संताली भाषा की सेवा में लगा दी पूरी जिंदगी 150वीं जयंती : पत्नी की मौत के बाद नार्वे के पीओ बोडिंग ने दी थी अपनी वेदना को रचनात्मक दिशा विवाह के 127 दिनों के बाद हो गया था पत्नी का निधनधर्म प्रचार के उद्देश्य से संताल आये और यहीं के संस्कृति में रच बस गयेआनंद जायसवाल, दुमकापीओ बोडिंग की आज 150वीं जयंती है. यह जयंती दुमका के मोहलपहाड़ी मिशन के अलावा नार्वे में भी एक साथ मनायी जायेगी. बोडिंग नार्वे के थे. वे भले ही धर्मप्रचार के उद्देश्य से संताल परगना आये थे, लेकिन संताली संस्कृति-भाषा में वे इतने रच-बस गये कि एक लेखक के रूप में उन्होंने जब भी कलम उठायी, उनकी लेखनी के केंद्र में संताली ही रहे, जबकि उनकी मातृभाषा न तो अंग्रेजी थी और न संताली. पर खुद को उन्होंने दोनों भाषाओं में दक्ष बनाया था. संताली शब्दकोष, लोक साहित्य सृजन, संपादकीय व समाचार लेखन, संताली संस्कृति, आयुर्वेद चिकित्सा आदि पर शोध के उन्होंने कई कार्य किये. बचपन से था पुस्तकों से बेहद लगाव2 नवंबर 1865 को नार्वे के जोविक में जन्मे बोडिंग अपने माता-पिता के इकलौते संतान थे. उनके पिता पुस्तक विक्रेता थे. लिहाजा उन्हें बचपन से ही पुस्तकों से बेहद लगाव था. दस वर्ष की छोटी आयु में ही उन्होंने लैटिन भाषा के प्रति जिज्ञासा दिखायी थी. इसी जिज्ञासा से वे मिशनरी से जुड़े. क्रम में यूरोप पहुंचे इसाई धर्मप्रचारक एलओ स्क्रेफ्सरुड के संपर्क में आये. बोडिंग उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके साथ चलकर संताल मिशन की सेवा की इच्छा जतायी. 1890 में भारत आये थे बोडिंग अपनी मां की इच्छा के अनुरूप 1890 में वे भारत के लिए चल पड़े. बोडिंग को यहां के बेनागड़िया मिशन की जिम्मेदारी दी गयी थी. यहां पहुंच कर उन्होंने नार्वे की ही क्लारा ईकर से बेनागड़िया मिशन में विवाह किया और मोहुलपहाड़ी नामक स्थान में छोटे से घर में चले आये, पर चार महीने बाद ही क्लारा बीमार पड़ीं और ईलाज की सुविधा के अभाव में वह मौत के आगोश में समा गयी. इस दुखद घटना ने उनके जीवन को नया मोड़ दिया और अपनी वेदना को उन्होंने एक रचनात्मक दिशा दी. नार्वे के नेशनल म्यूजियम में हैं उनकी मौलिक कृतियांबोडिंग ने 1903 में अपरिचित भाषा संताली का अध्ययन करना शुरू किया और दो दशक के लंबे परिश्रम के दौरान उन्होंने 45000 से अधिक प्रविष्टियों का शब्दकोश तैयार किया. संताली का यह शब्दकोष ऐसा था, जिसकी बराबरी तब विश्व की दूसरी आदिवासी जनजातियां नहीं कर सकती थी. व्यवहारिक रूप से इस शदब्कोश में संताल जीवन, आस्था एवं संस्कृति से संबंधित सारी सूचनाएं संकलित थीं. उनके प्रयास से 1922 से बेनागड़िया मिशन से संताली पत्रिका पेड़ा होड़ की छपाई शुरू हुई, जो संताली पत्रकारिता के एक नये युग की दस्तक थी. उन्होंने 1925 में स्टडीज इन संताल मेडिसीन नामक एक अहम पुस्तक भी लिखी. जिसमें परंपरागत चिकित्सा की जानकारी उन्होंने संकलित की. उनकी अधिकांश मौलिक कृतियां नार्वे के नेशनल म्यूजियम में है.———फाइल फोटोपीओ बॉडिंग………
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संताली भाषा की सेवा में लगा दी पूरी जिंदगी 150वीं जयंती : पत्नी की मौत के बाद नार्वे के पीओ बोडिंग ने दी थी अपनी वेदना को रचनात्मक दिशा विवाह के 127 दिनों के बाद हो गया था पत्नी का निधनधर्म प्रचार के उद्देश्य से संताल आये और यहीं के संस्कृति में रच बस गयेआनंद […]
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