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लैंगिक भेदभाव आखिर कब तक?

सिनेमा उद्योग के मेकअप विभाग मेंएजेंसियां, नयी दिल्लीपिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान सिनेमा उद्योग के मेकअप विभाग में मौजूद लैंगिक भेदभावपूर्ण व्यवस्था को खत्म करने का निर्देश दिया. गौरतलब है कि वहां लगभग साठ साल से एक अघोषित नियम चला आ रहा है कि महिलाएं मेकअप आर्टिस्ट नहीं बन […]

सिनेमा उद्योग के मेकअप विभाग मेंएजेंसियां, नयी दिल्लीपिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान सिनेमा उद्योग के मेकअप विभाग में मौजूद लैंगिक भेदभावपूर्ण व्यवस्था को खत्म करने का निर्देश दिया. गौरतलब है कि वहां लगभग साठ साल से एक अघोषित नियम चला आ रहा है कि महिलाएं मेकअप आर्टिस्ट नहीं बन सकतीं. वे सिर्फ हेयरड्रेसर बन सकती हैं. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा तथा न्यायमूर्ति वी गोपाल गौड़ा की द्विसदस्यीय पीठ ने याचिकाकर्ता मेकअप आर्टिस्ट चारू खुराना तथा अन्य की याचिका की सुनवाई के संबंध में यह निर्देश दिया.संवैधानिक नियम के खिलाफबेंच ने कहा कि किसी संस्थान को इस तरह के व्यवहार की इजाजत कैसे दी जा सकती है? कैसे कोई संस्थान किसी वर्ग या जेंडर के साथ ऐसा भेदभाव कर सकता है जो संवैधानिक नियम के खिलाफ है. कोर्ट ने एाडशनल सॉलिसिटर जनरल एलएन राव को कहा कि वे इस मुद्दे को सरकार को बतायें तथा इस व्यवस्था को जल्द से जल्द समाप्त करने के लिए सरकार तथा संबंधित विभाग को कहें. साथ ही राज्यों से भी आंकड़े इकट्ठे कर विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है. मामले की अगली सुनवाई इस माह होनी है.तो पुरुष होंगे वंचितयाचिकाकर्ता ने अपनी अपील में बताया कि सिनेमा उद्योग की इकाई सिने कास्टयूम मेकअप आर्टिस्ट एंड हेयर ड्रेसर एसोसिएशन ने उन्हें सिर्फ इस आधार पर सदस्यता नहीं दी क्योंकि वह एक महिला आर्टिस्ट हैं, जबकि उन्होंने अमेरिका के एक नामी स्कूल से मेकअप आर्टिस्ट की पढ़ाई पूरी की है. एसोसिएशन की दलील है कि अगर महिलाओं को इस काम में शामिल किया गया तो पुरु ष आर्टिस्ट इस रोजगार से वंचित हो जायेंगे.एनएसएसओ भी मानता है अंतरकुछ समय पहले प्रकाशित नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट ने भी इसके बारे में खुलासा किया था. अपने सैंपल सर्वेक्षण की 66वीं रिपोर्ट में उसने खुलासा किया कि महिलाएं रोजगार तथा वेतनमान में भेदभाव की शिकार हैं. श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण- दोनों क्षेत्र में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है. शहरों में पुरु षों की प्रतिदिन की औसत आय 365 रु पये तथा महिलाओं की 232 है. गांवों में पुरु षों की आय 249 रु पये तथा महिलाओं की 156 है. यह माना जा सकता है कि पिछले डेढ़-दो दशक में स्थितियां तेजी से बदली हैं और महिला आबादी की सार्वजनिक दायरे में उपस्थिति बढ़ी है, फिर भी मौजूद अंतर देखते हुए इसका बने रहना पूरे समाज के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता.

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