राम प्रवेश पांडेय, प्राचार्यसीडी बालिका उवि झुमरीतिलैयासमय के शिला पर मधुर चित्र कितने,किसी ने बनाये, किसी ने बिगाड़े।किसी ने लिखी आंसुओं की कहानी,किसी ने समझा उसे दो बूंद पानी।। इंट्रो– हमारा देश प्रगति की ओर अग्रसर है. प्रगति का आधार हमारी शिक्षा है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है. पर स्कूली शिक्षा में दोहरे मानदंड अपनाये जा रहे हैं. एक ओर निजी स्कूली में भारी-भरकम शुल्क लेकर कुछ खास बच्चों को संवारने का काम किया जा रहा है, वहीं सरकारी स्कूलों में गरीबों के बच्चे का स्कूल बना कर रह गया है. शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती हुई यह दूरी हमारे मुल्क के लिए नुकसानदेह साबित होगी. पहले जब हम स्कूलों के पढ़ते थे, सभी तबके के अभिभावकों के बच्चे वहां शिक्षार्जन करते थे. वहां किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं था. सभी बच्चे अपने परिवेश और परिस्थिति के अनुसार अपना स्थान बना पाते थे. आज हमें इस पर विचार करना होगा, कैसे सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ें? स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 67 वर्षों की यात्रा में आज हम कहां हैं? एक विचारणीय प्रश्न है. सबसे पहले हम अपने गांवों की बात करते हैं. कभी गांव की कच्ची सड़कें और उस पर उड़ती धूल हमारी विनम्रता, शालीनता, सदाशयता और सहृदयता को परिभाषित करती थी. आज गांवों में बनी सीमेंट की सड़कों में बने जहां-तहां गड्ढे विद्रूप्ता को दर्शा रहे हैं. गांवों में उठने वाली सोंधी महक गायब हो चुकी हैं, और वहां भी अब शहरों का ग्लैमर विराजने लगा है. जहां गांवों को संवारने का सपना हमारा था, वहां आज अराजकता का बोल-बाला होता जा रहा है. 21वीं सदी की जय यात्रा में हमारे गांवों को उन्नत बनाने की संकल्पना मूर्त्त रूप होता दिख रहा है, पर गांवों की संस्कृति, सहयोग और संस्कार की सुदीर्घ परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए हमें प्रतिबद्ध होना है. हमारे देश की आत्मा गांवों में धड़कती है. गांवों को सौम्य कलेवर प्रदान कर ही हम अपनी आकांक्षाओं का भारत तैयार कर सकते हैं. आज गांवों के लोग द्रूत गति से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इस पलायन का एकमात्र कारण रोजगार की अल्पता है. हम गांवों को रोजगारपरक बना कर सुंदर भारत, भव्य भारत का सपना साकार कर सकते हैं.हमारा देश प्रगति की ओर अग्रसर है. प्रगति का आधार हमारी शिक्षा है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है. पर एक बात मुझे कहनी है कि स्कूली शिक्षा में दोहरे मानदंड अपनाये जा रहे हैं. एक ओर निजी स्कूली में भारी-भरकम शुल्क लेकर कुछ खास बच्चों को संवारने का काम किया जा रहा है, वहीं सरकारी स्कूलों में गरीबों के बच्चे का स्कूल बना कर रह गया है. शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती हुई यह दूरी हमारे मुल्क के लिए नुकसानदेह साबित होगी. पहले जब हम स्कूलों के पढ़ते थे, सभी तबके के अभिभावकों के बच्चे वहां शिक्षार्जन करते थे. वहां किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं था. सभी बच्चे अपने परिवेश और परिस्थिति के अनुसार अपना स्थान बना पाते थे. आज हमें इस पर विचार करना होगा, कैसे सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ें? आज स्कूली शिक्षा महंगी और विश्वविद्यालय शिक्षा सस्ती है. तकनीकी क्षेत्र में पढ़ाई करनेवाले छात्रों में बेतहाशा वृद्धि हुई है. पर आंकड़े बताते हैं कि पढ़ने वाले 29% छात्र ही तकनीकी शिक्षा की योग्यता रखते हैं. शेष छात्रों को अभिभावकों के दबाव में व देखा-देखी में कोर्स करने की पीड़ा सालती रहती है. प्रयोगों के दौर से गुजर रही शिक्षा व्यवस्था को आज और भी मजबूत करने की जरूरत है. भारतेंदु के शब्दों में कहना है -हम क्या थे? क्या हो गये?और होंगे क्या अभीसोचो विचारो बैठ कर,ये समस्याएं हम सभी.भारतीय परंपरा में मनुष्य की परिभाषा में कहा गया है कि ‘वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे,यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे.आज स्वतंत्र भारत में लोगों के जान की कीमत घट गयी है और मौत मूल्य बढ़ गया है. आज सरेआम किसी को मौत के घाट उतार दिया जाता है. मानवता शर्मसार हो रही है. लोगों में संवेदना मरने लगी है और राक्षसी प्रवृत्ति का बोलबाला हो रहा है. आज हमारे आदर्श बौने हो गये हैं. स्वार्थ के कीटाणु बहुत तेजी के साथ पनपने लगे हैं. नैतिक मूल्यों का नित्य क्षरण हो रहा है. उक्त तमाम विकृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में हमारी आधुनिक मानसिकता है. आज समय विकृत्तियों के विसर्जन के लिए होना चाहिए न कि जागरण के लिए. किसी शायर ने ठीक ही लिखा है -”जिंदगी की कीमत इतनी घट गयी यह गम नहींमौत के बढ़ते हुए दाम से घबराता हूं मैं।।”यह सौ फीसदी सत्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमारा जीवन-स्तर बदला है, पर निष्ठुरता, क्रूरता और संवेदन शून्यता का बोलबाला भी बढ़ा है. जीवन को सजाने के लिए, भारत को भव्य बनाने के लिए आज हमें विचारना है, और हर कीमत पर इन मूल्यों की रक्षा के लिए सभी को आगे आना है.स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जनसंख्या का दबाव बढ़ा है.’एक मिनट – अड़तालीस बच्चे, कैसे दिन आयेंगे अच्छे.’ का नारा सत्य साबित हो रहा है. द्रूत गति से बढ़ती हुई हमारी जनसंख्या हमारे विकास में बाधक हैं. दुनिया के दूसरे पायदान पर जनसंख्या की दृष्टि से हमारा देश क ई मायने में पिछड़ता दिख रहा है. आज भी हमारी आबादी का 29% हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने को मजबूर है. चीन जैसा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भी मात्र 12% गरीबों की जनसंख्यावाला देश है. आंकड़े बताते हैं कि 2020 तक भारत में 8% गरीबी रह जायेगी. पर मुझे कहना है कि हम आंकड़े बदलने में विश्वास करते हैं. अगर तेजी से देश को संवारने का प्रयास किया जाये, लोगों की मानसिकता बदले ते हम तीन वर्षों में भी कथित आंकड़े छू सकते हैं. अंत में मैं कहूंगा कि अपने देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए हम सबको मिल कर नया भारत, श्रेष्ठ भारत बनाने का संकल्प लेना होगा.
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