सारंडा-पोड़ाहाट जंगल कभी माओवादियों का गढ़ हुआ करता था. सरकार दावा करती रही है कि सारंडा में विकास हो रहा है. वहां से नक्सलवाद खत्म हो गया है. माओवादी इसका खंडन करते रहे हैं. काफी प्रयास के बाद दक्षिण छोटानागपुर कमेटी (भाकपा माओवादी) के सचिव वीर सिंह मुंडा से पोड़ाहाट के जंगल में प्रभात खबर संवाददाता शैलेश सिंह ने नक्सलवाद पर बात की.
पहले वीर सिंह मुंडा का कार्यक्षेत्र बुंडू-तमाड़ था. बातचीत के दौरान जब हमारे संवाददाता ने उनसे पूछा कि कहीं आप ही तो कुंदन पाहन नहीं हैं? जवाब था- मुझेवीर सिंह मुंडा ही समझिए. बातचीत के दौरान वहां प्रसादजी समेत 15 से 20 माओवादी आधुनिक हथियारों के साथ थे. इनमें महिलाएं भी थीं. संवाददाता का कैमरा माओवादियों ने अपने कब्जे में कर लिया. खुद तसवीर ली. जाते वक्त कैमरा वापस कर दिया. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश.
सरकार दावा करती है कि सारंडा को माओवादियों से मुक्त करा लिया गया है. आप क्या कहेंगे?
यह सच है कि हम सारंडा में पीछे हटे हैं. लेकिन पूरी तरह सारंडा को छोड़ दिया है, कहना गलत है. सारंडा बहुराष्ट्रीय कंपनियों, पूंजीपति वर्गो और उनकी लुटेरी सरकार का दिल है, जिसे वह खोना नहीं चाहती है. सारंडा उनके लिए एक चुनौती होगी, लेकिन हमारे लिए मॉडल है.
आरोप है कि माओवादियों की वजह से सारंडा के लोगों और गांवों का विकास नहीं हो पाया?
हम (माओवादी) कभी भी विकास के किसी क्षेत्र में बाधक नहीं बने, न बनेंगे. ठेकेदार हमसे पूछते हैं कि आपके प्रभाव वाले क्षेत्र में हमें काम करना है, तो मैं कहता हूं-रोका किसने है. जहां तक सारंडा की बात है, वहां वर्ष 1901 से ही गांव बसे हैं. उस समय कहां था माओवाद? आजादी के बाद से सरकार ने कभी गांव और यहां बसे लोगों का विकास चाहा ही नहीं. वन विभाग ने ग्रामीणों के साथ वन उत्पाद पर लिखित समझौता किया था.
इसका भी पालन नहीं किया गया. हमारा संगठन 2001 के आखिरी महीने में यहां आया. उसके बाद से सरकार और पूंजीपति वर्ग की परेशानी बढ़ी. सारंडा में ढाई साल से जयराम रमेश आ रहे हैं. उनके कार्यो से आदिवासियों का नहीं बल्कि कुछ उद्योगों को लाभ हो रहा है. वह बतायें कि इतने दिनों में क्या विकास हुआ और कितनों को रोजगार से जोड़ा गया. सरकार कभी सारंडा का विकास नहीं करेगी, बल्कि यहां की संपदा का दोहन करेगी और आदिवासियों को जंगली बना कर रखेगी. इसके लिए माओवादी नहीं, व्यवस्था जिम्मेवार है.
सरकार आपको हथियार छोड़ वार्ता के लिए आमंत्रित करती है, आप क्यों नहीं राजी हैं?
हम सरकार से वार्ता पर तभी विचार करेंगे, जब सरकार तमाम कैंपों और उसमें रहनेवाले जवानों को हटाये, जेल में बंद लगभग पांच हजार क्रांतिकारी साथियों को बिना शर्त रिहा करे, तमाम एमओयू रद्द करे, असम के चाय बागानों में काम कर रहे झारखंड के आदिवासियों को चाय जनजाति की जगह आदिवासी का दरजा दिलवाये.
माओवादी चाहते क्या हैं और इसके लिए आपकी रणनीति क्या है?
पुलिस आप पर भारी पड़ रही है, कैसे निपटेंगे?
हमने एलआरजीएस और एसआरजीएस को भंग कर दिया है. मछली (दुश्मन) को पकड़ने के लिए फैलाये जाल को समेट पीएलए में तब्दील किया है. हमारे सेक्शन का सफाया करने के लिए दुश्मन (पुलिस) कंपनी में आ रही थी, तो हम प्लाटून में चले गये. जब वह बटालियन में आने लगी, तो हम कंपनी में आ गये. दुश्मन हमारी भीतरी पंक्ति में हमला कर रहा है. हम भी दुश्मन की भीतरी पंक्ति पर हमला करेंगे.
भगवान बिरसा की विचारधारा से सबक क्यों नहीं लेते?
भगवान बिरसा और माओवाद की विचारधारा आपस में मेल खाती है. फर्क सिर्फ इतना है कि वीर बिरसा के समय स्वत: स्फूर्त विद्रोह फूटा था और अब विचारधारा के तहत लोगों को जागरूक कर विद्रोह छेड़ा जा रहा है. बिरसा ने अंगरेजों को भगाया और हम अंगरेजों की तरह देश को लूटने और गुलाम बनाने आ रही बहुराष्ट्रीय कंपनी व उसके रहनुमाओं के खिलाफ जनयुद्ध छेड़े हुए हैं. ये कंपनियां आपस में मिल देश के जल, वायु और स्थल पर कब्जा जमाना चाहती हैं.
राजनीतिक दलों से टकराव क्यों?
हम भाजपा, कांग्रेस और झाविमो का विरोध करते हैं. इनके लोगों पर हमले होंगे. इस दल के लोग इन संगठनों को छोड़ें, क्योंकि यही दल ग्रीनहंट के जरिये दमन चला रहे हैं. ये शोषक, शासक वर्ग के सबसे बड़े दलाल हैं. पिछले दिनों संकरा जंगल में हमारे साथ हुई मुठभेड़ में सैकड़ों रॉकेट लांचर दागे गये, आसपास गांव के ग्रामीणों को पीटा, ये सारे भगवान बिरसा के अनुयायी थे.
हम अभी रक्षात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं. सरकार को लड़ाई लड़नी है, तो युद्ध की घोषणा करे, न कि ग्रीनहंट की तरह जनता पर युद्ध थोपे. सारंडा के दुश्मनों ने हथियार बनाने की हमारी फैक्टरी पकड़ ली. ऐसी फैक्टरी समय की मांग है. हम सभी क्षेत्रों में ऐसी फैक्टरी लगायेंगे.
पीएलएफआइ को लेकर आपकी रणनीति?
पीएलएफआइ को हम एक बार फिर वार्ता के लिए निमंत्रण देते हैं. वे वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से मंच पर आकर वार्ता करें न कि आपसी संघर्ष में जान गंवायें.