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#AYODHYAVERDICT : अयोध्या के 135 साल पुराने विवाद का हुआ पटाक्षेप, जानें पूरा इतिहास

मिथिलेश झा रांची : एक बार तो विवादित स्थल पर मंदिर और मस्जिद का विवाद हल हो गया था. संभवतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गेनाईजर’ में इससे संबंधित रिपोर्ट भी छप गयी थी. इसमें कहा गया था कि नृत्यगोपाल दास की अध्यक्षता में रामचंद्रदास परमहंस के दिगंबर अखाड़ा में दोनों पक्षों की […]

मिथिलेश झा

रांची : एक बार तो विवादित स्थल पर मंदिर और मस्जिद का विवाद हल हो गया था. संभवतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गेनाईजर’ में इससे संबंधित रिपोर्ट भी छप गयी थी. इसमें कहा गया था कि नृत्यगोपाल दास की अध्यक्षता में रामचंद्रदास परमहंस के दिगंबर अखाड़ा में दोनों पक्षों की बैठक में समाधान का फाॅर्मूला बना. सहमति बनी कि विवादित ढांचे को चारों ओर से ऊंची-ऊंची दीवारों से घेर दिया जाये और उससे सटे राम चबूतरे पर भगवान राम की मंदिर का निर्माण किया जाये.

मुस्लिम पक्ष ने कह यहां तक कह दिया था कि वह यह भी नहीं पूछेगा कि जिन ऊंची दीवारों से ढांचे को घेरा जा रहा है, उनमें दरवाजा किधर है. उसकी शर्त इतनी भर थी कि हिंदुओं की ओर से यह दावा भी नहीं किया जायेगा कि उनकी विजय हो गयी है या उन्होंने विवादित ढांचे पर कब्जा पा लिया है. तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ और परमहंस रामचंद्र दास के साथ जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल और दाऊदयाल खन्ना जैसे हिंदू नेता तो इससे सहमत थे ही, सैयद शहाबुद्दीन, सलाउद्दीन ओवैसी, सीएच मोहम्मद कोया और इब्राहीम सुलेमान सेठ जैसे मुस्लिम नेता भी इस विचार से इत्तेफाक रखते थे.

मुस्लिम नेताओं का मानना था कि सुलह समझौते के आधार पर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होना स्वयं मुसलमानों के हित में है. इससे उन्हें देश की मुख्यधारा में बने रहने और अलग-थलग पड़ने के खतरे से निबटने में मदद मिलेगी. तब विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता अशोक सिंघल ने भी इसका स्वागत किया था. बाद में कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए कि मामले ने अलग रूप ले लिया और उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास में दर्ज हो गया. ऐसी भी स्थिति आयी कि भूमि के छोटे से टुकड़े के विवाद को आस्थाओं के विकट टकरावों का विवाद बना दिया गया. वही लोग, जो विवाद को अदालत में ले गये थे, कहने लगे कि कोई भी अदालत इस मामले का फैसला नहीं कर सकती.

मंदिर और मस्जिद के अस्तित्व का ऐतिहासिक संदर्भ

इतिहास में एक संदर्भ है, जिसमें कहा गया है कि भारत के पहले मुगल सम्राट बाबर के कहने पर सन 1527 में अयोध्या के राम कोर्ट क्षेत्र में एक मस्जिद का निर्माण कराया गया. बाबर के सेनापति मीर बाकी ने इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद रखा. इससे पहले 1940 के दशक तक इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्म स्थान कहा जाता था. दूसरी तरफ, हिंदू धर्म से जुड़े लोग इसे भगवान राम की जन्मभूमि मानते हैं. धार्मिक नगरी अयोध्या में इस मस्जिद के अलावा सैकड़ों मस्जिद हैं, जहां मुस्लिम नमाज अदा करते हैं. लेकिन, बाबरी मस्जिद को लेकर मुस्लिम समाज के लोगों में उस दौर में उतनी संजीदगी नहीं थी. यही वजह है कि यहां अन्य मस्जिदों की तरह नमाज नहीं पढ़ी जाती थी.

1853 में शुरू हुआ विवाद

राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का विवाद पहली बार वर्ष 1853 में शुरू हुआ. उस समय हिंदुअों ने आरोप लगाया कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर यहां मस्जिद का निर्माण कराया गया. इसके बाद पहली बार हिंदुअों और मुस्लिमों के बीच हिंसा हुई. विवाद को शांत करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1859 में तारों की एक बाड़ खड़ी कर दी. विवादित भूमि के अंदर मुस्लिमों को और बाहर हिंदुअों को प्रार्थना करने की इजाजत दी गयी.

1885 में कोर्ट पहुंचा विवाद

महंत रघुवर दास ने फैजाबाद की अदालत में बाबरी मस्जिद से सटे एक राम मंदिर के निर्माण की मांग करते हुए याचिका दायर की.

दोस्ती हो, तो रामचंद्र और हाशिम जैसी

महंथ रामचंद्र दास परमहंस वर्ष 1949 में विवादित मस्जिद में मूर्तियां रखने वाले लोगों में थे. वह राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन का मुख्य चेहरा थे. इसके बावजूद अयोध्या फैजाबाद के मुसलमानों से उनकी गहरी दोस्ती थी, जो छह दिसंबर, 1992 को भी नहीं टूटी. परमहंस और बाबरी मस्जिद के मुख्य पैरोकार हाशिम अंसारी न केवल एक-दूसरे के घर आते-जाते थे, बल्कि मुकदमे की पैरवी के लिए एक ही कार से अदालत जाते थे. बड़ी साफगोई से दोनों कहते थे कि जैसे दो वकील अदालत में एक-दूसरे के खिलाफ बहस करने के बाद बाहर एक साथ चाय पीते हैं, वैसे ही वे दोनों अपने-अपने धर्म के अनुसार मंदिर और मस्जिद के लिए मुकदमा लड़ने के बावजूद आपस में दोस्त हैं.

हिंदुअों ने पूजा शुरू कर दी और मुस्लिमों ने बंद कर दी इबादत

वर्ष 1949 में मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर कथित तौर पर 50 हिंदुअों ने भगवान राम की मूर्ति रखकर नियमित रूप से यहां पूजा शुरू कर दी. दूसरी तरफ, मुस्लिमों ने यहां इबादत करनी बंद कर दी. 1950 में गोपाल सिंह विशारद फैजाबाद कोर्ट पहुंचे. एक अपील दायर कर उन्होंने कोर्ट से रामलला की विशेष पूजा-अर्चना की विशेष इजाजत देने की मांग की. इसी साल महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदुअों की प्रार्थना जारी रखने और बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति रखने के लिए मुकदमा किया. उन्होंने मस्जिद को ‘ढांचा’ करार दिया. इसके 9 साल बाद 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल हस्तांतरित करने के लिए कोर्ट की शरण ली. 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने खुद को एक पक्ष के रूप में पेश करते हुए बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर कर दिया.

इंदिरा गांधी भी चाहती थीं कि राम मंदिर बने?

ऐसा माना जाता है कि 1977 में मिली करारी हार के बाद से इंदिरा गांधी को मुस्लिमों के राजनीतिक समर्थन का भरोसा कम रह गया था. उनका कुछ झुकाव हिंदू समुदाय की तरफ हो चला था. कई लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा विवादित परिसर से सटी जमीन के राम-कथा पार्क बनाने के लिए अधिग्रहण को इंदिरा गांधी का आशीर्वाद रहा होगा.

वर्ष 1984 में बनी राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महामंत्री दाऊ दयाल खन्ना कांग्रेस के नेता थे और अध्यक्ष महंथ अवैद्यनाथ हिंदू महासभा के. 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन कुछ दिनों के लिए थम गया. दो साल बाद एक फरवरी, 1986 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार की सहमति से फैजाबाद के जिला जज केएम पांडेय ने विवादित परिसर का ताला खुलवा दिया. दूरदर्शन पर खबरें दिखायी गयीं कि अब हिंदू समुदाय के लोग मस्जिद के अंदर बने मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा कर सकते हैं.

1984 तक अयोध्या के लोगों को नहीं थी मंदिर-मस्जिद में दिलचस्पी

वर्ष 1984 में विश्व हिंदू परिषद द्वारा तालों में बंद भगवान राम की मुक्ति के नारे पर बिहार के मिथिलांचल में स्थित मां जानकी की जन्मस्थली सीतामढ़ी से अयोध्या तक रथ-यात्रा से पहले इस विवाद में अयोध्यावासियों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. वे इससे आम भूमि विवादों जैसा ही सलूक कर रहे थे. लेकिन, 1986 में विवादित ढांचे का ताला खोले जाने के बाद जैसे ही विवाद के नासूर बनने के आसार बढ़ते दिखे, अयोध्या और उसके जुड़वां शहर फैजाबाद के नागरिक इसके शांतिपूर्ण समाधान के लिए सक्रिय हो गये. उन्हें मालूम था कि विवाद जितना बढ़ेगा, उनकी छाती पर उतनी ही मूंग दली जायेगी. तब उन्होंने अदालत के बाहर विवाद के सर्वमान्य समाधान के लिए स्थानीय लोगों की अयोध्या गौरव समिति बनायी, जिसके अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास और सचिव स्थानीय दैनिक ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिंह थे. समिति में फैजाबाद के पूर्व सांसद निर्मल खत्री व अयोध्या के पूर्व नरेश विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्र समेत लगभग सारे प्रमुख साधु-संत शामिल थे. इनकी कोशिश थी कि विवाद का ऐसा हल निकले कि न सांप मरे, न लाठी टूटे. लेकिन, ऐसा हो नहीं सका.

कांग्रेस सरकार ने विवादित परिसर में कराया मंदिर का शिलान्यास

वर्ष 1989 का आम चुनाव एक नया मोड़ लेकर आया. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राम राज्य के नारे के साथ फैजाबाद से अपना चुनाव अभियान शुरू किया. अब तक सरकार की पहल पर विवादित स्थल के मालिकाना हक के मामले को हाईकोर्ट ने अपने पास मंगाकर मौके पर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था. लेकिन, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के दबाव पर कांग्रेस सरकार ने चुनाव से ठीक पहले नवंबर, 1989 में मस्जिद से करीब पौने दो सौ फुट की दूरी पर मंदिर का शिलान्यास करा दिया. माना जाता है कि राजीव गांधी ने संत देवराहा बाबा की सलाह पर शिलान्यास की अनुमति दिलवायी थी. उम्मीद यह थी कि इससे काशी और मथुरा की तरह मंदिर और मस्जिद अगल-बगल बनने का रास्ता खुल जायेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका.

1989 में राजीव सरकार ने दी शिलान्यास की इजाजत

विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने बाबरी मस्जिद का ताला खोलने और राम जन्मस्थल को स्वतंत्र कराकर वहां विशाल मंदिर के निर्माण के संकल्प के साथ एक अभियान शुरू किया. इसके लिए एक समिति बनायी गयी. 1986 में फैजाबाद के जिला जज ने विवादित स्थल पर हिंदुअों को पूजा करने की इजाजत दे दी. ताले खोल दिये गये. इससे मुस्लिम वर्ग नाराज हो गया. जवाब में मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन कर लिया. उधर, विहिप के आंदोलन को भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दे दिया, जिससे राम मंदिर की मांग आंदोलन में तब्दील हो गयी. 1989 में रामलला विराजमान नाम से पांचवां मुकदमा दायर किया गया. 9 नवंबर, 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी मस्जिद के पास मंदिर के शिलान्यास की इजाजत दे दी.

आडवाणी की सोमनाथ यात्रा ने विवाद को दी हवा और ढह गया ढांचा

भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सितंबर, 1990 में गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली. आडवाणी की रथ यात्रा के बाद सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी. कई जगह दंगे हुए. अक्टूबर-नवंबर, 1990 में बिहार की लालू प्रसाद सरकार के आदेश पर समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया. इसकी तत्काल प्रतिक्रिया नयी दिल्ली में हुई. भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और केंद्र की सरकार गिर गयी. वामदलों और भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहे प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस्तीफा देना पड़ा.

वर्ष 1991 के अक्टूबर में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार ने बाबरी मस्जिद के आसपास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया. राम मंदिर बनाने के लिए देश भर में भाजपा और विहिप ने अभियान चलाया. चंदा जुटाये गये. 6 दिसंबर, 1992 को हजारों कारसेवक अयोध्या पहुंच गये. उत्साही कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढाह दिया. इसके बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे फैल गये. जल्दबाजी में अस्थायी राम मंदिर बनाया गया. प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा किया. तब से दोनों पक्षों के बीच तलवारें खिंची थीं.

लाठी चला रहे पुलिस वालों के पैर छूकर क्या कहते थे कारचालक

ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (बीबीसी) के एक पत्रकार लिखा है कि 30 अक्टूबर, 1990 के वह दृश्य अब भी आंखों में घूम जाते हैं, जब सरयू पुल पर तैनात पुलिस बल इस पार गोंडा बस्ती की तरफ से आने वाले कारसेवकों को रोकने के लिए लाठियां चला रहे थे. कारसेवक उन सिपाहियों के पैर छूकर कहते थे कि हम तो जन्मभूमि तक कारसेवा करने जायेंगे. उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे. दोनों नेताओं में खुद को मुस्लिम हितैषी साबित करने की होड़ थी. इनके बयानों से हिंदुओं का बड़ा तबका नाराज हो गया और विश्व हिंदू परिषद ने इसका फायदा उठाया. कानून तोड़ने वाली भीड़ अगर निहत्थी हो और उस पर धार्मिक जुनून सवार हो, तो पुलिस और मजिस्ट्रेट का काम कितना मुश्किल हो जाता है, यह बात 30 अक्टूबर, 1990 को समझ आयी. पत्रकार ने लिखा है कि तमाम पुलिस बल और मजिस्ट्रेटों को पीछे धकेल कुछ कारसेवकों ने उस दिन विवादित मस्जिद पर चढ़कर झंडा फहरा दिया था. हालांकि, पुलिस ने मस्जिद को क्षतिग्रस्त होने से बचा लिया था.

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