सिलीगुड़ी: वो बड़े किस्मत वाले है, जिनकी कला को भूले-बिसरे सम्मान मिल जाता है! वरना कला के कद्रदान कम होते जा रहे है. जमाना विज्ञापन युग का है. बिना प्रचार -प्रसार के एक कलाकार की क्या दशा होती है. गुजरात का भगवान माली इसके एक बानगी है. उम्र के 55 वें पड़ाव पर है. लेकिन दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल है. उसके हाथों में जादू है. जब वह वाइलन के तारों पर पर पड़ते है, और उससे निकलने वाली राग -रागिनी दिल ही नहीं आत्मा तक को छू जाती है.
और आत्मा पर पड़े इस छाप को जल्द मिटाया नहीं जा सकता. आत्मा को छूने वाले इस व्यक्ति का जीवन भीखारियों की तरह है. लगता है, वह युग गया जिसमें कलाकारों की कद्र होती थी, उसे संरक्षण मिलता था. उसे सोने-चांदी से तौला जाता है. लेकिन आज जो दिखता है, वहीं बिकता है! भगवान माली की गलती है कि उस मार्केटिंग करना नहीं आया. लेकिन फिर यह मस्तमौला कलाकार खुश है. खुश क्यों न हो? जब इसका जीवन ही संगीत हो. संगीत तो दुख को आने ही नहीं देती.
दस साल की उम्र में पिता कस्तूर माली ने वाइलन थमा दिया. उसके बाद हर धुन, हर गीत को इन्होंने वाइलन के ताऱ पर सजा लिया. असमिया, हिंदी ,बांग्ला, नेपाली, हॉलीवुड सहित हर तरह के गीत गा सकता है. फिलहाल दार्जिलिंग मोड़ के पास वह रहता है. सोमवार को यह मस्तमौला वाइलन वादक वेनस मोड़ के चौराहे पर अपने गीत से सबको मंत्र-मुग्ध कर रहा था, बिना कुछ पाने की चाहत में! पता नहीं हम कब ऐसे भगवान माली के मूल्य को समझेंगे!