पारंपरिक वाद्य यंत्रों से दूर होते युवा:::::संपादितझारखंड की जान आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ, शादी समारोह, त्योहार आदि में पारंपरिक वाद्य यंत्रों की बड़ी भूमिका होती है. सभी इन वाद्य यंत्रों को बड़ी ही चाव से बजाते हैं. इनके बिना कार्यक्रम सूने-सूने लगते हैं. लेकिन, आधुनिकता की पहुंच इस ओर भी दस्तक दे चुकी है. आज के समय की पीढ़ी पारंपरिक वाद्य यंत्रों से दूर होती जा रही है. एक समय था जब आदिवासी समुदाय के घर-घर में वाद्य यंत्र पाये जाते थे व लोग उसे बजाया करते थे. लेकिन, अब इक्का-दुक्का घरों में ही यह बचे हैं. वाद्य यंत्र की खासियत के साथ उससे जुड़े लोगों की कहानी बताती लाइफ @ जमशेदपुर की खास रिपोर्ट. हर शनिवार को होता था त्योहार जैसा माहौल शहर के कई गांवों में पहले हर शनिवार को त्योहार जैसा माहौल होता था. लोग एक जगह एकत्रित होकर खुशियां मनाया करते थे. शहर के जोनरागोड़ा गांव निवासी सालखन बताते हैं कि हर शनिवार को गांव में ही नृत्य व संगीत का कार्यक्रम होता था. इसमें केवल ग्रामीण ही हिस्सा लेते थे. लेकिन, समय गुजरने के साथ आज कार्यक्रम का चलन भी बंद हो गया है. अब केवल त्योहारों में ही लोग जुटते हैं. साथ ही नयी पीढ़ी के व्यस्त होने के कारण भी ऐसा हुआ है. किसी न किसी उद्देश्य से जुड़े हैं सभी वाद्य यंत्रहर वाद्य यंत्र की अपनी अलग पहचान है. साथ ही वह किसी ना किसी उद्देश्य से भी जुड़ा हुआ है. शिकार में जाने के दौरान साकुआ बजाने का चलन है. इसके साथ ही शादी, त्योहार व खास मौकों पर किस्म-किस्म के वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है. आदिवासी समुदाय से जुड़े लोग बताते हैं कि पहले की तुलना में यह कम जरूर हुआ है, क्योंकि नयी पीढ़ी इससे कटती जा रही है. पारंपरिक वाद्य यंत्रों के प्रति रुची कम हो रही है. इसको बचाये रखने का जिम्मा उन्हीं के हाथों में है. जरूरी है कि वो आगे आकर इन वाद्य यंत्रों को सीखने में दिलचस्पी दिखायें. वाद्य यंत्र व उसकी खासियत साकुआ : शिकार पर्व में इस वाद्य यंत्र का काफी ज्यादा योगदान है. जब भी ग्रामीण शिकार पर्व के लिए निकलते हैं तो साकुआ को जरूर बजाते हैं. इसे नील गाय के सींघ से तैयार किया गया है. इसकी आवाज लोगों में जोश भरने का काम करती है. आज भी गांव में यदि इसे केवल बजा दिया जाये तो ग्रामीण एकत्रित हो जाएंगे. ग्रामीण बताते हैं इस वाद्य यंत्र से निकलने वाली आवाज जिस्म के रोएं-रोएं को जगा देती है. चौड़चुड़ी : इस वाद्य यंत्र को रेगड़ा भी कहा जाता है. इसे तैयार करने के लिए चमड़े व लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है. लगभग सभी त्योहार व खास मौकों, जैसे शादी व शिकार जाने के दौरान इसे बजाया जाता है. इसकी तेज आवाज भी लोगों में जोश भरने का काम करती है. तिरियो : सामान्य बांसुरी से यह अलग है, क्योंकि इसमें ज्यादा छेद हैं. इसे बजाने का तरीका भी अलग है. इसे तिरिछा बजाया जाता है. अलग-अलग ध्वनि निकालने के अलग-अलग तिरियो का इस्तेमाल किया जाता है. बेहद ही मधुर आवाज वाले तिरियो की ध्वनि आज भी लोगों की पहली पसंद में शुमार है. बानाम : वायलिन जैसे दिखायी देने वाले इस वाद्य यंत्र को ठीक उसी प्रकार बजाया जाता है. एक समय था जब यह आदिवासी समुदाय के हर घर में पाया जाता था. लेकिन समय के गुजरने के साथ वाद्य यंत्र को बजाने वालों में कमी आयी है. इसे गुलाछी पेड़ की लकड़ी, चमड़े, स्टील के साथ अन्य सामान से तैयार किया जाता है. सुरमयी धुन के कारण आज भी यह लोकप्रिय है. टमाक : विशाल ढोलक वाले टमाक की अपनी अलग खासियत है. भव्य व ढोलक के समान दिखने वाले टमाक को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के ग्रामीणों ने पहिए लगाये हैं. ताकि इसे आसानी से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सके. इसे तैयार करने के लिए लकड़ी व चमड़े का इस्तेमाल किया गया है. ——————नाम : नूना मांझी, तिलकागढ़वाद्य यंत्र : बानामपिता से सीखा बानाम बजाने का तरीका27 वर्षीय नूना मांझी बताते हैं कि मैं बचपन से ही बानाम बजाता आ रहा हूं. जब मैं छोटा था तो पिता रामसाई मांझी इसे बजाया करते थे. उनके बजाने के बाद मैं भी उसी तरह बजाता सीखता था. उस वक्त से लेकर आज तक मैं इसे बजाता आ रहा हूं. मुझे लगता है कि इसे बजाने से न केवल मैं अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ हूं, बल्कि यह विलुप्त न हो, उसमें मैं अपना योगदान दे रहा हूं. इसे सोहराय, बाहा (सरहुल), दसाय (अक्टूबर के महीने में), रिंजा (गोम्हा व रक्षाबंधन), करम ढोंग पर बजाया जाता है. ———–नाम : कायलू मार्डी, जोनरागोड़ावाद्य यंत्र : तिरियोबचपन से ही बजा रहा हूं तिरियो55 वर्षीय कायलू मार्डी छोटे पर से ही तिरियो बजाते आ रहे हैं. कायलू बताते हैं कि पहले खेत खलिहान में गाय-भैंस चराने के दौरान मैं अक्सर अपने साथ तिरियो ले लिया करता था और खाली समय में बजाता था. इस वाद्य यंत्र को हम संथाली पारंपरिक गीतों के साथ, शादी, दौंग, लोगड़ी, सोहराय (काली पूजा) के दौरान बजाते हैं. वहीं लोगड़ को वर्षभर गाया जाता है. ऐसे में इस वाद्य यंत्र को भी हम लोग वर्षभर यूं ही बजाते हैं. इसे बजाने की कला मैंने अपने पूर्वजों से सीखी, वो भी अक्सर इसे बजाते थे. लेकिन, बेहद ही दुखद यह है कि आज की युवा पीढ़ी इसे सीखने में दिलचस्पी नहीं दिखाती. इस बात का डर है कि कहीं समय के गुजरने के साथ यह कला भी विलुप्त न हो जाये. नाम : सालखन सोरेन, करनडीहवाद्य यंत्र : साकुआशिकार पर जाते हैं, तो बजता है साकुआ सालखन सोरेन बताते हैं कि हमारे पूर्वज शिकार जाने के दौरान साकुआ बजाते थे. आज भी हम लोग जब भी शिकार पर जाते हैं, तो इसे बजाते हैं. इसे बजाना व तैयार करना मैंने बचपन में ही सीख लिया था. यह हमारे रीति-रिवाज से जुड़ी प्रथा है. साकुआ को बाहा पर्व मनाने व अन्य मौके पर भी बजा लिया जाता है. मेरा यह मानना है कि हमारे समय में वाद्य यंत्रों के प्रति जितनी जिज्ञासा हममें थी, आज के युवाओं में उस जिज्ञासा की कमी आयी है.——————-नाम : पिरू मुर्मू, जोनरागोड़ावाद्य यंत्र : साकुआपर्व के दौरान बजाता हूं टमाक पिरू मुर्मू बताते हैं कि मैं टमाक को कई वर्षों से बजाता आ रहा हूं. जब भी गांव में कोई त्योहार होता है, या फिर खुशी का मौका होता है, हम लोग इसे बजाते हैं. बाहा पर्व में भी इसका काफी इस्तेमाल होता है. इस वाद्य यंत्र की धुन पर करीब 150 से भी ज्यादा ग्रामीण युवतियां नृत्य करती हैं. इसे हम लोग तैयार नहीं कर पाते. इसे मोची से तैयार करवाया जाता है.
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