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कैराना लोकसभा उपचुनाव : विपक्ष की जीत ने बचायी छोटे चौधरी की राजनैतिक विरासत

हरीश तिवारी @ लखनऊ कैराना लोकसभा उपचुनाव में जीत भले ही राष्ट्रीय लोकदल की हो, लेकिन असल में ये जीत यूपी में विपक्षी एकता खासतौर से सपा और बसपा की है. जिसके जरिए विपक्षी की शुरूआत हुई है वहीं अपने वजूद के लिए लड़ रहे छोटे चौधरी यानी अजीत सिंह को राजनैतिक संजीवनी मिली है. […]

हरीश तिवारी @ लखनऊ

कैराना लोकसभा उपचुनाव में जीत भले ही राष्ट्रीय लोकदल की हो, लेकिन असल में ये जीत यूपी में विपक्षी एकता खासतौर से सपा और बसपा की है. जिसके जरिए विपक्षी की शुरूआत हुई है वहीं अपने वजूद के लिए लड़ रहे छोटे चौधरी यानी अजीत सिंह को राजनैतिक संजीवनी मिली है. ऐसा माना जा रहा है कि विपक्षी एकता का कारवां जो गोरखपुर और फूलपुर से शुरू हुआ था वह कैराना से होते 2019 के लोकसभा चुनाव तक जायेगा. जिसे रोकना भाजपा के लिए मुश्किल होगा. लेकिन इस विपक्षी एकता के गठबंधन में छोटे चौधरी की क्या भूमिका होगी यह अभी तय नहीं है.

कभी पश्चिम उत्तर प्रदेश चौधरी अजीत सिंह का गढ़ हुआ करता था. कभी कभार अपने संसदीय क्षेत्र की जनता से रूबरू होने वाले हमेशा से ही यहां पर अजीत सिंह जीत हासिल करते थे. लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव उनके लिए बड़ा झटका था. ऐसा पहली बार हुआ जब दल बदल कर सत्ता पर काबिज के माहिर छोटे चौधरी यानी अजीत सिंह सत्ता से दूर रहे.

यूपीए एक और यूपीए दो के दौरान महज चार सांसद होने के बावजूद चौधरी अजीत सिंह के पास हाई प्रोफाइल नागरिक उड्डयन मंत्रालय था. लेकिन 2014 के चुनाव में चौधरी की पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया बल्कि वह खुद अपनी परंपरागत सीट बागपत से चुनाव हार गये जबकि उनकी राजनैतिक विरासत को संभालने वाले जयंत चौधरी भी चुनाव हारे.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसी दौर में अजीत सिंह का गढ़ माना जाता था और उनकी राजनीति मुस्लिम और जाट वोटबैंक के इर्दगिर्द घूमती थी. लेकिन 2014 के चुनाव में भाजपा के ध्रुवीकरण के जाल में अजीत सिंह बुरी तरह से फंस गये और अपनी विरासत तक नहीं बचा पाए.

लोकसभा चुनाव में हार का नजीता था कि पिछले साल विधानसभा चुनाव में रालोद की कीमत कम हो गयी. वह कभी बसपा के साथ तो कभी सपा के साथ चुनावी गठबंधन करने कोशिश करने लगे. इसी बीच खबर आयी की रालोद भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा. लेकिन भाजपा की तरफ से ये शर्त रख दी गयी कि रालोद को भाजपा में विलय करना पड़ेगा.

लिहाजा सपा, बसपा और भाजपा से गठबंधन न हो पाने के बाद रालोद को कांग्रेस के साथ गठबंधन करना पड़ा और महज बागपत की छपरौली सीट ही उसके खाते में आयी. इस सीट पर विधायक सहेंद्र सिंह रमाला चुनाव जीते. जिन्हें राज्यसभा चुनाव में अजित सिंह के निर्देशों का पालन ना करने की वजह से आरएलडी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और बाद में सहेंद्र बीजेपी में शामिल हो गये.

विपक्षी गठबंधन में कम सीटों पर ही करना पड़ेगा संतोष

कैराना लोकसभा उपचुनाव में रालोद की जीत के बाद विपक्षी एकता की अटकलें तो लगायी जा रही हैं. लेकिन इस एकता में अभी तक जो सबसे बड़ी दिक्कत है वह सीटों का विभाजन है. बसपा ने साफ कर दिया है कि वह सम्मानजनक सीट मिलने पर ही गठबंधन करेगी. वहीं इस गठबंधन में कांग्रेस और रालोद की क्या भूमिका होगी. यह अभी तय नहीं है.

अगर 60:40 का फार्मूला लागू हुआ तो साठ फीसदी सीटों पर बसपा लोकसभा चुनाव लड़ेगी जबकि 40 फीसदी पर सपा चुनाव लड़ेगी. इसमें रालोद और कांग्रेस के खाते में कितनी सीटें आयेंगी. यह अभी तय नहीं है. वहीं अगर रालोद गठबंधन में शामिल होती है तो क्या बसपा और सपा से अपने कोटे की सीटें उसे दी जायेंगी. इस बारे में भी स्थिति स्पष्ट नहीं है. लेकिन इतना तय है कि अगर गठबंधन होता हो तो रालोद को कम ही सीटों पर संतोष करना पड़ेगा.

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