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लोगों की मानसिकता बदलना सबसे बड़ी चुनौती : सत्यार्थी

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता तथा बचपन बचाअो आंदोलन के प्रणेता डॉ कैलाश सत्यार्थी भारत यात्रा को लेकर सोमवार को रांची में थे. विभिन्न कार्यक्रमों में व्यस्तता के बीच शाम को एयरपोर्ट जाते वक्त उन्होंने प्रभात खबर संवाददाता संजय से बातचीत के लिए वक्त निकाला. पेश है बातचीत के महत्वपूर्ण अंश… सवाल : झारखंड से अापका […]

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता तथा बचपन बचाअो आंदोलन के प्रणेता डॉ कैलाश सत्यार्थी भारत यात्रा को लेकर सोमवार को रांची में थे. विभिन्न कार्यक्रमों में व्यस्तता के बीच शाम को एयरपोर्ट जाते वक्त उन्होंने प्रभात खबर संवाददाता संजय से बातचीत के लिए वक्त निकाला. पेश है बातचीत के महत्वपूर्ण अंश…
सवाल : झारखंड से अापका लगाव रहा है. अब तक कितनी बार यहां आ चुके हैं?
जवाब : झारखंड बनने के बाद दूसरी बार यहां अाया हूं. अौर 80 के दशक से अब तक छठी बार.
सवाल : अाप अक्सर यह कहते रहे हैं कि नोबेल पुरस्कार मिलने में झारखंड की एक बड़ी भूमिका रही है. कैसे?
जवाब : 1980 से जब मैंने बचपन बचाअो अांदोलन के तहत काम शुरू किया, तो पहले तीन वर्षों के दौरान झारखंड से जुड़ा रहा. खास कर 1983 में पहली बार यह पता लगा कि पलामू से बच्चे यूपी ले जाये जाते हैं. बंधुआ मजदूर के रूप में अपने मां-बाप के साथ. बाद में हमने 36 बच्चों को उनके अभिभावकों के साथ यूपी से छुड़ाया. इसके बाद हमारा फोकस बच्चों पर बढ़ता गया.
सवाल : बाल अपराध या बाल श्रम की बात करें, तो दूसरे राज्यों की तुलना में झारखंड की क्या स्थिति है?
जवाब : अपराध के मामले में तो याद नहीं, पर ट्रैफिकिंग व बाल श्रम के मामले में झारखंड सबसे ज्यादा प्रभावित बिहार, प.बंगाल, असम व अोड़िशा जैसे राज्यों के साथ ही खड़ा है.
सवाल : इस मामले में सरगना राज्य कौन है?
जवाब : बाल यौन उत्पीड़न की बात करें, तो यह बात हैरान करती है कि देश की राजधानी दिल्ली में बाल यौन उत्पीड़न सबसे अधिक है.
सवाल : बच्चों के लिए काम करना एक श्रम साध्य व कठिन काम लगता है. इस मुद्दे पर समाज व सरकार भी बहुत संवेदनशील नहीं रही है. गत तीन दशकों में कभी लगा कि हालात नहीं सुधरेंगे, यह काम छोड़ दिया जाये?
जवाब : बल्कि इसका उल्टा है. कठिन व चुनौतीपूर्ण कार्य ही करना मेरा स्वभाव रहा है. इसलिए कभी हताशा नहीं हुई. पहले बाल दासता जैसे शब्द कोई जानता नहीं था. मुझे भी लोग कहते थे कि ऐसे शब्दों से देश की बदनामी होती है. पर हमने इसे मुद्दा बनाया. फिर बच्चों की शिक्षा को उनका मौलिक अधिकार बनाने की लड़ाई लड़ी. सरकार को कानून भी बनाना पड़ा. अब बाल यौन उत्पीड़न तीसरा मुद्दा है, जिसकी लड़ाई हमलोगों ने शुरू की है.
सवाल : मौजूदा समय की बात करें, तो बच्चों के अनुकूल दुनिया बनाने में सबसे बड़ी बाधाएं क्या हैं?
जवाब : लोगों की मानसिकता बदलना सबसे बड़ी चुनौती है, बाधा भी. बच्चों का मुद्दा सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक प्राथमिकता में नहीं है. स्वीडन व नार्वे जैसे देशों को छोड़ दें, तो ज्यादातर देशों में सामाजिक चेतना की कमी है. हम बच्चों पर रहम तो कर देते हैं, पर बाल मित्र समाज बनाने की पहल का सामूहिक प्रयास नहीं करते.
सवाल : नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद क्या आपकी कार्य शैली बदली है? अापके काम में क्या फर्क आया है?
जवाब : दरअसल, इस पुरस्कार के बाद जिम्मेवारी बढ़ी है. मैं अौर मेरा काम जो पहले थे, अाज भी वहीं हैं. मैं जो पहले कहता था, वही अब भी बोलता हूं. हां, फर्क यह है कि अब लोग ज्यादा गंभीरता से सुनने लगे हैं. तमगा लगने से लोगों को फोकस तो मेरे ऊपर बढ़ा ही है.
सवाल : बच्चों के मुद्दे पर मीडिया का क्या रवैया है. क्या मीडिया बच्चों के प्रति उस भूमिका में है, जो उसे होना चाहिए?
जवाब : संस्थाअों, सरकार या किसी अन्य तबके से मिली सकारात्मक चीजें छपती या प्रदर्शित होती रही हैं. बच्चों के साथ कोई घटना या दुराचार हो,तो इसकी खबर मीडिया में सनसनीखेज तरीके से पेश की जाती हैं. पर जरूरत इसके फॉलोअप की है, जो किसी मामले अौर उसके दोषी को अंजाम तक पहुंचाये. इसकी थोड़ी कमी है.

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