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यह खतरा समझिए !

-दर्शक- रांची : एक व्यवसायी के घर तड़के सुबह चार लड़के पहुंचते हैं. कहते हैं कि ‘हम बेरोजगार हैं. डकैती करने आये हैं. लूटपाट करते हैं. मारपीट करते हैं और माल असबाब ले जाते हैं. कह भी जाते हैं कि ‘नौकरी नहीं मिली, न मिलेगी, इसलिए लूटपाट कर रहे हैं. पुलिस पकड़ कर गोली भी […]

-दर्शक-

रांची : एक व्यवसायी के घर तड़के सुबह चार लड़के पहुंचते हैं. कहते हैं कि ‘हम बेरोजगार हैं. डकैती करने आये हैं. लूटपाट करते हैं. मारपीट करते हैं और माल असबाब ले जाते हैं. कह भी जाते हैं कि ‘नौकरी नहीं मिली, न मिलेगी, इसलिए लूटपाट कर रहे हैं. पुलिस पकड़ कर गोली भी मार दे. तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा?’

पुलिस और समाज दोनों के लिए यह गंभीर आपराधिक मामला है. कठोर से कठोर दंड ऐसे कार्य करनेवालों को मिलना चाहिए. पर पुलिस इन चार युवकों को पकड़ कर गोली भी मार दे, तो कल क्या ऐसे युवक नहीं होंगे? व्यवस्था के वश की बात नहीं रह गयी है. मौजूदा राजनीति-समाजनीति के गर्भ से निकल रहा है, समाज का यह विकृत रूप. बिहार कारुणिक स्थिति में पहुंच गया है.

बीमार और दुर्गंध से सराबोर! फिर रास्ता क्या है? राजनीति को लोगों ने नासमझ और अपराधियों के हाथ सौंप दिया है. हर दल के ठेकेदार राजनेताओं के सफेद कुरतों पर काले धब्बे इतने भर गये हैं कि वे कुरते कभी सफेद रहे होंगे. नहीं लगता. राजनीति को इन नापक हाथों से मुक्त करना, हर एक संवेदनशील बिहारी का युग धर्म होना चाहिए. जाति और धर्म के उन्माद से ऊपर उठ कर ही इस राजनीति की सफाई हो सकती है.

अपढ़, मूर्ख और बदलती दुनिया को न समझनेवाले, हमारी तकदीर के ठेकेदार बन बैठे हैं. विधायकों-सांसदों-अफसरों से पूछिए कि वे कितना समय लोक कल्याण के लिए निकालते हैं और कितना राजनेताओं-महत्वपूर्ण लोगों की खुशामद में? विधानसभा या विधान परिषद में विकास, बेरोजगारी, लूटपाट, डकैती, शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था आदि की बदहाली पर कितनी सार्थक चर्चा होती है? ‘राज्य संस्था’ का गठन ही जनता की हिफाजत के लिए हुआ. अगर वह हिफाजत करने में विफल है, तो फिर उसकी जरूरत क्या है? क्यों लोग टैक्स देते हैं?


राजनीति जब सही हाथों में पहुंचेगी, तो विकास मॉडल बदलेगा. रोजगारोन्मुख नीतियां बनेंगी. समतापूर्ण समाज बनेगा. शिक्षा का मर्म ढूंढा जायेगा. शिक्षा संस्थाओं का गौरव बहाल होगा. गांवों का पिछड़ापन दूर होगा. जाति के नाम पर सदियों से दबे-कुचले लोगों का वह राजनीति कल्याण करे, यह पहली प्रतिबद्धता हो. साथ ही पूरे समाज के कल्याण की समग्र दृष्टि. ऐसी लोक राजनीति मौजूदा कोई हल नहीं निकाल सकती. अगर ऐसे सृजनात्मक माहौल में भी आपके घरों में जबरन डकैती हो, तो उन्हें सरेआम चौराहों पर लटकाये जाने की व्यवस्था भी हो. साथ-साथ नेहरू जी ने आजाद भारत में कालाबाजारियों-भ्रष्ट लोगों को चौराहों पर फांसी देने का जो सपना देखा था, वह क्रियान्वित हो. पर यह नयी राजनीति करेगा कौन?

जो चुनौतियों को नहीं झेल सकते, वे मन से युवा नहीं होते. बेरोजगारी का दंश झेलने के लिए मजबूर युवक, क्या इतनी जल्दी समर्पण कर देंगे? हाथ उठा देंगे? क्या बिहार की धरती इतनी अनुर्वर हो रही है कि निराश रहने और काम करनेवाले लोग नहीं मिलेंगे? जहां-जहां भी ऐसी ताकतें रोशनी दिखाती मिलें, उनके पीछे हो जाइए. हुजूम बन कर. औरत-मर्द-बच्चे-बूढ़े सभी! निश्चित ही आपको एक सुखद और सुरक्षित भविष्य मिलेगा. संभव है नुकीले पत्थरों, कांटों और तारों से भरा यह रास्ता बड़ा दुखद हो, पर विकल्प यही है. अन्यथा चोरों, डकैतों, अपराधियों और दूषित राजनीति के माहौल में घुट-घुट कर मरिए.

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