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विपत्तियों में जीवनी शक्ति देती है रामकथा, है इसका भी प्रमाण, पढ़ें विशेष आलेख

क्या नहीं है राम में, रामकथा में? रामकथा विपत्तियों में जीवनी शक्ति देती है. अपनी मौलिक तथ्यों को बिना गंवाये नये रूपों में सज-संवरकर प्रेरणा देती रही है. इसक प्रमाण भी है. पढ़ें इस पर विशेष आलेख-

मार्कण्डेय शारदेय, धर्मशास्त्र ज्ञाता : समय-समय पर सामयिकता का समावेश कर रामकहानी अपनी मौलिक तथ्यों को बिना गंवाये नये रूपों में सज-संवरकर प्रेरणा देती रही. पितृभक्ति, भ्रातृप्रेम, अविभाजित दांपत्य राग, निश्छल मैत्री, सेवाधर्म, राजधर्म, त्याग-समर्पण, धैर्य, पराक्रम, प्रेम-दया, करुणा के अतिरिक्त राष्ट्रहित व समाजहित में कठोर निर्णय की क्षमता… क्या नहीं है राम में, रामकथा में? धर्मराज युधिष्ठिर सब कुछ गंवा चुके थे. राज-पाट, धन-दौलत, घर-परिवार अब कुछ भी नहीं था. पांचों भाइयों और द्रौपदी के साथ उजड़े मलिकांव में वन में गुजारना ही नियति बन गयी थी. इतना के बावजूद संकटों का प्रहार होता रहा. फिर भी प्रगाढ़ भ्रातृत्व, प्रेयसी के प्रिया-सम्मित वाणी के साथ साहचर्य व दयामय ऋषि-मुनियों का सान्निध्य ईश्वरीय कृपा के रूप में प्राप्त था. इसलिए इसी बल से वन में भी मंगल-ही- मंगल था. विपत्ति के घाव कम टीसते थे. टीसते भी थे, तो अंदर-अंदर. होठों पर मुस्कान प्रायः बरकरार रहती थी.

जब द्रौपदी का अपहरण करनेवाले जयद्रथ का कचूमर निकालकर भीमसेन ने उसे दास बनाकर धर्मराज के समक्ष उपस्थित किया, तो उन्होंने उसे माफ कर दिया. वह बड़े दुःखी होकर विचारने लगे और अपने को संसार में सबसे बड़ा अभागा मानने लगे. यही व्यथा उन्होंने महर्षि मार्कण्डेय के समक्ष रखी. इस पर महर्षि ने अनेक सांत्वनाप्रद कथाओं के साथ रामकथा सुनाकर उन्हें ढाढस बंधाया.

मनुष्य जब विपत्तियों से घिरता है, तो सहारा ढूंढ़ता फिरता है. अपनों की ओर ताकता है, परायों की भी दयादृष्टि चाहता है. महर्षि मार्कण्डेय ने रामकथा के माध्यम से श्रीराम के जीवन में आये संकटों से युधिष्ठिर को अवगत कराया और शोक न करने पर बल दिया. उन्होंने कहा कि अमित तेजस्वी श्रीराम ने भी वनवास का दुःख झेला था. आपके साथ तो अपने प्रिय परम पराक्रमी सभी भाई भी हैं, उनके साथ स्वजनों के न होने पर भी वानर, भालू लंगूर-जैसी भिन्न योनि के प्राणियों से, या यों कहें कि सांस्कृतिक और भाषाई असमानताएं रखनेवालों के साथ मैत्री स्थापित कर भयंकर पराक्रमी रावण-जैसे शत्रु का वध कर सीता को मुक्त कराया था. श्रीराम के सामने आपका कष्ट तो अणुमात्र भी नहीं है- ‘न हि ते वृजिनं किंचिद् वर्तते परमाण्वपि।’ जिसके इंद्र के समान गांडीवधारी अर्जुन, भयंकर पराक्रमी गदाधारी भीम, और नकुल-सहदेव-जैसे भाई हों, वह देवराज की भी सेना को परास्त कर सकता है. विषाद क्यों करते हैं? विपत्ति में धैर्य ही महात्माओं-महापुरुषों का संबल होता है.

वस्तुतः श्रीराम का चरित्र युधिष्ठर से लेकर आज के मानवों के लिए भी समान रूप से प्रेरणाप्रद है. ‘निर्बल के बल राम’ कहावत का भी यही ध्येय है कि जब विपत्ति के आघातों से मन व्यथित हो उठता है, जीवन दूर भागने लगता है, तो रामकथा में ढूंढ़ने पर औषधि मिल जाती है, जिजीविषा जाग उठती है. सदियों से ऐसा होता आया और इसी कारण न राम मंद पड़े और न उनकी कथा ही मंद पड़ी. इसीलिए समय-समय पर सामयिकता का समावेश कर रामकहानी अपनी मौलिक तथ्यों को बिना गंवाये नये रूपों में सज-संवरकर प्रेरणा देती रही. पितृभक्ति, भ्रातृप्रेम, अविभाजित दांपत्य राग, निश्छल मैत्री, सेवाधर्म, राजधर्म, अधिकार-कर्तव्य, त्याग-समर्पण, धैर्य, पराक्रम, प्रेम-दया, करुणा के अतिरिक्त राष्ट्रहित व समाजहित में कठोर निर्णय की क्षमता…. क्या नहीं है राम में, रामकथा में? जीवन जहां उलझे, वहां रामायण का कोई-न-कोई प्रसंग प्रस्तुत हो जाता है गुत्थियां सुलझाने के लिए.

इतिहास वर्तमान को संवारने के लिए और भविष्य को सफल बनाने के लिए ही होता है. इसीलिए हम पढ़ते भी हैं कि आदर्श पुरुषों के आचरणों से सीख लेकर विपरीत परिस्थितियों का पुरजोर सामना कर सकें. रामकथा का नायक विषम परिस्थितियां देख उनसे भागनेवाला नहीं और न संन्यास लेकर युद्ध-भीरुता का उदाहरण बनने को तैयार ही दिखता है. वस्तुतः महर्षि वाल्मीकि ने अपने काव्य-नायक की जो कोटि निश्चित की थी, शुद्ध-सात्त्विक, पराक्रमी, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दृढव्रत, चरित्रवान, समस्त प्राणियों का हितैषी, विद्वान, सामर्थ्यवान, सर्वाधिक सुंदर, मन को वश में रखनेवाला, क्रोध को जीतनेवाला तथा ईर्ष्या से रहित- इन गुणों को किसी एक में ही तलाशनेवाले वाल्मीकि ने देवर्षि नारद से भी पूछा कि क्या आपकी नजर में ऐसा व्यक्ति है? जब नारदजी ने श्रीराम के नाम पर मुहर लगा दी, तब रामचरित को काव्यबद्ध किया.

वाल्मीकि ने सर्वोत्तम जिन मानवीय मूल्यों पर अपने काव्य की नींव रखी, जिस महापुरुष को नायक बनाया, वह कहीं से अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है तथा किसी काल में इतनी विशेषताओं से भरा-पूरा कोई एक व्यक्ति मिल ही नहीं सकता. जिन गुणों की कसौटी पर उन्हें जांचा गया, उन पर रघुनंदन राम पूरे दिखते हैं. उनका कोई कदम स्वार्थी बनकर नहीं उठा है. परार्थ-परमार्थ उन्होंने मुसीबतों को झेलना भी स्वीकार किया. यह सच है कि कोई कितना भी महान क्यों न हो, समाज दोष ढूंढ़ ही लेता आया है. श्रीराम के साथ ऐसा होना भी इसी का उदाहरण है. हम भारतीयों को गर्व है कि हमारी रामकथा संसार को शाश्वत जीवन मूल्यों की सीख देने में न कभी पुरानी पड़नेवाली है और किसी को भटकानेवाली है.

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