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हिंदी भाषा : मानक और प्रचलन

हिंदी सर्वनामों के कुछ प्रयोगों में ‘ने’ के बारे में न केवल एकरूपता नहीं है, वरन उनमें कोई तार्किक या व्याकरणिक आधार भी नहीं दिखता.

हिंदी सीखने-बोलने वालों के मार्ग में जो अनेक भटकाऊ किस्म के मोड़ आते हैं, उनमें से एक कर्ता कारक का चिह्न ‘ने’ है. किशोरीदास वाजपेयी इसे संस्कृत के कर्मवाच्य के साथ जुड़ने वाली तृतीया विभक्ति (-एन) का अवशेष मानते हैं और ‘ने’ वाक्यों के विचित्र स्वभाव को देखते हुए ऐसी वाक्य रचना को ही कर्मवाच्य मानते हैं. अन्य विद्वान इसे मानते तो कर्तृवाच्य हैं, फिर भी इसके लिए कुछ बंदिशें तय कर देते हैं, किंतु उनसे मामला सुलझता नहीं.

‘ने’ के मामले में हिंदी क्षेत्र में एकरूपता नहीं है. यह ‘ने’ अधिकतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित है, यही शायद इसकी जन्मभूमि भी है. सो वाराणसी से पंजाब तक इसका प्रयोग शुद्ध होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं है. पूर्वी हिंदी में ‘ने’ के बिना वाक्य सहज रूप से बनता है, जैसे- हम कहे थे, हम खाना खा लिये हैं आदि, किंतु मानक व्याकरण ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध मानता है. इसलिए नियमानुसार ‘हमने कहा था, हमने खाना खा लिया’ कर लिया जाता है.

हिंदी सर्वनामों के कुछ प्रयोगों में ‘ने’ के बारे में न केवल एकरूपता नहीं है, वरन उनमें कोई तार्किक या व्याकरणिक आधार भी नहीं दिखता. यह ‘ने’ कर्ता कारक में जुड़ता है और स्पष्ट नियम है कि भूतकाल में सकर्मक क्रिया के साथ ही ‘ने’ का प्रयोग होता है. फिर भी क्रिया से ‘-ना’ जोड़ कर बनाये गये संज्ञा शब्दों के साथ ऐसे वाक्य खूब चल रहे हैं- मजदूर ने काम पूरा करना है, शिल्पा ने दो बजे पहुंचना था, मैंने काम पर जाना है.

ये वाक्य व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हैं, यद्यपि हिंदी क्षेत्र में ये बहुत सुने जाते हैं. यहां कर्ता कारक का ‘को’ प्रत्यय जुड़ना चाहिए. इसलिए शुद्ध वाक्य होंगे- मजदूर को काम पूरा करना है, शिल्पा को दो बजे पहुंचना था, मुझको/मुझे काम पर जाना है. कोई सरलता से मानता ही नहीं कि ये वाक्य अशुद्ध हैं, क्योंकि हिंदी की कुछ बोलियों, उपभाषाओं और पड़ोसी भाषाओं में कर्ता कारक में भी ‘ने’ का प्रयोग होता रहा है और उसी अनुकरण में यह हिंदी में संक्रमित हो गया है.

इस ‘ने’ की एक अन्य दारुण भूमिका है- रिश्ता तोड़ने वाली भूमिका. प्रायः सभी भाषाओं में किसी भी वाक्य में कर्ता के अनुसार ही क्रिया होती है. हिंदी में भी यह वैश्विक नियम है, पर तभी तक, जब तक कर्ता से ‘ने’ न जुड़ा हो. यहां ‘ने’ के कर्ता से जुड़ते ही उसके मन में अपनी जीवनसंगिनी क्रिया के प्रति मानो उदासीनता का भाव पैदा हो जाता है और वह क्रिया से विमुख हो जाता है. कर्ता का आसरा छूटने पर विवश होकर क्रिया कर्म से संबंध जोड़ लेती है- सुधा कविता पढ़ती है, मोहन खाना खाता है.

‘ने’ के आ जाने पर क्रिया कर्म के अनुसार: सुधा ने कविता पढ़ी, मोहन ने खाना खाया. प्यार के दुश्मनों को यहां भी चैन नहीं. वे कर्म और क्रिया के बीच भी ‘को’ का पहरा बिठा देते हैं और निराश क्रिया लौकिक संबंधों से विरक्त होकर कर्ता और कर्म दोनों से विमुख होकर अपनी अलग पहचान बना लेती है- सदा अन्य पुरुष, पुल्लिंग, एक वचन में रहती है, जैसे- सुधा ने कविता को पढ़ा, मोहन ने पराठे को खाया.

‘ने’ की कुछ और मनमानियां भी दिखती हैं. उनमें एक है यह और वह सर्वनामों का कर्ता कारक में बहुवचन रूप बनाते हुए ‘-न्हों’ का निषेध कर उसके स्थान पर केवल ‘-न+ने’ का प्रयोग. प्रभाष जोशी और प्रभाकर माचवे जैसे प्रसिद्ध लेखकों के मुंह से मैंने ऐसे वाक्य सुने हैं- उनने कहा, इनने बताया आदि. एक बार माचवे जी ने हंस कर कहा था, ‘इसे हिंदी को मालवा की देन मान लो!’

यह सत्य भी है. मालवी और ब्रज में ये ही प्रयोग हैं. हिंदी में केवल यह, वह, कौन सर्वनामों के कर्ता कारक के बहुवचन में ही यह न जाने कैसे आ विराजा है, शेष किसी भी कारक में नहीं है- उनको, उनसे, उनका, उनके लिए, उनमें कहीं भी ‘न्हों’ के दर्शन नहीं होते. स्पष्ट है कि यह बोलियों से ही आया है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर मिथिला तक ‘ने’ का प्रयोग वैसा नहीं है, जैसा पश्चिमी क्षेत्र में है. पूर्वी हिंदी में ‘ने’ के बिना वाक्य सहज रूप से बनता है- हम कहे थे, हम खाना खा लिये हैं आदि. मानक व्याकरण ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध मानता है, उसके अनुसार वाक्य ऐसे होंगे- हमने कहा था, हमने खाना खा लिया. पूर्वांचल के समाचार पत्रों में ‘ने’ की ऐसी भूलें यदि दिखें, तो इसे स्वाभाविक लोक स्वीकृत प्रयोग माना जा सकता है.

हिंदी मीडिया को पूर्वांचल या पश्चिमांचल का मीडिया तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ‘ने’ का प्रयोग कम से कम यह पहचान तो उजागर कर देता है कि अमुक रिपोर्ट को लिखने-बोलने वाला यदि ‘ने’ के बिना स्वतंत्र वाक्य रचना कर रहा है, तो वह पूर्वांचल का हो सकता है. इसी प्रकार ‘ना’ वाली क्रियाओं के कर्ता को कर्म कारक ‘को’ के स्थान पर ‘ने’ से सजा रहा है, तो वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा या पंजाब का ही हो सकता है. विश्व की कोई भाषा ऐसी नहीं है, जिसकी रचना के नियमों में अपवाद न हों, पर अपवादों के भी नियम होते हैं. कोई भाषा पहले व्याकरण के नियम सीखने के बाद नहीं सीखी जाती. पहले भाषा, फिर नियम.

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