खत्म हो रहे सखुए के जंगल, नहीं सफल हो रहा वृक्षारोपण रांची. झारखंड में सखुए का जंगल करीब-करीब सभी कोने में है. चाईबासा और जमशेदपुर के कई इलाकों में सखुए के घने-घने जंगल हैं. अब यह धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं. इसकी सरकारी कटाई तो बंद है, लेकिन अवैध रूप से काटे जा रहे हैं. इसके साथ सबसे बड़ी परेशानी है कि इसका पौधरोपण नहीं होता है. इसके पौधे तैयार नहीं हो पा रहे हैं. पौधे तैयार होने के बाद इसको बचाना मुश्किल होता है. इस कारण साल का नया जंगल तैयार नहीं हो रहा है. बीएयू के वानिकी संकाय के वैज्ञानिक डॉ एसएमएस कुली झारखंड में साल से जनजातियों की कमाई पर शोध किया है. उनके लेख अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. डॉ कुली बताते हैं कि इसके कटने के बाद नया पौधा तैयार नहीं हो पा रहा है. इसका स्थान अन्य पौधे ले लेते हैं. इस कारण इसके जंगल धीरे-धीरे कम हो रहे हैं.दो से सात दिनों में लगता है बीजडॉ कुली बताते हैं कि सखुए के बीज का लगने का समय दो से सात दिन ही है. इसके बाद इसे नहीं लगाया जा सकता है. इतने दिनों में ही जर्मीनेशन होता है. झारखंड में जहां-जहां जंगल है, वहां कटने के बाद दूसरी प्रजातियों के पौधे तैयार हो गये हैं. सबसे ज्यादा पुटूस के पौधे तैयार हो गये हैं. इस कारण साल का बीज जब गिरता है, तो पुटूस की झाड़ी में अटक जाता है. सात दिनों तक जमीन पर नहीं आने से वह नष्ट हो जाता है.कूलिंग का काम करते हैं इसके पत्तेइसके पत्ते काफी बड़े होते हैं. जून माह में सखुए के पत्ते हरे-हरे होते हैं. इस कारण जहां ज्यादा गर्मी पड़ती है, वहां के जंगलों में यह कूलिंग का काम करते हैं. ठंडी-ठंडी हवा देती है. सखुए के पत्ते के जल्दी नहीं सूखते हैं. इस कारण सखुए के पौधे में पतझड़ जैसी कोई बात नहीं होती है. वन विभाग के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक एके पांडेय भी मानते हैं कि विभाग का प्रयास है कि सखुएं का पौधा तैयार हो. इसके लिए प्रयास हो रहे हैं. अभी तक कोई ठोस सफलता नहीं मिलती है. उम्मीद है कि आगेवाले दिनों इसका असर दिखेगा.—————————
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खत्म हो रहे सखुए के जंगल, नहीं सफल हो रहा वृक्षारोपण
खत्म हो रहे सखुए के जंगल, नहीं सफल हो रहा वृक्षारोपण रांची. झारखंड में सखुए का जंगल करीब-करीब सभी कोने में है. चाईबासा और जमशेदपुर के कई इलाकों में सखुए के घने-घने जंगल हैं. अब यह धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं. इसकी सरकारी कटाई तो बंद है, लेकिन अवैध रूप से काटे जा रहे हैं. […]
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