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पशु सखी बन कर सीमा ने धन के साथ इज्जत भी कमायी

विकास कुमार रांची के अनगड़ा प्रखंड के नावागढ़ गांव की सीमा मुंडा चार बच्चों के साथ किसी तरह जीवन बसर कर रही थीं. उनका परिवार गरीबी के बोझ तले दबा था. दाने-दाने को मोहताज था. एक दिन सीमा ने गरीबी को हराने की ठानी. वर्ष 2013 में उन्हें नावागढ़ गांव में आजीविका मिशन के तहत […]

विकास कुमार
रांची के अनगड़ा प्रखंड के नावागढ़ गांव की सीमा मुंडा चार बच्चों के साथ किसी तरह जीवन बसर कर रही थीं. उनका परिवार गरीबी के बोझ तले दबा था. दाने-दाने को मोहताज था. एक दिन सीमा ने गरीबी को हराने की ठानी. वर्ष 2013 में उन्हें नावागढ़ गांव में आजीविका मिशन के तहत स्वयं सहायता समूह के गठन की जानकारी मिली. उन दिनों सीमा की बड़ी बेटी ब्रेन ट्यूबरक्लोसिस (ब्रेन टीबी) की बीमारी से जूझ रही थी. बेटी के इलाज के लिए उसे पैसे चाहिए थे. उसने लोगों से मदद मांगी, उनकी मिन्नतें कीं, उनके सामने हाथ फैलाये, लेकिन कोई मदद के लिए आगे नहीं आया. ऐसे वक्त में सीमा ने स्वयं सहायता समूह से जुड़ कर अपनी जिंदगी को संवारने की ठानी. श्री गणेश महिला समूह से जुड़ी.
शुरू में छोटे-छोटे कर्ज लेकर अपनी रोजाना की जरूरतों को पूरा किया.
सीमा बताती हैं कि अगर समूह न होता, तो आज उनकी बड़ी बेटी जिंदा न होती. महाजन ने जब 10 रुपये देने से इनकार कर दिये थे, तब समूह ने 20 हजार रुपये दिये. इसी रुपये से उसने अपनी बेटी का इलाज कराया. इसके बाद उसकी जिंदगी में जितनी भी बाधाएं आयीं, उसने सबका डट कर सामना किया. इसी दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत स्वयं सहायता समूह के माध्यम से सीमा का चयन पशु सखी के रूप में हुआ. सीमा को कई चरणों का प्रशिक्षण दिया गया.
पहले चार दिवसीय प्रशिक्षण में बकरी को होनेवाली बीमारियों, उनके लक्षण और बचाव के बारे में बताया गया. प्रशिक्षण के दौरान छोटी-छोटी बीमारियों से बकरी को बचाने की जानकारी, दवा संबंधी प्रशिक्षण के साथ इलाज के बारे में भी बताया गया. कुछ महीनों के बाद रिफ्रेशर कोर्स कराया गया. राज्य वेटनरी विभाग की तरफ से झारखंड में चल रही योजनाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया, ताकि पशु सखी योजनाओं की जानकारी हर जरूरतमंद तक पहुंचाये. इन सारे प्रशिक्षणों से गुजरने के बाद सीमा को पशु सखी का प्रमाण पत्र मिल गया.
सीमा ने गांव में इटी, पीपीआर व डीवार्मिंग जैसी जरूरी सेवाएं न्यूनतम खर्च पर उपलब्ध करा दी. गांव में कैल्शियम, बकरी आहार, दाना का निर्माण, मेमना जैसे नये प्रयोग भी शुरू करवाये. सीमा कहती हैं कि दवा का नाम पहचान लेना उनके लिए किसी जादू से कम नहीं था. आज गांव में उनकी इज्जत है. लोग कहते हैं कि सीमा अच्छा इलाज करती हैं. अब बकरी बीमार होने पर लोग उन्हें बुलाते ही नहीं, आदर-सत्कार भी देते हैं. हर बकरी के इलाज के लिए उन्हें 10 रुपये फीस मिलती है.
महाजन के चंगुल में नहीं फंसते लोग
सीमा बताती हैं कि आज मेरी अपनी पहचान है, गांव के लोग मुझे पशु सखी के रूप में जानते हैं, मैं पशु सखी के रूप में काम करके अपना घर भी चला रही हूं, मेरे काम शुरू करने के बाद मेरे गांव में अब बकरियां नहीं के बराबर मरती है.
सीमा आगे बताती है कि मैने कई परिवारों को कर्ज लेकर बकरी खरीदते देखा है और फिर उनकी बकरियां मर जाती थी और परिवार महाजन के चंगुल में फंस जाते थे लेकिन अब यहां बकरियां नहीं मरती. नावागढ़ गांव की महिला सुखमती केरकेट्टा बताती हैं कि गांव की महिलाएं समूह से कर्ज लेकर बकरी खरीदती हैं और मनरेगा से बकरी शेड मिला है. पशु सखी के आ जाने से बकरियां नहीं मरतीं.
पशु सखी दीदी ने बहुत कुछ सिखाया है. पहले गांव की महिलाएं बकरी का खाना जमीन पर रख देती थीं, लेकिन अब उन्हें खिलाने के लिए चारा स्टैंड बनाया है. पशु सखी सीमा बताती हैं कि आज वह पशु सखी के रूप में काम करके गांव के गरीबों की मदद तो कर ही रही हैं, अपने परिवार का भरण-पोषण भी कर रही हैं. पशु सखी बनने के बाद गांव में उनकी इज्जत भी बढ़ गयी है.

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