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दिनकर के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था

भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित इस रचना में काम जैसे मनोभाव को स्वीकार करने और उसे आध्यात्मिक गरिमा तक पहुंचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी, वह दिनकर में मौजूद था.

वह 21 अप्रैल, 1946 का दिन, पटना का गांधी मैदान, लाखों की संख्या में युवा जेपी का अभिनंदन करने पहुंची भीड़, सभा की अध्यक्षता श्री बाबू कर रहे हैं, जो बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री और गांधी के अनुयायी हैं. जेपी गांधी, नेहरू और पटेल के बाद की पीढ़ी के सबसे यशस्वी क्रांतिकारी नेता जेपी हैं, जो हजारीबाग जेल तोड़कर भागने में सफल हो जाते हैं, फिर लंबी जेल यात्रा के बाद बिहार आगमन पर यह कार्यक्रम आयोजित है. दिनकर एक विप्लवी कविता के द्वारा जेपी का परिचय कराते हैं- ‘है ‘जयप्रकाश’ वह जो न कभी, सीमित रह सकता घेरे में/ अपनी मशाल जो जला, बांटता फिरता ज्योति अंधेरे में/ है ‘जयप्रकाश’ वह जो पंगु का चरण, मूक की भाषा है/ है ‘जयप्रकाश’ वह टिकी हुई, जिस पर स्वदेश की आशा है.’

आजादी के बाद वे बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए. स्वयं पंडित नेहरू उनकी प्रतिभा के इतने कायल थे कि 1952 में गठित प्रथम राज्यसभा में ही उन्हें मनोनीत किया. उन्होंने 12 वर्षों तक उच्च सदन को सुशोभित किया. वर्ष 1964 में वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और 1965 में भारत सरकार ने उन्हें ‘हिंदी सलाहकार’ नियुक्त किया.


दिनकर जी की लगभग 50 कृतियां प्रकाशित हुई हैं. प्रारंभ में दिनकर ने छायावादी रंग में कुछ कविताएं लिखीं, पर जैसे-जैसे वे अपने स्वर से स्वयं परिचित होते गये, अपनी काव्यानुभूति पर कविता को आधारित करने का आत्मविश्वास उनमें बढ़ता गया. दिनकर के प्रथम तीन काव्य संग्रह प्रमुख है. ‘रेणुका’ (1935), ‘हुंकार’ (1938) और ‘रसवंती’ (1939) उनके आरंभिक आत्म मंथन के युग की कविताएं हैं. दिनकर के प्रबंध काव्यों में ‘कुरुक्षेत्र’ (1946), ‘रश्मिरथी’ (1952) तथा ‘उर्वशी’ (1961) हैं. गांधीवादी और अहिंसा के समर्थक होते हुए भी ‘कुरुक्षेत्र’ में वे कहते नहीं हिचके कि ‘कौन केवल आत्मबल से जूझकर, जीत सकता देह का संग्राम है, पाशविकता खड्ग जो लेती उठा, आत्मबल का एक वश चलता नहीं, योगियों की शक्ति से संसार में हारता, लेकिन नहीं समुदाय है.’


राष्ट्रकवि दिनकर की रचनाएं विद्रोह, गुस्सा, आक्रोश और जिंदगी को नयी दिशा देती हैं. वे नेहरू को कई अवसरों पर ‘लोकदेव’ कहकर संबोधित करते हैं, पर 1962 में चीन द्वारा की गयी भारतीय स्वाभिमान पर चोट को वे आसानी से भुला नहीं पाते. दिनकर द्वारा संसद में जिस कविता का पाठ किया गया, प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि उसे सुनकर पंडित नेहरू का सिर झुक गया था- ‘जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो/ समझो उसी ने हमें मारा है.’ एक रोचक प्रसंग से उनके स्वावलंबी चरित्र का भी परिचय होता है. लाल किले में कवि सम्मेलन है, पंडित नेहरू मुख्य अतिथि हैं, रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्र कवि के तौर पर विशेष आमंत्रित है.

पंडित नेहरू और दिनकर मंच की सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे, इसी बीच अचानक पंडित नेहरू का पैर फिसलता है, लेकिन दिनकर आगे बढ़कर उन्हें संभाल लेते हैं. पंडित नेहरू उन्हें धन्यवाद करते हैं. जो उत्तर दिनकर देते हैं, वह इतिहास बन गया- ‘इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं हैं नेहरू जी, जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है.’ दिनकर के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था. शायद इसलिए वे जन-जन के कवि बन पाये और आजाद भारत में उन्हें राष्ट्र कवि का दर्जा मिला. दिनकर को इस ऊंचे ओहदे पर देश की जनता ने बिठाया है, न कि किसी राजनीतिक धड़े या विशिष्ट विचारों के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले समालोचकों ने.

स्वयं बिहार के जमींदार भूमिहार कुल में पैदा दिनकर जाति व्यवस्था की बुराई पर कटु प्रहार करने से परहेज नहीं करते थे. ‘रश्मिरथी’ में उन्होंने एक सूतपुत्र (अवर्ण) कर्ण को नायक बनाया है और उनके माध्यम से जातिवादी सियासत के सूरमाओं को आईना दिखाया है. दिनकर ने अपने साहित्य के जरिये दलित, शोषितों पर होते अत्याचारों के खिलाफ भी आवाज उठायी.
वे केवल ओज, शौर्य और सहजता के कवि ही नहीं है. वे प्रेम, सौंदर्य और गीत के कवि भी हैं. ‘उर्वशी’ दिनकर की रूमानी संवेदना की पराकाष्ठा है. भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित इस रचना में काम जैसे मनोभाव को स्वीकार करने और उसे आध्यात्मिक गरिमा तक पहुंचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी, वह दिनकर में मौजूद था.

‘संस्कृति के चार अध्याय’ उनके चिंतन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है. वे देश और जनता के सुख-दुख से अनजान बने नेताओं और बुद्धिजीवियों की आलोचना करने से नहीं चूकते- ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा, उनके भी अपराध.’ हिंदी साहित्य में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं, जो सत्ता के भी करीब रहे और जनता में भी लोकप्रिय हुए. दिनकर की रचनाएं हमेशा प्रासंगिक रहेंगी.

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