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न सत्ता का प्रलोभन और न ही रिश्वत जिन्हें कर सकी खामोश
जन राजनीति के प्रखर प्रणेता कामरेड महेंद्र सिंह की पुण्यतिथि आज अनिल अंशुमन हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका को नीति निर्धारण का सर्वोच्च मंच माना गया है. जननायक कामरेड महेंद्र सिंह को विधायिका के नियमों, परंपराओं और प्रक्रियाओं की गहरी समझ रखनेवाला माना जाता था. इसलिए जब भी वे विधानसभा में अपनी बात रखते थे, […]
जन राजनीति के प्रखर प्रणेता कामरेड महेंद्र सिंह की पुण्यतिथि आज
अनिल अंशुमन
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका को नीति निर्धारण का सर्वोच्च मंच माना गया है. जननायक कामरेड महेंद्र सिंह को विधायिका के नियमों, परंपराओं और प्रक्रियाओं की गहरी समझ रखनेवाला माना जाता था. इसलिए जब भी वे विधानसभा में अपनी बात रखते थे, तो पूरा सदन ध्यानपूर्वक सुनता था.
जिस गंभीरता और जिम्मेवारी के साथ वे सड़कों के आंदोलनों में जनहित के सवालों को अपना कार्यभार बना कर उतरते थे, उसी तरह सदन में भी पूरी तैयारी और अनुशासन से उन सवालों को पटल पर रख कर सरकार को संज्ञान लेने व उसके निष्पादन हेतु सक्रिय करते थे अथवा बेनकाब करते थे.
यह विडंबना है कि आमजन में एक आदर्श जनप्रतिनिधि के रूप में लोकप्रिय कामरेड महेंद्र जी को झारखंड की सरकारों ने कभी किसी सम्मान लायक नहीं समझा. वैसे इस प्रदेश में जैसी सरकारें रही हैं, महेंद्र जी सबके मुखर आलोचक ही रहे. इसकी मूल वजह रही उनकी दृढ़ जनपक्षधरता, जिसके लिए उन्होंने न कभी कोई समझौता किया और न ही उससे जीवन पर्यंत कभी पीछे हटे. जनता के लिए जवाबदेह राजनीति करने को अपना सर्व प्रधान कार्य बना कर उन्होंने जिस तत्परता के साथ कार्य किया, वह अपने आप में एक मिसाल है. तमाम शोषक ताकतों ने मिल कर सुनियोजित साजिश के तहत उनकी हत्या करवा दी.
सन 80-90 के दशक में जनराजनीति के तहत ही चुनाव बहिष्कार की राजनीति से उन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत की, लेकिन आगे चलकर ग्रामीण गरीबों, मध्यवर्ती हिस्सों और आम जन की स्वतंत्र राजनैतिक दावेदारी को और अधिक व्यापक व मजबूत बनाने के लिए चुनाव को भी संघर्ष का रास्ता बनाया. सन 1985 में आंदोलन के क्रम में फर्जी मुकदमे के तहत उन्हें जेल भेज दिया गया. पहली बार वे जेल से ही चुनाव लड़े, मगर हार गये.
इसके बाद जनता और उसके सवालों से जुड़ाव को मजबूत व धारदार बनाते हुए 1990 आते-आते उन्होंने पूरा परिदृश्य बदल दिया और फिर कभी चुनाव नहीं हारे. वे इंडियन पीपुल्स फ्रंट के सात सदस्यीय विधायक दल के नेता बने. अपने विधानसभा क्षेत्र बगोदर के मतदाताओं समेत व्यापक जनता से अटूट वफादारी और सत्ता राजनीति के भ्रमों और प्रलोभनों को शिकस्त देने की दृढ़ता ने सदैव उनकी सक्रियता व तेवर को ऊंचा रखा.
जनप्रतिनिधियों के चरित्र व जवाबदेह भूमिका से लेकर आदर्श चुनाव के सुधारों पर इन दिनों काफी चर्चा हो रही है, तो सुप्रीम कोर्ट भी कुछेक दिशा-निर्देश दे रहा है, लेकिन मर्ज बढ़ता ही जा रहा है.
जनप्रतिनिधि राज्य की जनता के ही खजाने के पैसे को दान-दक्षिणा की तरह खर्च करके मतदाताओं पर एहसान जताते हुए अपनी लोकप्रियता बढ़ाते हैं. महेंद्र जी ने जल्द ही इस खेल को भांप लिया और इस राजनीति को चुनौती देने के लिए रोज नये सृजनात्मक तरीकों से लोकप्रिय जनगोलबंदी से जनता को सक्रिय बनाने लगे. यही वजह रही कि वर्तमान चुनावी दंगल में जहां जनता से सरकार बनाने के के लिए वोट मांगे जाते हैं, वहीं महेंद्र जी को जनता ने विपक्ष के लिए हमेशा जिताया. अपने आखिरी जन संबोधन में भी उन्होंने पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ कहा था- वोट आपका अपना है, सोच-समझ कर ही दें. मैं आपको कुछ देने का वायदा तो नहीं करूंगा, लेकिन इसकी गारंटी दूंगा कि आपसे कभी गद्दारी नहीं करूंगा. आज महेंद्र सिंह सदेह रूप से भले ही नहीं हैं, लेकिन जन राजनीति के वे सवाल अब भी कायम हैं, जिन्हें न किसी सत्ता का प्रलोभन व रिश्वत प्रायोजित कर सका और न ही गोलियां खामोश. !
झारखंड जन संस्कृति मंच से जुड़े व माले नेता
संसदीय मर्यादा, आचरण और महेंद्र सिंह
आनंद मोहन
राज्य गठन के बाद झारखंड की राजनीति ने कई रंग देखे. सड़क से लेकर सदन तक सौदेबाजी की राजनीति भी देखी़ सदन के अंदर अपने रहनुमाओं का आचरण व जनपक्षीय राजनीति का चेहरा भी देखी. विधानसभा के पिछले दो सत्र सबको याद होंगे़ मॉनसून और शीतकालीन सत्र में घंटे भर भी सदन नहीं चला़ पक्ष-विपक्ष में किसकी हठधर्मिता रही, यह पड़ताल और विश्लेषण का विषय है. इस सबके बीच जनता के सरोकार पीछे छूटते चले गये़ कामरेड महेंद्र सिंह की भूमिका ऐसी परिस्थितियों में याद आती है़ विधानसभा के कोने से वो ईमानदारी की खनक भरी आवाज की कमी सबको खलती है़ बेबाक महेंद्र दगा व फरेब किस्म की राजनीति कौन कर रहा है, नहीं देखते थे़ पक्ष हो या विपक्ष उनकी तराजू एक थी.
जनता के सामने ना तो स्वांग और ना ही सदन के अंदर लफ्फाजी़ विधानसभा में जब आज संसदीय मर्यादा, अनुशासन और अाचरण पर सवाल उठते हैं, तो महेंद्र सिंह की भूमिका प्रासंगिक हो जाती है़ विधानसभा के अंदर महेंद्र सिंह को जब कभी बोलने का मौका मिलता, तो एक सेकेंड भी वे बरबाद नहीं करते थे़ तथ्यहीन बातें नहीं करते थे. वे न तो कानून के जानकार थे और न ही विधायी प्रक्रिया के पंडित, लेकिन विधानसभा में तौल कर बोलते थे. तर्क में दम होता था. हो-हल्ला, हंगामा, तमाशा को उन्होंने कभी भी अपना विधायी हथियार नहीं बनाया था़ आज विधानसभा में कुर्सियां फेंकी जा रही हैं. स्पीकर पर स्प्रे उड़ाये जाते है़ बिना आधार व प्रमाण के बातें रखी जाती है़
विधानसभा में पिछले दो सत्र में हंगामा होता रहा़ विपक्ष ने खूब तमाशा किया, सरकार देखती रही़ महेंद्र सिंह अपने दक्ष विधायी कार्य से सवालों को समाधान तक ले जाते थे़ कार्यपालिका को कटघरे में खड़ा करते थे़ कार्यपालिका को भय रहता था, उसकी गलतियों को समझने-परखने वाले लोग विधानसभा में बैठे है़ं महेंद्र औरों से अलग थे़ उनकी राजनीति अलग थी़ दमखम व जनता के प्रति निष्ठा व ईमानदारी की राजनीति करते थे़ विपक्ष की प्रखर आवाज सिर्फ इसलिए बने रहे कि कभी राजनीति की मंडी में खड़े होकर सौदेबाजी नहीं की़
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