।। डॉ राम मनोहर लोहिया।।
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखायी नहीं पड़ता. ऐसा क्यों नहीं हो सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टिभेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालनी जरूरी है. चार बड़े और ठोस सवालों, वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है.
4000 साल पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं. तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनायेगा ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके. करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊंची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था. करीब 15 साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि वे छुआछुत का नाश करने में लगे थे.
इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए. एक पूरे उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की गयी है. हिंदुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए-एक आलोचना का काल और दूसरा निंदा का. इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए. लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते. कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है. कट्टरपंथी और उदारवादी, वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है. इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे गौर कर सकें. लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है. अगर जन्मना वर्णो की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है. अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं. एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्क बुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है. व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गये हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं.
आधुनिक साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है. हालांकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे भी हजम कर लिया. उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहां भी गंदगी होती है. अगर स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है. स्त्री को भी तलाक और संपत्ति का अधिकार है. हिंदू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जब कि कट्टरता के युग में उसे केवल एक प्रकार की संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है. इस समय हिंदू स्त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी. दुनिया के और भी हिस्से से यहां स्त्री के लिए सम्मानपूर्ण पद पाना आसान है लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है. मुङो ऐसे पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्त्री को संपित्त का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क पर की गयी थी कि वह दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने लग कर अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिये कहीं ज्यादा सच न हो. जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े न हो, यह अलग सवाल है, जो स्त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर लागू होता है. जब तक कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्त्री और पुरुष के बीच विवाह और संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्म नहीं होगी. हिंदुओं के अंदर स्त्री को देवी के रूप में देखने की इच्छा, जो अपने उच्च स्थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी बेमतलब के संदेहास्पद ख्याल पैदा कर देती है. उदारता और कट्टरता एक दूसरे से जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्त्री को अपने समान ही इन्सान नहीं मानने लगता.
हिंदू धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार है. लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन और जन्म या शक्ति में बड़े व्यक्ति का स्थान ऊंचा है और जो कुछ भी है वही ठीक है. अन्य सवालों की तरह संपत्ति व शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जा पाया.
आमतौर पर यह माना जाता है कि सहिष्णुता हिंदुओं का विशेष गुण है. यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्तपात उसे पसंद नहीं रहा. हिंदू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन करके एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली. हिंदू धर्म में लगभग हमेशा ही सहिष्णुता का अंश बल प्रयोग से ज्यादा रहता था. लेकिन यूरोप की राष्ट्रीयता ने इससे मिलते-जुलते जिस सिद्धांत को जन्म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए. वाल्टेयर जानता था कि उसका विरोधी गलती पर है, फिर भी वह सहिष्णुता के लिए, विरोध में खुल कर बोलने के अधिकार के लिए लड़ने को तैयार था. इसके विपरीत हिंदू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं. वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों में, वर्गो में अलग-अलग सिद्धांत और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं. कट्टरपंथियों ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है. उनके उद्देश्य कभी बुरे नहीं रहे. उनकी कोशिशों के पीछे शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए. मैं इतिहास का ऐसा कोई काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो. जब भी भारत में एकता या खुशहाली आयी, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, संपत्ति आदि सहिष्णुता के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था.
(जुलाई, 1950 में प्रकाशित काफी लंबे लेख ‘हिंदू बनाम हिंदू’ का छोटा संपादित अंश.)