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प्रभात खबर जमशेदपुर संस्करण की 25वीं वर्षगांठ : झारखंड और जंगल आंदोलन को इस अखबार ने दी विशेष पहचान – बहादुर उरांव

25th Anniversary of Prabhat Khabar : प्रभात खबर का स्लोगन ‘अखबार नहीं आंदोलन’ बिल्कुल वैसा ही सच है, जैसा अखबार काम करता है. इस स्लोगन को अगर अंक देने की बारी आये तो मैं वह अंक दूंगा, जिसके बाद कोई अंक बाकी ही न रहे. यह बातें मैं केवल कह नहीं रहा हूं, बल्कि अखबार ने इसी प्रमाणित भी किया है. प्रभात खबर के 25 सालों के सफर में ऐसे कई अवसर आये हैं, जिन्हें प्रमाण के तौर पर पेश किया जा सकता है, लेकिन मैं केवल झारखंड और जंगल आंदोलन का जिक्र प्रमाण के लिए पेश करना चाहूंगा. यह कहना है झारखंड आंदोलनकारी सह पूर्व विधायक बहादुर उरांव का.

25th Anniversary of Prabhat Khabar : चक्रधरपुर (शीन अनवर) : प्रभात खबर का स्लोगन ‘अखबार नहीं आंदोलन’ बिल्कुल वैसा ही सच है, जैसा अखबार काम करता है. इस स्लोगन को अगर अंक देने की बारी आये तो मैं वह अंक दूंगा, जिसके बाद कोई अंक बाकी ही न रहे. यह बातें मैं केवल कह नहीं रहा हूं, बल्कि अखबार ने इसी प्रमाणित भी किया है. प्रभात खबर के 25 सालों के सफर में ऐसे कई अवसर आये हैं, जिन्हें प्रमाण के तौर पर पेश किया जा सकता है, लेकिन मैं केवल झारखंड और जंगल आंदोलन का जिक्र प्रमाण के लिए पेश करना चाहूंगा. यह कहना है झारखंड आंदोलनकारी सह पूर्व विधायक बहादुर उरांव का.

पूर्व विधायक श्री उरांव ने कहा कि 8 सितंबर, 1995 को प्रभात खबर का जमशेदपुर संस्करण शुरू हुआ था. उससे 15 साल पहले गुवा गोली कांड हो चुका था. जिसमें दर्जनों आदिवासियों की जानें चली गईं थीं. यह हादसा जालियांवाला बाग से कम नहीं था. लेकिन, प्रभात खबर से पहले किसी अखबार ने इस गोली कांड को कभी अखबार की सुखिर्यों में प्राथमिकता से जगह नहीं दिया था.

प्रभात खबर ने पहले दिन ही गुवा गोली कांड को अपना खबर बनाया. गुवा गोली कांड के शहीद, आंदोलन में जीवित बचे लोग, जुलूस में शामिल होने वाले मासूम आदिवासियों की कहीं कोई खोज खबर नहीं थी. प्रभात खबर ने एक-एक शख्स को तलाश कर निकाला और उन्हें पहचान दी.

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इस आंदोलन में मैंने अपने 2 मासूम जुड़वां बच्चों को खो दिया था. पुलिस के खौफ से मैं इधर से उधर फरारी काट रहा था. गुवा गोली कांड के दिन मेरी पत्नी गर्भ से थी. मेरे फरारी के दौरान ही मेरी पत्नी ने 2 मासूम बच्चों को जन्म दी, लेकिन देखरेख और इलाज के अभाव में दोनों की जान चली गयी. पुलिस मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकी थी, तो मेरे घर की कुर्की जब्ती कर ली गयी थी. बिस्तर तक ले गयी, जिस कारण जुड़वां बच्चों को मेरी पत्नी जमीन पर सुलाती थी, जिससे मेरे दोनों बेटों की मौत हो गयी थी. मेरी इतनी बड़ी कुर्बानी को कभी किसी ने नहीं सराहा था. लेकिन, प्रभात खबर ने इसे 8 सितंबर, 2004 के अंक में कवर स्टोरी बनाया, जिससे मेरा और मेरे परिवार के बलिदान की गाथा भी झारखंड आंदोलन से जुड़ गयी.

मैं जमशेदपुर संस्करण के संपादक अनुज बाबू (अनुज कुमार सिन्हा) का जिक्र करना चाहूंगा. जिन्होंने गुवा गोलीकांड के एक-एक शहीदों, उसके परिवार के सदस्यों, हर किसी के गांव तक को खोज निकाला. मैं और मेरे साथ भुवनेश्वर महतो, अनुज बाबू के साथ गांव-गांव जाते थे. उनका जुनून ही था, जिसने अखबार को आंदोलन का रूप दिया था. मैं जब फरारी काट रहा था, तो जोजोगुटु गांव में पनाह लिया था. वहां मेरे साथी ने मेरी जान बचायी थी. अनुज बाबू की मदद से ही उस साथी को खोज निकाला था.

प्रभात खबर आने से पहले हम आंदोनकारी साथी सिंहभूमी एकता नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका निकाला करते थे. जिसमें आंदोलन से जुड़ी खबरें छापा करते थे. लेकिन, प्रभात खबर ने आंदोलन की खबरें छाप-छाप कर झारखंड और जंगल आंदोलन को सुर्खियों में ला दिया. वर्ष1978 से 1985 के बीच हुए आंदोलन, गोली कांड, शहादतों को बारी- बारी से प्रभात खबर ने अपने अखबार में विशेषांक बनाकर प्रकाशित किया. जिससे एक पहचान मिली. जितने भी साथी शहीद हुए और शहीद परिवारों को आज तक सम्मान मिला वह प्रभात खबर की ही देन है. झारखंड और जंगल आंदोलन को इतिहास में जो मुकाम मिला वह प्रभात खबर की देन है. आंदोलन के दौरान हुए गोली कांडों को लोग आज जानते-पहचानते हैं, वह सब प्रभात खबर की ही देन है.

इसके साथी ही इस अखबार ने हमेशा बेबाकी से अपनी खबरों को प्राथमिकता दिया है. नक्सली वारदात हो, सामाजिक बुराईयां हो, गबन या लूट का मामला हो, राजनेताओं की गलतियां हो या फिर सरकारी राजस्व की बंदरबांट का मामला हो, पुलिसिया जुल्म हो या फिर भ्रष्टाचार की गंगोत्री को खोज निकालने का मामला हो या हो स्थानीय समस्याओं का निराकरण का मुद्दा, सभी मामलों में हमने प्रभात खबर को प्रखर रूप अपनाते देखा है अर्थात अखबार नहीं आंदोलन पर काम करते देखा है.

Posted By : Samir Ranjan.

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