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यात्रा वृत्तांत : पहाड़ों के बीच गुमशुदा है गुरेज वैली

घटना 16वीं शताब्दी की है और वह कोकिल कंठी स्त्री कश्मीर की कवयित्री हब्बा खातून थीं, जिन्हें कश्मीर की 'नाइटिंगेल' और 'कश्मीर का चांद' कहा जाता है. जिस पहाड़ी पर ये घटना हुई, उसे आज हब्बा खातून पीक कहा जाता है.

एक स्त्री अपने पति की याद में सुध-बुध खोई, ऊंचे पहाड़ों पर भटक रही थी. उसके पति ने उसे जंगल में मरने के लिए छोड़ दिया था. वह जंगल-जंगल भटकती, वह मधुर स्वर में सूफी गाने गाती, गानों के जरिये बंदगी करती, जो फल-कंद-मूल मिलता, खा कर पेट भरती. उसे वापस लौटने का रास्ता मालूम न था. झरने का पानी पीकर प्यास बुझाती. एक दिन वह रास्ता भूल गयी. उसे प्यास लगी. प्यास से वो हलकान थी. पहाड़ी से नीचे देखा, तो एक नदी दिखाई दे रही थी. वह पहाड़ी से नीचे उतरी, अपना घड़ा साथ लिए. उसने अपने घड़े में नदी से पानी भरा. सिर पर घड़ा रखकर पहाड़ पर चढ़ने लगी थी कि पैर में ठोकर लगी, ध्यान कहीं और जो था. संभल न सकी. ठोकर लगी, घड़ा सिर से गिर कर टूट गया. सारा पानी बिखर गया. वह प्यासी, छटपटाती वहीं खड़ी रही. बेबस आंखों से आंसू छलके. अचानक चमत्कार हुआ. उसके पैरों के पास जमीन से पानी की तेज धार फूटी, उसकी प्यास बुझा दी.

यह घटना 16वीं शताब्दी की है और वह कोकिल कंठी स्त्री कश्मीर की कवयित्री हब्बा खातून थीं, जिन्हें कश्मीर की ‘नाइटिंगेल’ और ‘कश्मीर का चांद’ कहा जाता है. जिस पहाड़ी पर ये घटना हुई, उसे आज हब्बा खातून पीक कहा जाता है. उसी पहाड़ी के नीचे, किशन गंगा नदी से ऊपर तेज धार वाला पानी का चश्मा जमीन से आज भी निकलता है. उसकी दूध-सी सफेद धार इतनी तेज है कि इंसान वहां पैर नहीं डाल सकता. उसका पानी पहाड़ी से होता हुआ नीचे नदी में जाकर मिल जाता है. हब्बा खातून पीक यानी वो पहाड़ी जिस पर वह बावरी भटकती रहती थी, उसका आकार पिरामिड की तरह है. ये कोई साधारण स्त्री नहीं थी. बाद में ये कश्मीर की रानी बनी.

मैं बावरी-सी उस चश्मे का पानी अपने हाथों में लेकर पुकार उठी थी- ‘हब्बा…हब्बा…’ चश्मे तक पहुंचने का रास्ता थोड़ा दुर्गम तो है, पर पहुंच कर जो नजारा दिखता है, वही असली जन्नत है.

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ये जगह है कहां. कश्मीर के नक्शे में ढूंढ़िये. मैं वहां कैसे पहुंची, क्यों पहुंची… उसका बड़ा कारण है. शायद मैं भी किसी साधारण पर्यटक की तरह श्रीनगर के आसपास घूम कर ही लौट आती, जैसे कि अब तक लौटती रही हूं. लगभग हर साल एक बार किसी न किसी बहाने कश्मीर जाना होता ही है. हमने जन्न्त के भीतर का असली जन्नत देखा कहां था. उसे देखने के लिए यात्री बनना पड़ता है और हिम्मत जुटानी पड़ती है.

ये जगह है गुरेज घाटी में. जहां चप्पे–चप्पे पर हब्बा खातून की कथाएं बिखरी पड़ी हैं. किसी बुजुर्ग से पूछिए, वो सुनायेंगे अपनी प्रिय कवयित्री की दुख भरी दास्तान.

पहले गुरेज वैली पहुंचने का कारण बताते हैं. कैसे ढूंढा हमने. सच कहे तो हमने नाम ही नहीं सुना होता, अगर युवा लेखिका रेणु मिश्रा ने मुझे नहीं बताया होता. कश्मीर टूरिज्म ने इस घाटी को बहुत लोकप्रिय जगहों में शामिल नहीं किया है. मैं श्रीनगर की हसीन वादियां छोड़ कर सुदूर गुरेज वैली की तरफ क्यों गयी, जो अभी भी बहुत लोकप्रिय जगह नहीं, जहां अब भी बहुत पर्यटक नहीं जाते हैं. जहां जाकर मुझे समझ में आया कि ये जगह पर्यटकों के लिए तैयार तो है, बस उनके लायक सुविधाएं कम हैं. श्रीनगर जैसी सुविधाएं होंगी भी नहीं कभी. इसकी वजह इसकी भौगोलिक परिस्थितियां हैं. चारों तरफ ऊंचे पहाड़ों से घिरी गुरेज घाटी कड़ी सुरक्षा के तहत सांस लेती है. मेरे भीतर ऐसी जगहों पर जाने का आकर्षण सदा रहा है. अनदेखी जगहों पर, जहां सुविधाएं न्यूनतम हों, मगर प्राकृतिक सौंदर्य विलक्षण हो. जब मुझे पता चला कि कोई गुरेज वैली है, जो कश्मीर का मुकुट है. एक बार जाना चाहिए. सोचा न होगा, इतनी सुंदर घाटी है. दो-तीन साल तक ये तमन्ना मन में पलती रही. मैं नवंबर में श्रीनगर एक कला शिविर में गई तो गुरेज जाने के लिए बेचैन हो उठी. श्रीनगर के मेरे प्रिय ड्राइवर राजू भाई ने बताया कि वहां जाने का मौसम नहीं है. बर्फ की वजह से रास्ता बंद हो जाता है. हम फंस जायेंगे. वहां जाना हो, तो मई- जून में आओ. उसके बाद बारिश शुरु हो जाती है. गुरेज तक जाने का रास्ता राजदान पास जैसे ग्लेशियर से होकर जाता है. जिन दिनों गुरेज मुझे खींच रहा था अपनी ओर, तब मैं सिर्फ वहां घूमने के लिए जाना चाहती थी, उसे आंख भर देखने के लिए. इस बीच एक संयोग घटित हुआ. मुझे हब्बा खातून पर शोध के लिए प्रस्ताव आया, तो अचानक दिमाग में रेणु की बात कौंधी कि वहां हब्बा खातून पीक है और उसके नाम का चश्मा (वाटर स्प्रिंग) भी. गुरेज जाने की ठोस वजह अब हब्बा बन गयी थीं, उनकी कहानियों की खोज. उन जगहों की खोज जहां-जहां वे भटकी होंगी. शताब्दियों तक लोक मानस उन किस्सों को बचा कर रखता आया है. इतिहास कई बार उनसे भी गवाही लेता है.

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जून की छुट्टियों में जब आधा भारत श्रीनगर और गुलमर्ग में टहल रहा था, मैं एक स्थानीय मित्र नासिर के साथ गुरेज वैली रवाना हो गयी थी. मैं साफ-साफ कहना चाहती हूं कि कश्मीर का मतलब श्रीनगर, डल लेक, शिकारा और गुलमर्ग नहीं है. पर्यटक एयरपोर्ट पर उतरते हैं, डल लेक के सीने पर सवार हो जाते हैं. सारी व्यवस्था चरमरा जाती है. सब आंखिन देखी है. लोगों की भीड़ से कराहते हुए घाटी को देखा है. जब ग्रीष्म ऋतु में देश का बाकी हिस्सा गर्मी से उबलने लगता है, लोग पहाड़ों की तरफ भागते हैं. देश में जितने भी हिल स्टेशन हैं, उनमें कश्मीर घाटी नंबर वन है. खासकर श्रीनगर, तो पर्यटकों की भीड़ से कराहने लगता है. पर्यटकों की बेशुमार भीड़ से तबाह श्रीनगर की सारी सुविधाएं ध्वस्त हो जाती हैं और स्थानीय लोग बेरुखी ओढ़ लेते हैं. ऐसे में अनदेखे इलाके की यात्रा करिये.

गुरेज वैली, श्रीनगर से मात्र 123 किलोमीटर दूर है. पहाड़ी रास्ते लंबे और दुर्गम तो होते ही हैं. नयी जगह देखने-खोजने का खुमार हो तो रास्ते आसान हो जाते हैं. वो भी रास्ता जब सुंदर गांवों, शहरों से होकर गुजरे, रास्ते में बर्फ का ग्लेशियर मिले. आप टॉप पर हों और बाकी सब छोटे नजर आयें, अलग ही अहसास होता है.

श्रीनगर शहर से बाहर निकलते ही दूर दिखने वाले पहाड़ करीब आने लगते हैं. रास्ते के दोनों तरफ हरे भरे खेतों के बीच चलते हुए सफर आसान लगने लगता है. रास्ते में कश्मीर के कस्बे, वहां फल और बेकरी की छोटी-छोटी दुकानें, फिरन पहने उंचे खूबसूरत लोग, यूनिफार्म पहन कर स्कूल जाते बच्चे और सड़क किनारे बहने वाली नदी को देखते-देखते, नासिर की बातें सुनते-सुनते सफर कट जाता है. मेरे स्थानीय मित्र नासिर को सोपोर शहर में कुछ काम था. हमें वहां थोड़ी देर रुकना था. सोपोर पहुंचते ही अकस्मात मुझे देश के प्रख्यात संतूर वादक भजन सोपोरी की याद आई.

मैंने नासिर से पूछा, उन्होंने सगर्व बताया- ‘हां, उनका घर यही है. इसी शहर के हैं वो.’ मुझे अलग अहसास हुआ कि मैं उस शहर में कुछ देर रुकी हूं, जहां की हवा में संतूर बजता है.

घुमक्कड़ी सिर्फ जगहों को देखना भर नहीं, वहां की संस्कृति को महसूस करना भी होती है. नासिर ड्राइव कर रहे थे और मैं कश्मीर के बारे में बातें करती जा रही थी. नासिर के पास अनेक स्मृतियां हैं, बुरे दिनों की. किन हालातों से उनका परिवार और गांव गुजरा था. वे टंगमर्ग के रहने वाले हैं. गुलमर्ग से आगे एक सुंदर- सी घाटी है टंगमर्ग, विशालकाय झरने और नदी के किनारे बसा एक शांत गांव. जिन दिनों कश्मीर के हालात बहुत खराब थे, उन दिनों इनके परिवार ने दोहरी मार खाई. शायद ज्यादातर कश्मीरी परिवारों की यही हालत रही होगी, जब आतंकवादी और फौज दोनों उन्हें संदेह से देखते और तंग करते थे. इन्हीं रोमांचक किस्सों से गुजरते हुए हम सोपोर से निकले और बांदीपोरा पहुंचे. यहां से चढ़ाई शुरू होती है. इसके पहले मैं कई गांवों से गुजरती हुई आई थी. मुझे रोमांच इसलिए भी हुआ कि मैं पहली बार भीतर से कश्मीर को देख रही थी. वहां का जन-जीवन, घर द्वार, स्थानीय लोग. उनके तौर-तरीके, छोटी दुकानें, कच्चे-पक्के घर, हरे-भरे खेत और सड़क किनारे अखरोट के पेड़ देखे. मेरा अनुभव रहा है कि किसी भी जगह को जानना हो करीब से, तो स्थानीय मित्र के साथ घूमिए. ये अनुभव कोई किताब न देगी, न कोई टूरिस्ट गाइड, जो रट्टू तोते की तरह बोलता रहता है, चाहे आपके पल्ले पड़े या न पड़े. इस मामले में मैंने ये सौभाग्य पाया है कि अनजान प्रदेश में भी स्थानीय मित्र किसी तरह ढूंढ़ निकालती हूं. नासिर मेरी सहेली के मित्र हैं. मेरी सहेली के आग्रह को समझ कर नासिर ने मुझे कश्मीर के भीतर घुमाया, चाहे जगह हो या कश्मीर की आत्मा. उसके सुख-दुख नासिर की स्पष्ट राय थी. युवा नासिर ने मेरे सामने कश्मीर का मन खोल कर रखा, जिसमें देश से अपेक्षाओं की फेहरिस्त थी, उपेक्षाओं का दंश था. सारे रास्ते नासिर ने एक एक जर्रे के बारे में बताते चले, चाहे कोई पेड़ हो या कोई नदी या कोई झील.

बांदीपोरा के बाद ही दिखने लगती है ‘वूलर लेक’, जिसे एशिया में ताजे पानी की सबसे बड़ी झील कहा जाता है. नासिर का दुख ये भी है कि सरकार ने इतनी खूबसूरत झील की बेहतरी के लिये कुछ नहीं किया. वरना यहां खूब पर्यटक आते. वैसे पर्यटकों का इस तरफ आना आसान भी नहीं है. थोड़ी-थोड़ी दूर पर बने सेना के चेक-पोस्ट से आने-जाने वालों पर नजर रखी जाती है, क्योंकि ये रास्ता ही ‘लाइन आफ कंट्रोल’ को जाता है. कहीं-कहीं तो सैलानियों को रोक कर नाम पते भी नोट कराये जाते हैं. स्थानीय होने के कारण नासिर को अपना आईडी कार्ड हमेशा साथ लेकर चलना पड़ता है और हर चेक पोस्ट पर खास जांच होती है.

ये सब देख कर मुझे झल्लाहट और कोफ्त होती थी. नासिर हंसते- ‘अरे मैम, हमें तो आदत पड़ चुकी है. ये रोज की बात है. श्रीनगर शहर में भी ऐसा होता है. हम इसी वजह से घंटों ट्रैफिक झेलते हैं.’

गुरेज पहुंचने के रास्ते बहुत घुमावदार, लेकिन अत्यंत खूबसूरत हैं. जहां, इनमें एक तरफ ढलान पर लगे चीड़ों के लंबे लंबे पेड़ हैं, तो दूसरी तरफ ऊंचे ऊंचे बर्फीले पहाड़, जिनमें से पानी रिसता रहता है. हमने जगह-जगह गाड़ी रोकी, झरने का पानी पीया, बोतलों में भर लिए. इतना मीठा पानी कि बोतल बंद पानी पीने का मन न करे. रास्ते में पानी बहुत है, खाने-पीने का सामान अपना साथ लेकर चलें. रास्ते में खाने-पीने के ठीहे एकाध मिलेंगे. रास्ता वीरान भी है. कभी पहाड़ों के टॉप पर होते हैं, तो कभी फिर घाटी में नीचे चले जाते हैं. गुरजे से ठीक पहले आता है राजदान टॉप. इस रास्ते का पहाड़ी का पठार, राजदान टॉप, जो समुद्र सतह से करीब 12 हजार फीट ऊपर होता है. सर्पीले पहाड़ी रास्तों की थकान इस टॉप पर बने बर्फीले, हरियाले मैदान और शोर मचाती ठंडी हवा, चेहरे को छूते बादलों और देश का बड़ा-सा तिरंगा झंडा को लहराते देख कर अहसास होता है कि आप ‘टॉप ऑफ वर्ल्ड’ पर हैं. इसके अहसास से निकल ही नहीं पाते कि राजदान टॉप से उतरते उतरते गुरेज वैली में प्रवेश होने लगता है. थोडी देर बाद ही किशनगंगा नदी रास्ते में आपके साथ साथ चलने लगती है. एक तरफ ऊंचा पहाड़, तो दूसरी तरफ नीले साफ पानी वाली किशनगंगा. ये किशनगंगा गुरेज तक ऊंगली पकड़ कर लिए जाती है. मैं हर दृश्य को मोबाइल कैमरे में कैद कर लेना चाहती थी. नीले रंग वाली नदी किशनगंगा जब हरे पेड़ों से लदे पहाड़ों, घास के मैदानों के बीच चलती है और बीच बीच में सफेद नीला आसमान चमकता दिखाई देता है. नदी किनारे घास के मैदानों में दूर से धुआं उठता दिखाई दिया. करीब जाकर देखा तो बंजारों के टेंट लगे हुए थे. उनका अस्थायी डेरा था. जहां पानी है, वहां उनका डेरा है. बड़े-से मैदान में उनकी भेड़ें चर रही थीं. हमें रास्ते में भी बंजारे मिले थे, अनगिनत भेड़ों को हांकते हुए अपने बसेरे की तरफ लौटते होंगे.

इन दृश्यों और अहसासों से गुजरते हुए हम गुरेज वैली पहुंचे थे. मेरी सबसे पहली उत्सुकता गुरेज को जानने समझने की थी. हमें दो दिन रुकना था, शोध कार्य करना था. पहली ही शाम संयोग से हमें मिले दानिश गुरेजी. वे टूरिज्म का कारोबार चलाते हैं. नदी किनारे उनके पास सुविधाओं से लैस टेंट लगे हैं. उनसे बातचीत ने हमें किताबों से अधिक जानकारी दी.

सबसे मजेदार अनुभव ये रहा कि दानिश ने हंसते हुए पूछा- ‘आप कश्मीर से आये हैं ?’ मैंने चकित होकर पूछा- ‘मतलब ?’

‘मतलब ये कि हम गिलगिट इलाके के लोग हैं. कश्मीर अलग रहा है हमसे. अब हमें उसका हिस्सा बना दिया गया है. हमारी भाषा, संस्कृति अलग है. हम कबीलाई लोग हैं. यहां पचास के दशक तक कबीला शासन करता था. हम पर कब्जे की लड़ाई भारत-पाक करता रहा. जीत भारत की हुई, हम अब भारत का हिस्सा हैं.’

दानिश अपनी जगह के इतिहास के जानकार लगे. वे बताते रहे-‘ मैं गुरेज का मूल निवासी हूं. शीन कम्युनिटी से आता हूं. दुनिया भर में लगभग चालीस लाख आबादी शीन भाषा बोलती है. हब्बा खातून के जो पति थे, कश्मीर के अंतिम शासक युसुफ शाह चक, वे दर्दजा कम्युनिटी के थे. यहीं के रहने वाले थे. आप देखेंगी, एक नदी है, जिसका नाम चकनाला है. उन्हीं के नाम पर है. यहां चप्पे -चप्पे में हब्बा-खातून और युसूफ शाह के किस्से मिलेंगे.’

दानिश मेरे लिए पूरी किताब की तरह थे. वे लोग चलती-फिरती किताब होते हैं, जिन्हें अपनी संस्कृति, नगर के बारे में इतना सब मालूम होता है.

दानिश एक कटु मजाक करते हैं- ‘जिस तरह एक समय में कश्मीरी लोग पूछते थे, दिल्ली वालों से, भारत से आये हो. तब हम भी पूछते थे कश्मीरियों से- कश्मीर से आये हो ?’

‘अब ऐसा नहीं होता. हम सब ऐसे नहीं पूछते…बस उनके शहर का नाम पूछते हैं.’

मैंने मजाक से पूछा- ‘बिहार का नाम सुना है ?’

‘अरे…क्या बात करती हैं, कौन नहीं जानता यहां. हमारे राजा और रानी दोनों की कब्रें वहां हैं.’

दानिश ने ही बताया कि गुरेज वैली में पंद्रह गांव हैं, जिनमें करीब तीस से पैंतीस हजार लोग रहते हैं. वैली का प्रशासनिक मुख्यालय डावर है, जहां पर सरकारी दफ्तरों के अलावा स्कूल कॉलेज और होटल हैं. छोटा-सा बाजार और सेना से संचालित लाग हट कैफे भी इस गांव में हैं. गुरेज वैली के उत्तरी ओर ‘लाइन आफ कंट्रोल’ है, इसलिये यहां सेना का बडा बंदोबस्त तो है, मगर गांव के लोगों से भरपूर दोस्ताना संबंधों के साथ. पाक सीमा से होने वाली गोलीबारी और साल में कड़ाके की ठंड के दिनों में सेना ही यहां की आबादी की मददगार रहती है. डावर से थोड़ी आगे निकलते ही दिखती है हब्बा खातून पहाडी. पिरामिड की आकार की इस पहाड़ी के नीचे ही बहता है हब्बा खातून चश्मा. वहां जाते हुए रास्ते में मिला एक बंजारा जो अपनी भेड़ चराने आया था. उसी ने हमें ऊपर पहाड़ पर पाकिस्तान का बंकर दिखाया. नीचे से वे छोटे-छोटे नजर आ रहे थे. बंजारे की अपनी तकलीफें होती हैं. गुरेज की कठिन जिंदगी उन्हें टिकने नहीं देती. जब साल के छह महीने कड़ाके की सर्दी होती है, छह से सात फीट बर्फ पड़ती है, तब उस दौरान अधिकतर स्थानीय लोग और बक्करवाल बंजारे बांदीपुर या फिर श्रीनगर चले जाते हैं.

और अंतिम बात ये कि यात्री बनिए, पर्यटक नहीं. तीन तरफा पहाड़ों के बीच खोया हुआ गुरेज बुलाता है. पहले गुरेज जाना आसान नहीं था, मगर अब सेना ने पाबंदी कम कर पर्यटकों को आने की सुविधा दी है, इसलिये श्रीनगर को बख्श दें, कश्मीर के भीतरी हिस्सों में जाएं, जुड़े. बहुत सुरक्षित जगहें हैं और स्थानीय लोग भी बहुत मीठे. वहां फिजा बदल गयी है.

संपर्क : सी-1339, गौर ग्रीन ऐवेन्यू, अभय खंड – 2, इंदिरापुरम, गाजियाबाद, पिन-201014, geetashri31@gmail.com

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