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धोकरा कारपेट के कारीगर चुनाव के प्रति उदासीन
इटाहार-कालियागंज इलाकों के कारीगरों ने की प्रशासनिक उपेक्षा की शिकायत कालियागंज. पंचायत चुनाव को लेकर पूरे उत्तर दिनाजपुर जिले में उत्साह चरम पर है. लेकिन इटाहार और कालियागंज प्रखंड क्षेत्र में एक ऐसा वर्ग है जो चुनाव प्रचार से दूर अपनी रोजी-रोटी में जुटा हुआ है. यह वर्ग है धोकरा कारपेट के कारीगरों का. इनका […]
इटाहार-कालियागंज इलाकों के कारीगरों ने की प्रशासनिक उपेक्षा की शिकायत
कालियागंज. पंचायत चुनाव को लेकर पूरे उत्तर दिनाजपुर जिले में उत्साह चरम पर है. लेकिन इटाहार और कालियागंज प्रखंड क्षेत्र में एक ऐसा वर्ग है जो चुनाव प्रचार से दूर अपनी रोजी-रोटी में जुटा हुआ है. यह वर्ग है धोकरा कारपेट के कारीगरों का. इनका साफ तौर पर कहना है कि पंचायत चुनाव कब तक होगा, इसको लेकर उनकी कोई चिंता नहीं है. उन्हें तो अपने धोकरा कारपेट की कारीगरी से जीवन निर्वाह करना है.
उन्होंने शिकायत की कि शासन-प्रशासन की तरफ से उनकी मदद के लिए आज तक कुछ नहीं किया गया. अगर समय रहते मदद नहीं की जाती है तो यह कुटीर उद्योग हमेशा के लिए लुप्त हो जायेगा. उल्लेखनीय है कि कालियागंज प्रखंड के बालास, अनंतपुर और भांडार के अलावा इटाहार प्रखंड के कोकना गांव की बहुत सी महिलाओं की आय का एक प्रमुख जरिया यह कुटीर उद्योग ही है.
स्थानीय गृहिणी तुली बर्मन ने बताया कि एक समय था जब कालियागंज और इटाहार ब्लॉक के राजवंशियों के हाथ से बने कारपेट की धनकोल, पातीराजपुर, कुनौर, दुर्गापुर के हाट से मालदा, मुर्शिदाबाद, बांकुड़ा इनकी आपूर्ति की जाती थी. चुनाव प्रचार के बारे में इन कारीगरों का कहना है कि हमें ऐसे उम्मीदवार चाहिए जो योग्य हों और इनके जैसे श्रमजीवियों के लिए लड़ सकें. फिलहाल इन कारीगरों की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है. इन्हें अगर आसान शर्तों पर सरकारी कर्ज मिल सके, तो इनकी दशा सुधरने के साथ-साथ इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था भी बदली जा सकती है.
इन कारीगरों ने बताया कि पटसन और रंगीन धागे से बने कारपेट को स्थानीय राजवंशी लोग धोकरा कहते हैं. इस कारपेट की असम से लेकर बिहार राज्य तक में काफी मांग है. गौरतलब है कि इस कुटीर उद्योग के विकास के लिए प्रशासन की तरफ से कारीगरों को लेकर क्लस्टर का गठन कर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है. लेकिन इस प्रशिक्षण योजना से बालास और अनंतपुर जैसे गांव अछूते हैं. स्वाभाविक कारणों से इन कारीगरों में शासन-प्रशासन के प्रति नाराजगी है.
एक समय था जब बालास गांव के 400 से अधिक महिलाएं इस धोकरा उद्यम से जुड़ी हुई थीं. महिला कारीगरों ने बताया कि इस कारपेट को बनाने में काफी मेहनत लगती है. पटसन को काटने से लेकर उनकी छाल को अलग करना और फिर उनसे धागा तैयार कर कारपेट की बुनाई की जाती है. इतनी मेहनत करने के बावजूद उन्हें काटकूट कर 300 रुपये मिलते हैं. स्थानीय कारीगरी शोभा, माधुरी, मिनती ने बताया कि पहले वे एक सप्ताह में चार से पांच कारपेट बना लेती थीं, लेकिन अब इस उद्यम में न तो रुपये हैं और न ही सम्मान. इसलिए कई कारीगर तो बुनाई का काम छोड़कर भाजा-मूड़ी बेचने का काम और कई जोगाड़ी का काम कर रही हैं. इन्हीं में से कुछ कारीगर ऐसी भी हैं जो अपने नियमित काम-काज से समय निकाल कर पार्टटाइम के रूप में कारपेट बनाती हैं.
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