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लीक नहीं छोड़ पा रहे हैं बाबूलाल

-हरिवंश- झारखंड के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी लीक नहीं छोड़ पा रहे हैं. पुराने ढर्रे की राजनीति से वह राज्य को आगे ले जाना चाहते हैं. विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ा कर. विधायक विकास कोष की राशि बढ़ा कर और ऐसे अनेक कदम उठा कर, जो अंतत: 52 वर्षों में अप्रभावी साबित हो चुके हैं. वह ऐतिहासिक […]

-हरिवंश-

झारखंड के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी लीक नहीं छोड़ पा रहे हैं. पुराने ढर्रे की राजनीति से वह राज्य को आगे ले जाना चाहते हैं. विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ा कर. विधायक विकास कोष की राशि बढ़ा कर और ऐसे अनेक कदम उठा कर, जो अंतत: 52 वर्षों में अप्रभावी साबित हो चुके हैं. वह ऐतिहासिक मौका गंवा रहे हैं.
दरअसल देश में आज दो धाराएं हैं- पहली धारा जो फूंक-फूंक कर गद्दी बचाते हुए राजनीति करना चाहती है. दूसरी धारा, जो जोखिम उठा कर पुराने ढांचे को ध्वस्त करना चाहती है. बाबूलाल मरांडी पहली धारा को सुरक्षित मान रहे हैं.
दूसरी धारा राजसत्ता के इस पुराने ढांचे और कलपुर्जों को झकझोरने की कोशिश कर रही है. बगल में छत्तीसगढ़ है, वहां विधायक विकास (सही शब्द लूटफंड) कोष को खत्म कर दिया गया है.

महाराष्ट्र में मंत्रियों के वेतन में 20 फीसदी कटौती की गयी है. सुविधाएं कम की गयी हैं. कर्नाटक में वहां की सरकार अपने वरिष्ठ भ्रष्ट अफसरों की सूची जारी कर रही है. उन पर कार्रवाई कर रही है. केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में वहां की सरकार सुधारों की मुहिम चला रही है.

महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख की सरकार खिचड़ी सरकार है. छत्तीसगढ़ में पहले अजीत जोगी के खिलाफ कांग्रेस में मोरचा था. भाजपा को तोड़ कर उन्होंने अपना किला मजबूत किया. उनके पास भी न नैतिक आभा है और न राजनीतिक दायित्व. फिर भी वह साहसिक कदम उठा रहे हैं. केरल में वहां के मुख्यमंत्री एके एंटोनी के खिलाफ कांग्रेस के कद्दावर नेता के करुणाकरण खुलेआम खड़े हैं (कड़िया मुंडा या रामटहल चौधरी के मुकाबले वह अपनी ही सरकार का अधिक उग्र विरोध कर रहे हैं. खुलेआम कांग्रेस आलाकमान असहाय है). कर्नाटक में भी कांग्रेसियों को एक तबका मुख्यंत्री एसएम कृष्णा को ही उखाड़ने में लगा है.

फिर भी इसी अस्थिरता, अनिश्चय, खींचतान और अंतर्विरोधों के बीच राजकाज की शैली सुधारने-बदलने के प्रयोग हो रहे है.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, केरल के मुख्यमंत्री एके एंटोनी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एसएम कृष्ण और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अजीत जोगी, इसी राजनीतिक समुद्र से उपजे हैं. इनकी विवशताएं भी झारखंड के मुख्यमंत्री से अधिक हैं. फिर भी आर्थिक, राजनीतिक और ढांचागत सुधारों में ये लगे हैं. आंध्र के चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता (जो इस बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तमिलनाडु को आर्थिक सुधारों और विकास में सबसे आगे ले जाने का अभियान चला रही है), बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार, असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने अपेक्षाकृत मजबूत व स्थिर राजनीतिक आधारों-गढ़ों से नये प्रयोग कर रहे हैं.
पर विलासराव देशमुख, अजीत जोगी, एके एंटोनी वगैरह किस राजनीतिक गणित के तहत साहसिक प्रयोग कर रहे हैं? ये जानते हैं कि सत्ता के दो स्वरूप हैं. पहला पावर (सत्ता) दूसरा अथॉरिटी. ‘पावर’ आज विधायकों के पास है, पर अथॉरिटी (अधिकार) जनता के पास है. इसी अधिकार (अथॉरिटी) से सत्ता (पावर) पैदा होती है और जनता आज परिवर्तन के पक्ष में हैं. वह भ्रष्ट सिस्टम (व्यवस्था) को बदलने के नये प्रयोगों के पक्ष में हैं और वे नये प्रयोग विलासराव देशमुख या एके एंटोनी या अजीत जोगी जैसे लोग करते हैं, तो समझते हैं कि फेंस (सीमा) पर बैठे विधायक या मंत्री इन सुधारों के खिलाफ जनता के बीच नहीं जा सकते.

विलासराव देशमुख की मिलीजुली सरकार (जिसे गिराने की अक्सर खबरें आती हैं) अगर मंत्रियों के वेतन-भत्ते और सुख-सुविधाओं में कटौती करती है, तो ऐसे कदमों से वह लोक समर्थन हासिल करती है. विधायक भी इस लोक समर्थन से भयभीत होकर सरकार गिराने का साहस नहीं करते. यही कारण है कि राजनीतिक अस्थिरता (विद्याचरण शुक्ल जोर शोर से अजीत जोशी को अपदस्थ करने में अब भी लगे हैं) के माहौल में भी अजीत जोगी विधायक विकास फंड खत्म करने का साहस करते हैं. भारत में पहला राज्य जहां यह काम हुआ. वह इस साधारण सच को समझते हैं कि विधायक विकास फंड को जनता, भ्रष्टाचार फंड मानती है. इसलिए ऐसे मामलों पर विधायक साहस नहीं कर सकते कि वे सरकार के खिलाफ बोलें?

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