-हरिवंश-
राजू धानुका के अंतिम संस्कार में शामिल हुआ. राजूजी से कोई औपचारिक परिचय नहीं रहा. पर इस घटना से लगा, मनुष्य के जीने का अधिकार छीनने का यह प्रसंग है, इसलिए एक नागरिक के तौर पर शरीक होना फर्ज है.
इतना ही नहीं. हत्या दिन के दो बजे की गयी. भीड़ भरे इलाके में की गयी. डीसी-एसएसपी, जो राजसत्ता के जीवंत प्रतीक हैं, उनके कार्यालयों के पास ही की गयी. इसके पीछे क्या इरादे होंगे? हत्या कहीं और भी हो सकती थी, पर व्यस्ततम इलाके में, दिन के दो बजे हत्या? साफ है, राजू धानुका को मारना प्रमुख लक्ष्य था, पर उससे महत्वपूर्ण उद्देश्य था, यह साबित करना या संदेश देना कि राजसत्ता (स्टेट पावर) हमारे अंगूठे पर है, और भीड़ तो कायरों का हुजूम है. यानी पूरी व्यवस्था और समाज को आतंकित करना.
यह भी सूचना मिली कि 14 मार्च की रात (हत्या के दिन) अरगोड़ा चौक के पास डकैती होती रही. डकैत आराम से लूटपाट करते रहे. लोग पुलिस को सूचनाएं देते रहे, पर पुलिस सुबह तक वहां नहीं पहुंच सकी. हालांकि पांच-दस मिनट (गाड़ी से) की दूरी पर ही पुलिस थाना है.
एक ही दिन, इन दोनों घटनाओं के संदेश साफ हैं. राजसत्ता का प्रताप, भय या वजूद नहीं रहा. यह व्यवस्था निर्जीव लाश (नहीं भ्रष्ट और दुर्गंध देती लाश) हो गयी है. यह लाश, जनता से टैक्स वसूलती है, भ्रष्टाचार से अपराधियों को पालती-पोसती है. लोग टैक्स क्यों देते हैं? क्योंकि राजसत्ता का बेसिक फर्ज है, नागरिक सुरक्षा देना. इसीलिए मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद लाखों आम लोग सड़क पर उतर आये, और कहा,
सुरक्षा नहीं, टैक्स नहीं
इसलिए रांची की ये दो घटनाएं (14 मार्च, हत्या + डकैती) और पहले की घटनाएं, एक साथ जोड़ कर देखने की जरूरत है. कहीं कोई सुरक्षा नहीं है. यह स्थिति देख कर, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाजियों से त्रस्त एक प्रसंग याद आया. कवि पास्टर मार्टिन (1892-1984) ने लिखा था, जिसका हिंदी आशय है :
वे (नाजी) पहले कम्युनिस्टों (को मारने) के लिए आये.
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.
फिर वे यहूदियों (को मारने) के लिए आये.
और मैं खामोश रहा, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.
इसके बाद वे (नाजी) ट्रेड यूनियनों (को कुचलने) के लिए आये,
फिर मैं खामोश रहा, क्योंकि मैं यूनियनवादी नहीं था.
इसके बाद वे (नाजी) कैथोलिकों के लिए आये
और मैं चुप रहा, क्योंकि मैं प्रोटेस्टेंट था
इसके बाद वे मेरे लिए आये
और तब तक कोई बचा नहीं था, जो आवाज लगा सके.
यही हालत है, रांची या झारखंड की!
व्यवसायी पर हमला, तो व्यवसायी कुछेक दिन बेचैन, फिर खामोश. मोहल्ले में डकैती, मोहल्लेवाले उबाल पर फिर चुप. डॉक्टरों पर हमला, डॉक्टर कुछ देर खफा फिर शांत. वकीलों पर अत्याचार, तो वकील परेशान फिर शांत. पत्रकार शिकार हुए, तो वे भी थोड़े पल के लिए बेचैन, फिर चुप. और एक-एक कर सब शिकार हो रहे हैं. क्या रांची की इन घटनाओं के संदर्भ में सारे समाज को एकसूत्र नहीं किया जा सकता. हर वर्ग जुटे, पहल करे, तो वह आवाज गूंजेगी. पर यह दमदार आवाज उठाने के लिए हमें बदलना होगा. खुद को. अपने आचरण, प्रवृत्ति और चिंतन को. पर क्यों?
राजू धानुका की अंतिम यात्रा हरमू मुक्तिधाम या श्मशान में संपन्न हुई. श्मशान जीवन का सच है. मनुष्य की अंतिम यात्रा. कम से कम यह एक पड़ाव ऐसा है, जहां किसी भी मनुष्य को पूरी गरिमा, गंभीरता और आदर्श के साथ विदा करना चाहिए. यह अंतिम यात्रा है. नश्वर संसार से विदा होने की अंतिम घड़ी. कम से कम वहां जीवन के कारोबार, धंधा और लूज टॉक से बचना चाहिए. यह मोबाइल संवाद का स्थल नहीं है.
शास्त्रों में श्मशान वैराग्य की चर्चा है. जब भी श्मशान जाना हुआ, पहली श्मशान यात्रा के अनुभव याद आते हैं. छोटा था. अपने चाचा के शव के साथ जाना हुआ. जीवन की नि:सारता-नश्वरता का तीव्र बोध? जीवन क्यों? किसलिए? ये सवाल वहां हर एक के मन में गूंजते-उठते हैं. इसलिए लोक कहावत है कि श्मशान वैराग्य स्थायी हो जाये, तो संसार कितना भिन्न होगा? क्यों ये झगड़े, लफड़े, लूट, हत्या या विवाद? जिन्होंने राजू धानुका की हत्या की, अंतत: वे भी बूढ़े होकर मरेंगे, तो इसी श्मशान में आयेंगे. फिर वे क्यों हत्याएं करते हैं? सिद्धार्थ ने जीवन के चार दृश्य देखे और राजगद्दी पर लात मार दी. सिद्धार्थ से बुद्ध हो गये. दुनिया के लिए प्रकाश. यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में वर्णन है. जीवन का सबसे बड़ा आर्य क्या? युधिष्ठिर कहते हैं, हम रोज कंधे पर शव को लेकर श्मशान जाते हैं, पर कभी नहीं सोचते कि हमारा अंत भी यही है.
राजू धानुका की अंतिम यात्रा में ये प्रसंग भी मस्तिष्क में आये. पर किसी जीवन का ऐसे असमय, अचानक अंत न हो जाये, क्या इस पर भी लोग गौर करेंगे? यह स्थिति क्यों है?
क्योंकि :
(1) जहां त्वरित न्याय नहीं, वहां कानून का भय खत्म है.
(2) यह चर्चा आम है कि जहां थाने बिकते हों, बड़े अफसरों के पद नीलाम होते हों, वहां क्या पुलिस कानून-व्यवस्था सही रख सकती है? पुलिस के डीजीपी के अनुसार पुलिस व्यवस्था से चलती है या राजनीतिज्ञों के अनुसार?
(3) इस व्यवसाय में क्राइम कंट्रोल संभव है? हां, बगल में बिहार देखिए. कुछ वर्षों पहले तक अपहरण, हत्या और अराजकता का पर्याय माने जानेवाला. आज बड़े-बड़े अपराधियों के होश ठिकाने हैं. एक वर्ष पहले तक 3000 में से 1200 अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा. अनेक को मृत्युदंड या सख्त सजा. राजू धानुका की अंतिम यात्रा में आये एक व्यक्ति फरमा रहे थे. रांची अब पटना बन गया है. और पटना, रांची.
(4) बंद, प्रदर्शन या धरना गांधीवादी हथियार हैं. नैतिक हथियार हैं. इस अनैतिक समाज, भ्रष्ट और अक्षम व्यवस्था, मूकदर्शक बनी पुलिस और प्रशासन पर इन गांधीवादी विरोधों से कोई असर नहीं पड़नेवाला. यह वोट का समय है. जनता के लिए एक मौका. अगर रांची के हजारों-लाखों लोग इस कानून-व्यवस्था के खिलाफ सड़क पर निकलें और संकल्प करें कि जो पुलिस और प्रशासन से एक सप्ताह के अंदर जांच करा कर स्थिति स्पष्ट करेगा, हम उसी का समर्थन करेंगे. यह पहली मांग यूपीए के लोगों से होनी चाहिए, क्योंकि उनकी सत्ता रही है. राजनीतिज्ञों को बाध्य कर इस मामले से जोड़ना चाहिए. जो कानून-व्यवस्था सही नहीं दिला सकते, वे शासन के कैसे हकदार हैं?
(5) चेंबर ऑफ कॉमर्स को चाहिए कि वह रांची में ही विरोध न करे. झारखंड के 24 जिलों में संगठन सक्रिय करे. ये सभी संगठन हर वर्ग से मदद मांग कर हरेक समूह को जोड़े. चूंकि यह मामला सिर्फ एक व्यवसायी का नहीं है. कोशिश यह होनी चाहिए कि कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार के मुद्दे राज्य के लिए सवाल बनें.
(6) इस प्रयास के गर्भ से निकले नागरिक आंदोलन को पहल करनी चाहिए. हर नागरिक को शपथ दिलायी जाये कि वह जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर वोट नहीं देगा. वह भ्रष्टाचार और अराजक कानून-व्यवस्था के खिलाफ एकजुट होगा, क्योंकि ये दोनों मुद्दे हर एक को तबाह कर रहे हैं. समाज का भविष्य लील रहे हैं. अगर समाज बचेगा, तभी जाति, धर्म या आपके अपने स्वार्थ भी बचेंगे. इसलिए सबको साझा प्रयास करना होगा.
अगर ऐसी पहल हम नहीं कर सकते, तो ऐसी घटनाएं नहीं रुकनेवाली. अब लोगों को चुनना है कि वे क्या चाहते हैं? आज झारखंड कहां खड़ा है, यह जानने के लिए एक मुंबइया फिल्म के पुराने गाने की दो पंक्तियां…
जिन रातों की भोर नहीं
आज ऐसी ही रात आयेगी
अब हमें चुनना है कि भोर चाहिए या रात.