामीण क्षेत्रों में नयी तकनीक और व्यवसाय लाने का प्रयत्न करूंगी. एक ग्रामीण बीपीओ कंपनी की शुरुआत करने का आइडिया मुङो मेरे एक प्रोफेसर अशोक झुंझुनवाला से मिला, जो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मद्रास से थे. उन्होंने ही मुङो देसीक्रू जैसी कंपनी शुरू करने के लिए प्रेरित किया. अपने इस आइडिया को हकीकत में तब्दील करने के लिए हमने दो साल इस प्रोजेक्ट पर काम किया और वर्ष 2007 में तमिलनाडु के एक छोटे से गांव में देसीक्रू की शुरुकात की.
अंजादा था इस जिम्मेवारी का
एक नये व्यवसाय की शुरुआत करने में अकसर लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें देसीक्रू की शुरुआत करने में किसी भी बड़ी रुकावट या समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. हमारे सामने जो भी अड़चने आती थीं, हमें अपने प्रयासों से उसे दूर करने का रास्ता निकाल ही लेते थे. हमारा मकसद हर हाल में देसीक्रू को लॉन्च करने का था. मैं यह भी कहना चाहूंगी कि इस कंपनी की शुरुआत करने के पीछे किसी भी अकेले व्यक्ति की मेहनत और लगन नहीं थी, बल्कि इससे जुड़े हर व्यक्ति
ने इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में काफी मेहनत की है. हमारा पूरा फोकस सिर्फ इस बात पर था कि हमारे कस्टमर्स को ग्रामीण बीपीओ से बिलकुल भी निराश न होना पड़े. हम सभी जानते थे कि हम एक बड़ी जिम्मेवारी लेने जा रहे हैं.
मेरी पहचान है देसीक्रू
देसीक्रू मेरे लिए एक यूनिवर्सिटी की तरह है. शुरू से लेकर अब तक इसने हर दिन मुङो कुछ नया सिखाया है और यह सिलसिला अभी भी जारी है. मैं इस बात को अच्छी तरह से समझती हूं कि यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है. देसीक्रू को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए इसकी कार्यप्रणाली के बीच आनेवाली समस्याओं को दूर करने के लिए हमें हर दिन नये रास्ते ढूंढ़ने की कोशिश करते रहना पड़ता है. आज यह कंपनी मेरी पहचान बन चुकी है. कभी-कभी तो मुङो लगता है कि मैं अपने शुभ नाम सलोनी मल्होत्र को बदल कर सलोनी देसीक्रू लिखना शुरू कर दूं. मुङो खुद भी यह सोच कर काफी आश्चर्य होता है कि जिस विचार को मैंने हकीकत में बदलने की पहल की थी, आज वह सिर्फ मेरी पहचान ही नहीं, बल्कि कई लोगों की कमाई का जरिया बन चुका है.
धीरे-धीरे बनी टीम
देसीक्रू की शुरुआत करते वक्त मैंने अपने कई दोस्तों से कहा कि वे इसे स्थापित करने में मेरा साथ दें, लेकिन कोई भी आगे नहीं आया. दरअसल, कोई भी इस सोशल एंटरप्राइज के लिए अपनी अच्छी तनख्वाहवाली नौकरी से समझौता नहीं करना चाहता था. मैंने अकेले ही इस दिशा में कदम बढ़ाया, लेकिन 2008 में मुङो एक इनवेस्टर राजीव कुच्चल का साथ मिल गया. राजीव कुच्चल इनफोसिस से थे और वे एक फाउंडिंग पार्टनर के तौर पर देसीक्रू से जुड़े थे. राजीव का देसीक्रू से जुड़ना मेरे लिये काफी उत्साहपूर्ण था, क्योंकि आपको किसी भी काम को बेहतर अंजाम देने के लिए एक अच्छी टीम की जरूरत पड़ती है. वहीं दूसरी ओर यह परिवर्तन अपने साथ कुछ अन्य जिम्मेवारियां लेकर आया था. मुङो अपने हर टीम मेंबर से अच्छे संबंध बनाये रखने के बारे में अपने को-फाउंडर पर भरोसा करने और मिलजुल का फैसले लेने के बारे में सोचना पड़ता था.
बेहतरीन है महिलाओं का प्रदर्शन
आज मेरी कंपनी में पुरुषों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की कई युवतियां और महिलाएं भी काम कर रही हैं. अकसर कुछ लोग मुझसे यह सवाल करते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं शहरी महिलाओं की अपेक्षा अपने काम को कितने अच्छे और प्रोफेशनल तरीके से पूरा करती हैं. सच कहूं तो मुङो यह प्रश्न बिल्कुल भी पसंद नहीं. शहर और गांव, दो अलग-अलग परिसर में रहनेवाली महिलाओं की तो बात ही छोड़िए, किसी भी दो व्यक्ति की तुलना करना मुङो ठीक नहीं लगता. मेरी कंपनी में ऐसी कई महिलाएं हैं, जो शिक्षित हैं और अपने काम को बखूबी पूरा कर रही हैं. इतना ही नहीं, देसीक्रू में काम करनेवाली कई महिलाएं काम के साथ-साथ डिस्टेंस एजुकेशन के जरिये आगे की पढ़ाई कर रही हैं. ये महिलाएं अपने जीवन और लक्ष्यों के प्रति काफी सकारात्मक हैं और शहरी महिलाओं की अपेक्षा ये अपने काम और लक्ष्य को लेकर काफी गंभीर हैं.
देसीक्रू ने महिलाओं को बदला
देसीक्रू से जुड़े इंप्लॉइज के जीवन को बेहतर और उन्हें कुछ अलग अनुभवों से जोड़ने के लिए हम छोटे-छोटे कार्यक्रमों का आयोजन भी करते हैं. एक बार हमने देसीक्रू के माध्यम से इसके कर्मचारियों के जीवन में आनेवाले बदलावों को समझने और उस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए परिवार दिवस सेलिब्रेट किया और इस दौरान एक छोटे से कार्यक्रम का आयोजन किया. कार्यक्रम के दौरान सात साल का एक बच्च मेरे पास आया और उसने मुझसे कहा कि आपकी कंपनी में काम करके मेरी मां बहुत ही बदल गयी है. अब उनमें एक अलग ही आत्मविश्वास नजर आता है और मुङो अपनी मां पर कहीं ज्यादा गर्व महसूस होता है. एक बच्चे का यह कहना मेरे लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है. मैं खुश हूं कि मेरी कंपनी ग्रांववालों की जीवन में परिवर्तन ला रही है.