यह कौन सा भविष्य गढ़ रहे हैं हम? आज नहीं सोचा तो आनेवाली पीढ़ी कभी हमें माफ नहीं करेगी- जीवेश रंजन सिंह

यह सर्वमान्य है कि किसी कौम को नष्ट करना है तो तोप-तलवार की जगह, उसकी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को खत्म कर दो, सब कुछ स्वत: खत्म हो जायेगा. आज आर्थिक रूप से कमजोर अधिकतर लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जा रहे हैं. उनका कौन-सा भविष्य गढ़ रहे हैं हम, यह सोचना ही होगा.

By Prabhat Khabar Print Desk | January 24, 2023 7:55 AM

जीवेश रंजन सिंह

वरीय संपादक, प्रभात खबर. 

इस सप्ताह सभी सरकारी स्कूलों में अर्धवार्षिक परीक्षा हुई. तीन दिन तक चली इस परीक्षा में कक्षा एक से सात तक के बच्चे शामिल हुए. केवल धनबाद की बात करें, तो यहां के 1712 स्कूलों में एक लाख 59 हजार 529 बच्चों ने भाग लिया. इसको लेकर शिक्षा विभाग चाहे जो दावा करे यह आयोजन कई सवाल छोड़ गया.

प्रभात खबर की टीम ने धनबाद, गिरिडीह व बोकारो के विभिन्न स्कूलों की पड़ताल की. लगभग हर जगह अराजक स्थिति थी. शिक्षा विभाग की भारी-भरकम टीम व शिक्षकों की उनसे भी बड़ी टोली द्वारा कई बैठकों, तैयारियों व निर्णयों के बाद भी परीक्षा मजाक बन कर रह गयी. कहीं बैठने की जगह नहीं थी, तो कहीं प्रश्नपत्र ही पड़ गये कम. कई जगह तो गुरुजी लोगों ने परीक्षा के दौरान मौजूद रहने जैसे सामान्य शिष्टाचार का भी पालन नहीं किया (हालांकि अपवाद भी हैं). वहीं दूसरी ओर अधिकारियों ने भी निगरानी के लिए अपने चैंबर से बाहर निकलने की जहमत नहीं उठायी. बच्चों ने जैसे-तैसे परीक्षा दे दी और अब रिजल्ट की फॉर्मेलिटी पूरी कर शिक्षा विभाग खुद की पीठ थपथपा लेगा. कोई बड़ी बात नहीं कि इस आयोजन को सफलतम आयोजनों की सूची में शामिल कर लिया जाये.  

असर की रिपोर्ट की हुई पुष्टि

परीक्षा के दिन बच्चों के बैठने की जगह काे लेकर संसाधन व स्थान का लगभग अधिकतर ने रोना रोया, पर यह नहीं बता पाये कि कैसे पूरे साल इतने कम स्थान में बच्चों को बैठा कर पढ़ाया. दरअसल, ऐसा हुआ ही नहीं. पूरे साल सभी बच्चे स्कूल नहीं आये और न ही उन्हें बुलाने की कोई कोशिश की गयी. बच्चे शिक्षकों के घर या इंस्टीट्यूट में जाकर ट्यूशन पढ़ते रहे, हाजिरी स्कूल में बनती रही. असर की रिपोर्ट भी कहती है कि धनबाद के सरकारी स्कूल के बच्चों में ट्यूशन की परंपरा बढ़ी है. यह तभी संभव है जब स्कूलों में पढ़ाई नहीं हो.

अब अपनों से छले जा रहे हैं हम

भारत वर्ष की जब भी चर्चा होती है तो वो इसकी समृद्धि से ज्यादा यहां के ज्ञान के इर्द-गिर्द बातें घूमती रहती हैं. हालांकि इसका कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं, पर यह सर्वमान्य है कि मध्यकाल में कुछ शासकों व अन्य ने यहां की शिक्षा को नष्ट करने की हरसंभव कोशिश की. उस देश में अपनों का यह रूप अलग पीड़ा देती है. हद यह कि अपने अधिकार की बात करने और परेशानियों का रोना रोने वाले शायद ही कभी यह कहते हैं कि वो अपने मूल काम के लिए तत्पर रहेंगे. खास कर वो लोग जो विभिन्न स्कूलों के संचालन समिति में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं कतराते, पर स्कूलों की व्यवस्था या कमियों पर कभी मुखर नहीं हुए. इसमें सुधार लाना ही होगा.

…और अंत में

यह सर्वमान्य है कि किसी कौम को नष्ट करना है तो तोप-तलवार की जगह, उसकी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को खत्म कर दो, सब कुछ स्वत: खत्म हो जायेगा. आज आर्थिक रूप से कमजोर अधिकतर लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जा रहे हैं. उनका कौन-सा भविष्य गढ़ रहे हैं हम, यह सोचना ही होगा. वरना आनेवाली पीढ़ी कभी हमे माफ नहीं करेगी. 

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