बोकारो: बचपन औरों से अलग था. जन्म तो साधारण परिवार में हुआ मगर हर मां-बाप की तरह ही मेरे अब्बा व अम्मी जान की बस एक ही तमन्ना थी कि उनके बच्चे तालीम जरूर हासिल करें. दोनों के इसी सपने को साकार करने के लिए हम भाई-बहन हर वक्त प्रयासरत रहते थे.
किसान होने के नाते हमारा जीवन फसल पर टिका रहता था. 75 प्रतिशत अंक के साथ मैंने क्लास दसवीं की परीक्षा पास की. इस पर अम्मी खुश तो बहुत थी मगर उनकी आंखों में आंसू थे, क्योंकि उनके पास इंटरमीडिएट में मेरा दाखिला कराने के लिए पैसे नहीं थे. सभी दोस्तों ने अपना एडमिशन करवा लिया था.
बस मैं रह गया था. पैसे की कमी की वजह से मेरी साइंस पढ़ने की ख्वाहिश दिल में ही रह गयी. अपनी इच्छा से समझौता करने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था. लकिन मैंने हार नहीं मानी और एक दिन एक नौकरी पकड़ ली. नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई करता था. बचपन के इस कड़वे एहसास को ध्यान में रखते हुए , मैंने अपने मन में फैसला किया था कि सक्षम होने पर विद्यार्थियों के लिए कॉलेज का निर्माण जरूर करूंगा. बचपन के इस घटना ने मुङो परिपक्कव बनाया.