आदिवासी संस्कृति की संपन्नता दिखाना चाहते थे डॉ मुंडा : हेजल- रांची का सरहुल देखने 30 वर्षों के बाद आयी हैं अमेरिका की हेजल एन्न लुत्ज …………….फोटो – रांची में अपनी मित्र नलिनी नाग के साथ पुरानी यादों को ताजा करते हुएमनोज लकड़ा @ रांचीएचइसी में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था, जिसमें एक अमेरिकन संगीतकार भी आये थे. यह 1981- 1982 की बात है. डॉ रामदयाल मुंडा उन्हें आदिवासी संगीत के बारे में बताना चाहते थे, इसलिए वह अपनी टीम को लेकर उनसे मिलने मेन रोड के उस होटल में गये, जहां वह संगीतकार रुके थे. डॉ मुंडा की इस टीम में मिनियापोलिस, मिनिसोटा अमेरिका की हेजल एन्न लुत्ज भी शामिल थीं. जब यह टीम उस होटल में ढोल- नगाड़े बजा रही थी, तब उस अमेरिकी के स्वागत में जुटे रांची के ही लोग उन्हें बता रहे थे कि यह बेकार और निम्न दर्जे का संगीत है. उन दिनों में रांची के शहरी लोग आदिवासियों के संगीत को हेय समझते थे. उनकी बातें सुन हेजल को अच्छा नहीं लगा था. वह सोच रही थीं कि शायद इन शहरियों को पता नहीं था कि अमेरिकी पारंपरिक संगीत पसंद करते हैं. उन्हें नयी चीजें देखना- सुनना अच्छा लगता है. वे सांस्कृतिक भिन्नता का सम्मान करते हैं. लगभग 30 सालों बाद सरहुल शोभायात्रा देखने रांची की आयी हेजल उन दिनों की यादें ताजा करती हैं. बताती हैं कि रांची विवि में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग शुरू हो चुका था. डॉ रामदयाल मुंडा के सरना टोली वाले घर का निर्माण चल रहा था. इसके लिए उनके पुश्तैनी गांव दिउड़ी से कुछ लोग आये थे, जो उनके साथ ही रहते थे. डॉ मुंडा चाहते थे कि एक ऐसा सरहुल जुलूस निकाला जाये ,जिसमें आदिवासियों के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की झलक दिखे. दूसरों को उसका दमखम नजर आये़ आदिवासियों को भी गर्व हो. डॉ मुंडा ने स्वयं अपने पिता से पारंपरिक गीत और अपने दादा से ढोल- नगाड़ा बजाना सीखा था. उस साल तड़के पांच- साढ़े पांच बजे वह जुलूस ढोल- नगाड़े बजाता, डॉ मुंडा के नेतृत्व में उनके घर के परिसर से मेन रोड होते हुए जिला स्कूल तक गया था, जिसमें उनके गांव और जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के 25- 30 लोग नाचते- गाते शामिल हुए. अपनी परंपराओं से दूर हो रहे थे शहरी आदिवासीहेजल कहती हैं कि उस दौर में यह एक साहसिक कदम था, क्योंकि शहरी मुख्यधारा इसे हेय समझता था़. कई आदिवासी भी अपने पारंपरिक गीत- संगीत से कट रहे थे. इस क्रम में उन्होंने एक रोचक प्रसंग बताया़ जब 1971 में वह रांची विवि के एंथ्रोपोलॉजी विभाग से जुड़ीं, तब विभाग में दो आदिवासी छात्र, पांच छात्राएं और कुछ अन्य छात्र थे़. जब भी वह उन आदिवासी छात्रों से कोई पारंपरिक गीत सुनाने के लिए कहती थीं, तब उन्हें शर्म आती थी और वे भाग जाते थे. आदिवासी अस्मिता के प्रति हमेशा सजग रहे डॉ मुंडाहेजल ने बताया कि डॉ रामदयाल मुंडा 1960 के शुरूआती दौर में अमेरिका गये थे़ उन दिनों अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग के संघर्षों पर चर्चा का दौर तेज था. 1968 में उनकी डॉ मुंडा से मुलाकात हुई. डॉ मुंडा दमन के शिकार समूह के सदस्य थे. डॉ मुंडा शुरू से आदिवासी अस्मिता, उनके अधिकारों के सवाल पर सजग थे़. हेजल को भी आदिवासी संस्कृति में रूची थी़ इसलिए जब वह झारखंड आयीं, तब दिउड़ी में रहते हुए सामान्य ग्रामीण आदिवासी महिला की तरह साड़ी पहनना, कुएं से पानी खींचना, बिना बिजली के साथ रहना जैसी बातें सीख ली. हिंदी भी सीखी.काफी बदल गयी है रांचीहेजल ने कहा कि अब रांची काफी बदल गयी है़. हवाई जहाज से ही नजर आ गया कि हरियाली काफी कम हुई है. गरमी बढ़ गयी है़. सोशल साइट्स मे देखा है कि अब सरहुल शोभायात्रा ने काफी भव्य रूप ले लिया है़. एक बात की टीस है़. जब मेनरोड में घूमने के लिए निकली थी, तब काफी कम आदिवासी नजर आये़. दुकानें भी उनकी नहीं हैं, हां रिक्शा चालकों के रूप में जरूर दिखे़.उनकी संस्कृति से काफी मिलती है आदिवासी संस्कृतिवह कहती हैं कि अमेरिकी और आदिवासी संस्कृतियों में कई समानताएं हैं. दोनों शारीरिक श्रम को हीनता की दृष्टि से नहीं देखते. यदि पति- पत्नी में नहीं बनती, तो अलग होना गलत नहीं समझा जाता. अतिथियों के स्वागत में थोड़े नशापान की इजाजत है़. महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, जो प्रगतिशील विचारधारा है.
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आदिवासी संस्कृति की संपन्नता दिखाना चाहते थे डॉ मुंडा : हेजल
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