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सिलीगुड़ी की कहानी महानंदा की जुबानी : 2 महलदी से महानदी, फिर बनी मैं महानंदा

मैं महानंदा हूं. सिलीगुड़ी महानगर की जननी. भले ही इस महानगर की चकाचौंध में लोग मुझे भुला बैठे हैं, लेकिन मैं इस शहर को कैसे भूल सकती हूं, जो मेरे किनारे बसा और फल-फूल रहा है. सिर्फ सिलीगुड़ी ही नहीं बल्कि उत्तर बंगाल का एक वृहद हिस्सा समेत मालदा शहर भी मेरे ही स्नेह अंचल […]

मैं महानंदा हूं. सिलीगुड़ी महानगर की जननी. भले ही इस महानगर की चकाचौंध में लोग मुझे भुला बैठे हैं, लेकिन मैं इस शहर को कैसे भूल सकती हूं, जो मेरे किनारे बसा और फल-फूल रहा है. सिर्फ सिलीगुड़ी ही नहीं बल्कि उत्तर बंगाल का एक वृहद हिस्सा समेत मालदा शहर भी मेरे ही स्नेह अंचल में पला और बढ़ा. मेरी चर्चा के बिना उत्तर बंगाल की कहानी अधूरी होगी.

सिलीगुड़ी: दार्जिलिंग जाने वाले रास्ते में महानदी नाम से एक हिल स्टेशन है. इसी महानदी के उपर पहाड़ों की ढलान में मेरा जन्मस्थल है. महलदीराम पर्वत शिखर से मैं प्रवाहित होते हुए समतल में इठलाती, बलखाती उतरती हूं और लाखों लोगों को शीतलता प्रदान करती हूं. लेप्चा जनजाति के लोगों ने मेरा नाम महलदी क्यों रखा, यह भी आप जानना चाहेंगे? चूंकि मैं सर्पिल आकार में आड़े तिरछे डगर होते हुए नीचे गिरती हूं, इसलिए लेप्चा लोगों ने प्यार से मेरा नाम महलदी रखा, जिसका अर्थ बंकिम अर्थात सर्पिल आकार होता है.

यही महलदी शब्द बाद में चलकर स्थानीय बोलचाल में महानदी हो गया. हालांकि सिलीगुड़ी में मैं आज भी महानंदा के नाम से ही जानी जाती हूं. गोरखाली समुदाय के लोग 60-70 के दशक तक मुझे महानदी के नाम से ही पुकारते थे. पहाड़ से उतरकर मैं सिलीगुड़ी में प्रवाहित होते हुए थोड़ी दूर पर मुड़ जाती हूं और फिर वहां से मैं जलपाईगुड़ी जिले में प्रवेश करती हूं. बाद में चलकर बांग्लादेश की सीमा के समानांतर बहते हुए दक्षिण दिनाजपुर जिले की उत्तरी सीमा का निर्धारण करते हुए कई किलोमीटर तक प्रवाहित होती हूं. इसके बाद मेरा कुछ समय के लिये बंगाल से नाता टूट जाता है और मैं बिहार के पूर्णिया जिले में प्रवेश करती हूं. इस तरह से दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रवाहित होते हुए उत्तर दिनाजपुर जिले के इटाहार थानांतर्गत मुकुंदपुर को स्पर्श करते हुए नागर नदी से मिलने के बाद मैं पुन: महानंदा के नाम से ही दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रवाहित होते हुए मालदा जिले में प्रवेश करती हूं. मालदा में मेरा मिलन गंगा मैया से होता है जिसके बाद मैं उनसे एकाकार होकर स्वयं को धन्य मानती हूं. इस तरह से मेरा सफर गंगा के साथ सागर की ओर शुरु होता है.

(इतिहासकार दुलाल दास के अनुसार) मेरे निरंतर प्रवाह के गवाह बड़े बड़े साम्राज्य रहे हैं. अबुल फजल की ‘ आइन-ए-अकबरी ‘ में भी मेरी चर्चा है. इसमें मेरे साथ गंगा, कालिंदी नदियों की भी चर्चा है. चीनी यात्री फा-हुवेन ने 1409 ईस्वी में गौड़ राज्य का भ्रमण किया था. उस समय उन्होंने लक्खनावती और पांडुआ के बेड़ों को देखकर उनकी प्रशंसा की है. 16वीं सदी के आरंभ में गौड़ के सुल्तान हुसैन शाह के शासनकाल में बारथेमा नामक वेनिस के यात्री ने यहां की यात्रा की थी. उन्होंने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि उस समय प्रति वर्ष लक्खनावती और पांडुआ से 50 वाणिज्य पोत विदेश की यात्रा करते थे. विदेश व्यापार से चांद खां नामक गौड़वासी ने अपार संपदा अर्जित की थी. उस समय आगरा, गुजरात और कश्मीर के बहुत से व्यापारी हम जैसी नदियों के जरिये ही मालदा आते थे. 1577 में मालदहवासियों ने शेकवेक जहाज पर नदियों के जरिये ही रूस की यात्रा की थी. 1905 में बिहार के नेतृत्व ने बंगाल और बिहार की सीमा रेखा निश्चित करने का प्रस्ताव किया था. लेकिन वह प्रस्ताव नहीं माना गया. यह एक तरह से अच्छा ही हुआ चूंकि मैं दो राज्यों के बीच विभाजन रेखा बनते बनते बच गई. अन्यथा विभाजन का कलंक मेरे माथे पर लग जाता. मेरे ही उपर से कभी पांच पांडव अज्ञातवास के दौरान अपनी माता कुंती और पत्नी द्रौपदी के साथ गुजरे थे.

महाभारत के वनपर्व के अनुसार पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान बंगाल के किसी अधिबंग तीर्थ की यात्रा मेरे ही उपर से की थी. पांडव यहां रात में नहीं रुके थे. इसीलिये इस क्षेत्र को पुराणों में पांडववर्जित क्षेत्र कहा गया है. केवल एक दिन के प्रवास में सिलीगुड़ी के निकट सायदाबाद चाय बागान इलाके में द्रौपदी ने भीम द्वारा खोदे गये तालाब में स्नान किया था. सवाल है कि आखिर इस क्षेत्र को पांडववर्जित क्षेत्र क्यों कहा जाता है? क्या उस समय भी यह क्षेत्र मलेरिया और कालाज्वर से प्रभावित था? उस प्राचीन महाभारतकाल को बीते लगभग 5000 साल तो हो ही गये होंगे. संभव है कि जब 19 वीं सदी से इस क्षेत्र में मलेरिया और काला ज्वर का प्रकोप रहा है तो प्राचीनकाल में उसका रुप और भयावह ही रहा होगा. (क्रमश:)
लॉर्ड कैनिंग की पत्नी को सिलीगुड़ी में हुआ मलेरिया
उल्लेख है कि भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग की पत्नी लेडी कैनिंग सिलीगुड़ी में रात्रिवास के दौरान मलेरिया हो गया था और उनकी मृत्यु भी हो गई थी. 40 के दशक में प्रत्यक्षदर्शियों ने सिलीगुड़ी थाना के सामने एक कौवे को कांपते कांपते गिरते हुए देखा था. यह बात केवल कपोलकल्पना नहीं है कि सिलीगुड़ी में कौवे को भी मलेरिया होता था. बाद में भी इसका प्रकोप विभिन्न रुपों में आज भी कायम है.
लकड़ी के मकान की जगह बने बड़े भवन
मैं जब पुराने दिनों को याद करती हूं तो लगता है कि सिलीगुड़ी महानगर ने कितनी प्रगति की है. 60-70 के दशक की बात याद आती है. उस समय हिलकार्ट रोड के बीचोंबीच ट्वाय ट्रेन चलती थी. मेरे उपर आज जो पक्का सेतु दिखाई देता है वह उस समय कहां था? उसकी जगह लकड़ी का पुल था जो वाहनों के भार से डोलता था. मेरे ही किनारे बसे गुरुंगबस्ती और प्रधाननगर में ज्यादातर मकान लकड़ी के बने थे. यहां हर समुदाय के लोग थे लेकिन बहुलता नेपाली भाषी समुदाय की थी. सड़कें कच्ची थी और बिजली का तो नामोनिशान तक नहीं था. ज्यादातर लोग रेलवे कर्मचारी थे जिन्होंने अवकाश प्राप्ति के बाद मकान बनाकर उनसे अर्जित किराये से अपनी जीविका चलाते थे. इनमें से अधिकतर लोगों ने मुर्गी और हंस पाल रखे थे. मैंने देखा है कि किस तरह स्थानीय गरीब तबके के बच्चे गुलेल से गौरैयों का शिकार कर उसे खाते थे. लेकिन अब समय बदल गया है. लोगों की आर्थिक हालत पहले से काफी सुधर गई है और उन्होंने अपने बहुत से खान-पान और रिवाजों को छोड़ दिये हैं. इसी को तो सभ्यता की निशानी कहते हैं!
दुर्गा पूजा और छठ में अलग ही रौनक
उस तालाब और वहां मिट्टी का टिला आज भी उस घटना की गवाही देता है. मेरे तट पर साल में दो बार काफी रौनक रहती है. एक देवी दुर्गा के विसर्जन के समय और दूसरा छठ महाव्रत के समय जब मेरे दोनों किनारे रोशनी और सज-धजे घाटों से जगमगा उठते हैं. हालांकि इस बार नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देश पर छठ महापर्व के आयोजन में कमी आ सकती है. लेकिन इसके बावजूद मुझे उम्मीद है कि इस बार भी छठ व्रती और उनके परिजन पारंपरिक उल्लास व उमंग को कायम रखेंगे. बाकी दिनों मेरी सुध कौन लेता है! मैं उसी तरह भुला दी जाती हूं, जिस तरह लोग राह में उगे छायादार पेड़ों को भूल जाते हैं. फिर भी मुझे यह संतोष रहता है कि मैंने लोगों को सुख पहुंचाया है. यह मेरे लिए कम आनंददायक नहीं होता.

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