एक लंबे आंदोलन के बाद झारखंड अलग राज्य तो बन गया. मगर वह विकास के सूचकांक पर अपनी स्थिति बेहतर नहीं कर सका. फिर से लोगों के मन में निराशा घर करती जा रही है. राज्य को सुदृढ़ बनाने के प्रयास विफल होते जा रहे हैं. राज्य के ही कई इलाकों में विषमता के टापू देखने को मिल जायेंगे. हालांकि संभावनाएं अभी शेष नहीं हुई हैं. दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम हो तो झारखंड की सूरत बदल सकती है. 15 नवंबर हमारे लिए आत्मविश्लेषण का दिन भी होना चाहिए, जब हम यह मनन करें कि चूकें क्यों हो रही हैं और किससे हो रही हैं. इस विशेषांक में हमने कृषि, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, पर्यटन, खेल, उच्च शिक्षा, कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य, उद्योग, बिजली, सड़क और शहरी विकास को अपना मुद्दा बनाया है. इन मुद्दों पर विशिष्ट विद्वानों ने अपनी राय दी है. हमने अलग-अलग राज्यों में इस मुद्दे पर काम करनेवाले बेहतरीन मॉडलों की भी जानकारी दी है, ताकि विकास के बंद पड़े रास्ते खुल सकें.
दूसरों की नकल नहीं करें अपना मॉडल बनायें
देवेंद्र शर्मा
-पंजाब नहीं, बल्कि आंध्र प्रदेश की तर्ज पर कृषि मॉडल विकसित करने की जरूरत
झारखंड में कृषि के खस्ता हाल से सभी अवगत हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद कुछ खास सुधार नहीं हो रहा है. राज्य में कृषि सुधार के लिए सबसे पहले यहां की कृषि परिस्थितियों को समझा जाना चाहिए, जिसे बेहतर तरीके से अभी तक समझा नहीं जा गया है. राज्य की 80 फीसदी आबादी कृषि से जुड़ी हुई. उपज दर कम है. एक फसली खेती ज्यादा है. धान प्रमुख फसल है. सिंचाई की सुविधा नगण्य है. 92 फीसदी इलाका गैर सिंचित है. कृषि हालात सुधारने के लिए पंजाब मॉडल को लाने की कोशिश हो रही है, जबकि झारखंड के लिए यह ठीक नहीं है. पूर्वोत्तर में हरित-क्रांति का दूसरा चरण जिस तरह से जारी है, वैसा ही झारखंड में भी चल रहा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
झारखंड सरकार की कृषि नीति दीर्घ अवधि में खेती को तबाह करनेवाली है. मसलन, टांड़ क्षेत्र में हाइब्रिड धान को बढ़ावा देना बरबादी की ओर बढ़ना है. यूरोप के एक देश स्विट्जरलैंड का उदाहरण लें. यूरोप के अधिकतर देशों में उद्योगों का जाल बिछा, लेकिन पहाड़ों और नदियों के देश स्विट्जरलैंड ने ऐसा नहीं किया. वहां प्रचुर मात्र में लाइमस्टोन है, इसके बावजूद उसने सीमेंट उद्योग में दिलचस्पी नहीं ली. वह अपने पर्यावरण को बचाते हुए विश्व का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रहा. इसी तरह झारखंड को किसी की देखा-देखी कृषि मॉडल अपनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपना कृषि मॉडल विकसित करने की जरूरत है.
झारखंड में आदिवासी परंपरागत खेती करते रहे हैं. यह कम निवेश वाली और कम उत्पादक कृषि है. इसे समाप्त करने के बजाए टांड़ इलाके में पानी संरक्षण पर जोर देना चाहिए. हर खेत के लिए पानी के संरक्षण की योजना बनानी चाहिए. इस बारे में राज्य सरकार को जागरूकता फैलानी चाहिए. साथ ही, धान के हाइब्रिड बीज का इस्तेमाल तत्काल बंद कर देना चाहिए. केंद्र सरकार हाइब्रिड बीजों के इस्तेमाल के लिए राज्यों पर दबाव बना रही है. इससे बचने की जरूरत है. राज्य में पारंपरिक धान के बीजों को विकसित कर उन्हें इस्तेमाल में लाने की जरूरत है. झारखंड में कीटनाशक कंपनियों की वृद्धि दर 15 फीसदी दर्ज की गयी है. यह खतरनाक है. ‘श्री’ पद्धति से धान की रोपाई में पानी का कम इस्तेमाल होता है, इस अमल में लाना चाहिए. इससे पर्यावरण संतुलन कायम रहेगा. धान के अलावा वन उपज का भी महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है. बागबानी के साथ कृषि-वानिकी को लेकर चलने की जरूरत है. राज्य में टांड़ इलाका ज्यादा है, इसलिए ऐसी फसलों से बचना चाहिए जिन्हें नाइट्रोजन,फॉस्फोरस की जरूरत ज्यादा हो.
उत्पादन के साथ ही फसलों कीमार्केटिंग पर भी ध्यान देने की जरूरत है. आज झारखंड में मंडियों की भारी कमी है. सरकार को मंडियों का जाल बिछाना होगा. इसके लिए बजट का प्रावधान करना होगा. यहां किसान अपनी कृषि उपज लेकर आयेंगे और उनकी उचित कीमत पा सकेंगे. धान की कीमत झारखंड के किसानों को औसतन 800-900 रुपये क्विंटल ही मिल पाती है, जबकि पंजाब में यह दर 1250 रुपये क्विंटल है. मंडियां नहीं होने के कारण किसान लुट रहे हैं. मंडियों में वन उपज के भी क्रय-विक्रय की व्यवस्था की जानी चाहिए. वन उपज के लिए केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था लागू की है. राज्य सरकार को भी इसे लागू करना चाहिए. उसे राज्य कृषक मूल्य आयोग गठित करना चाहिए. यह आयोग वन उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे. वन उपज में लगभग 50 उत्पाद आते हैं.
राज्य में कृषि और डेयरी को एक में समाहित करने की जरूरत है. अक्सर दोनों को अलग कर देखा जाता है. किसानों को इस बात के लिए जागरूक करना चाहिए कि हरेक किसान के पास दो-चार पशु हों. राज्य में वर्मी कंपोस्ट का प्रचलन बढ़ रहा है. अन्य राज्यों को भी भेजा जा रहा है. इसे और बढ़ावा देने की जरूरत है. धान की पारंपरिक किस्में उपजाने वाले खेतिहरों को कम से कम 100 रुपये प्रति क्विंटल बोनस देने की व्यवस्था की जानी चाहिए. जैसे केरल और मध्य प्रदेश में गेहूं के लिए किसानों को बोनस दिया जाता है.
कुल मिला कर झारखंड को अपना मॉडल विकसित करना चाहिए, जैसे आंध्र प्रदेश ने किया है. आंध्र प्रदेश में गैर कीटनाशक प्रबंधन के आधार पर खेती हो रही है. इस प्रकार की खेती वहां लगभग साढ़े तीन लाख हेक्टेयर में हो रही है. किसान कीटनाशक का उपयोग नहीं करते. इससे किसानों और पर्यावरण दोनों को लाभ हो रहा है. आंध्र प्रदेश में कीटनाशकों के इस्तेमाल में 60 फीसदी कमी दर्ज की गयी है. ऐसा करने वाला यह इकलौता प्रदेश है.
झारखंड के पर्यावरणविद् परशुराम मिश्र ने पलामू में खेती का एक मॉडल शुरू किया था. इस मॉडल का नाम चक्रीय विकास प्रणाली था. मिश्र नहीं रहे और उनकी प्रणाली को भी भुला दिया गया. मिश्र ने गांव छोड़ चुके भू-स्वामियों से जमीन को किराये पर लेकर गांवों के लोगों से खेती करायी थी. इसके तहत उत्पादन का 30 फीसदी जमीन मालिक को, 30 फीसदी खेती करनेवालों को, 30 फीसदी गांवों के विकास के लिए और 10 फीसदी आकस्मिक दुर्घटना के समय के लिए सुनिश्चित किया गया था. राज्य में इस प्रणाली को दोबारा विस्तृत तौर पर फिर से लागू करने की जरूरत है.
आंध्र प्रदेश
अलग कृषि बजट पेश किये जाने पर सिर्फ चर्चा होती है, लेकिन आंध्र प्रदेश ने ऐसा करके दिखा दिया है. वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए 1.61 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया गया है. पिछले साल 79,924 करोड़ रु पये कृषि के लिए रखे गए थे, लेकिन इस साल 24 फीसदी की वृद्धि करते हुए 98,940 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है. आंध्र प्रदेश के 21 जिलों के 2.5 लाख किसान रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना ही फसल उगा रहे हैं. फसलों की उत्पादकता में कोई कमी नहीं आयी है. केवल कीटनाशकों पर खर्च होने वाला पैसा ही गांवों में रह जाए, तो इससे उन क्षेत्रों का कायाकल्प हो सकता है. आंध्र में 23 में से 21 जिलों में एक तरह से कृषि का कीटनाशक-विहीन प्रबंधन चल रहा है. 28 लाख हक्टेयर क्षेत्र में किसान रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. साथ ही चरणबद्ध तरीके से रासायनिक खाद को भी छोड़ रहे हैं. मिट्टी का स्वास्थ्य सुधरा है और बीमारियों पर होने वाले खर्च में करीब 40 फीसदी की कमी आयी है. यही नहीं, इस क्षेत्र में कृषि आमदनी बढ़ी है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई है.
छत्तीसगढ़ मॉडल से लें सबक
निकास किंडो
जन वितरण प्रणाली में सुधार के लिए सरकार और उसके तंत्र को सकारात्मक रवैया अपनाते हुए आम जन सहभागिता की जरूरत होगी. ज्यादा ध्यान नकदी फसल और कृषि बाजार पर केंद्रित है, न कि खाद्य सुरक्षा और संबंधित वितरण प्रणाली पर.
अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने अपनी नयी किताब ‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’ मे भारत के गांवों की तुलना सब-सहारा अफ्रीकी देशों से की है. वहीं भारतीय शहरों को ‘पॉकेट्स ऑफ कैलिफोर्निया’बताया है. सेन और द्रेज का यह निष्कर्ष दर्शाता है कि हम विश्व स्तर पर भले ही उभरे हों, पर एक बड़ी आबादी भूख और स्वास्थ्य-शिक्षा के घटिया स्तर से प्रभावित है. अगर झारखंड पर गौर करें, तो पाते हैं कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के 2009-10 के मानव विकास सूचकांक के अनुसार, राज्य मे सवा करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी के सबसे निचले स्तर पर हैं. बहुआयामी गरीबी सूचकांक की दर 0.441 है, जो राष्ट्रीय दर (0.283) से कहीं ज्यादा है. सबसे ज्यादा गंभीर बात ग्लोबल हंगर इंडेक्स के 17 बिंदु वाले पैमाने पर झारखंड का स्थान 16वां होना है. साथ ही साथ, जो आंकड़ा विचार करने योग्य है, वह यह कि राज्य में 5 वर्ष से कम उम्र के 57.1 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. झारखंड सरकार द्वारा तैयार दस्तावेज ‘झारखंड विजन 2010’ पर गौर करें, तो आंकड़े बताते हैं कि शुरुआती दौर से ही राज्य में आर्थिक- सामाजिक असमानता की दर व्यापक बनी हुई है. वल्र्ड फूड प्रोग्राम, झारखंड के आंकड़ों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि राज्य शुरू से ही खाद्य असुरक्षित राज्यों की श्रेणी में शुमार रहा है. विजन 2010 में 52 फीसदी खाद्य उत्पादन की कमी बतायी गयी है. इसमें प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खाद्यान्न उपलब्धता सिर्फ 250 ग्राम है.
झारखंड स्थापना और उसके बाद के आंकड़ों पर नजर डालें, तो व्यापक तौर पर खाद्य असुरक्षा और नकारा जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसे गंभीर अभाव सामने आते हैं. साल 2002 में पलामू जिले में भूख के कारण मौत की खबर सामने आयी. हालांकि सरकार ने इसे खारिज करते हुए शुतुरमुर्गी रवैया अपनाया. वहीं शोधकर्ताओं ने इसे गंभीरता से लिया. कई स्तर पर शोध के बाद ज्यां द्रेज और अन्य इस नतीजे पर पहुंचे कि आभाव बड़े स्तर पर था. पीने के साफ पानी, खेती में सूखे का प्रकोप, इस वजह से कम पैदावार और कम भोजन, कुपोषण, भूख संबंधित रोग से अकाल मृत्यु की बात सामने आयी. हालांकि बहुतों को ये नतीजे काल्पनिक लगे, लेकिन विभिन्न स्तर पर अध्ययन से पता चलता है कि वर्षा आधारित सिंचाई, भू-स्वामित्व का पैटर्न, जमीन की गुणवत्ता आदि के कारण खाद्य की उपलब्धता सीमित रहती है और खेती आधारित ग्रामीण जीवन व गरीब तबका खाद्य असुरक्षित बना रहता है.
झारखंड गठन के बाद हालांकि पीडीएस में कुछ सख्ती बरती गयी, लेकिन सरकार दारा लाभार्थियों की पहचान का तरीका असंतोषजनक रहा. मसलन, दुमका जिले के गोपीकांदर ब्लॉक में अन्नपूर्णा योजना के तहत 90 घरों की पहचान की गयी. लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक पूरे ब्लॉक के हर गांव में एक ही लाभार्थी परिवार था. एक दूसरे उदाहरण से पता चला कि ऐसे परिवार जो बमुश्किल एक वक्त का भोजन प्राप्त करते हैं, फिर भी राशन कार्ड के अभाव और बीपीएल की जटिल प्रक्रिया के कारण लाभ नहीं ले पाते. यह समस्या आदिवासी बहुल इलाकों में ज्यादा है और खास तौर पर ऐसे जनजाति समूहों के साथ जो जगंलों या दूरदराज के इलाको में रहते हैं. समूची बहस में झारखंड गठन से अब तक की स्थिति का जायजा लिया जाये, तो सरकार की योजनाओं और विकास कार्यक्रम में खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गंभीर नहीं रहा है. हालांकि राज्य को विभिन्न योजनाओं द्वारा खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की भरपूर कोशिश की गयी. इसके लिए सिंचाई का विकास, वैज्ञानिक खेती पद्धति और टिकाऊ कृषि प्रणाली पर विशेष बल दिया गया. दूसरा, उत्पादन के वैश्वीकरण, बाजार विकास और विस्तार, निर्यात आधारित उत्पादन जैसे बागबानी और फूलों की खेती पर विशेष ध्यान दिया गया. यानी, ज्यादा ध्यान नकदी फसल और कृषि बाजार पर केंद्रित है, न कि खाद्य सुरक्षा और पीडीएस पर. राज्य गठन और उसके बाद अपनायी गयी विकास प्रक्रिया के बीच भले ही भूख और खाद्य सुरक्षा संबंधित विषय छोटे लगते हों, लेकिन लंबे समय तक इसे नजरअंदाज करना भयवाह परिणाम को न्योता हो सकता है. अब सवाल यह है कि केंद्र सरकार द्वारा लाये गये खाद्य सुरक्षा कानून को झारखंड में कारगर तौर पर लागू करने में क्या चुनौतियां हैं. ज्यां द्रेज द्वारा किये गए अध्ययन से पता चलता है कि संस्थागत रिसाव (भ्रष्टाचार या चोरी) एक व्यापक समस्या है. पीडीएस में इस समस्या से निबटने के लिए एक बेहतर संस्थागत ढांचे की जरूरत होगी. पीडीएस को कारगर बनाने के लिए राज्य को छत्तीसगढ़ मॉडल से सबक लेना चाहिए.
आज छत्तीसगढ़ उन चुनिंदा राज्यों में से एक है जिसने खाद्य सुरक्षा और पीडीएस में उपलब्धियां हासिल की हैं. पिछले दिनों जब देश में खाद्यान्न कूपन और सीधे नकद ट्रांसफर की बहस हो रही थी, तब छत्तीसगढ़ के पीडीएस ने बहस को नयी दिशी में मोड़ दिया. सरगुजा जिले में हुए एक सर्वेक्षण में 93 फीसदी लाभार्थियों द्वारा पीडीएस को सार्थक बताना हैरानी भरा था. क्योंकि 2009 में इसी जिले में मनरेगा को लेकर ज्यां द्रेज के अध्ययन में भारी अनियमितता सामने आयी थी. आज खाद्य सुरक्षा के मामले में झारखंड को ठोस सुधार की जरूरत है. राज्य में 2009 में हुए बीपीएल सर्वेक्षण के बाद 11.4 लाख परिवारों को पीडीएस से जोड़ने का काम चल रहा है. लेकिन जो जानकारी है, उसके अनुसार पीडीएस दुकानों से लोग खाली हाथ लौट रहे हैं. इसमें सुधार के लिए सरकार और उसके तंत्र को सकारात्मक रवैया अपनाते हुए आम जन सहभागिता की जरूरत होगी.
छत्तीसगढ़
आज पूरे देश में छत्तीसगढ़ की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को एक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि छत्तीसगढ़ की तर्ज पर देश में पीडीएस की व्यवस्था की जानी चाहिए. राज्य निर्माण के समय नवंबर 2000 की स्थिति में छत्तीसगढ़ में इस प्रणाली के तहत सहकारी समितियों के माध्यम से उचित मूल्य की 6, 501 दुकानें चल रही थीं. अब इनकी संख्या 10 हजार से ज्यादा है. राशन की दुकानें सहकारी समितियों, ग्राम पंचायतों, महिला स्वयं-सहायता समूहों और वन प्रबंध समितियों द्वारा संचालित की जा रही हैं. राशन दुकानों के जरिए राज्य सरकार लगभग 55 लाख राशन कार्डधारक परिवारों को हर महीने किफायती दर पर चावल, गेहूं, शक्कर और मिट्टी के तेल जैसी जरूरी वस्तुएं नियमित रूप से उपलब्ध करा रही है. व्यवस्था को और अधिक सशक्त करते हुए इसकी समस्त प्रक्रियाओं का कंप्यूटीकरण किया गया है. प्रदेश के 34 लाख से अधिक राशन कार्डधारकों के नाम, निवास स्थान, बीपीएल सर्वे सूची का क्रमांक, संलग्न उचित मूल्य दुकान की जानकारी सहित राशन कार्ड का पूरा डेटाबेस तैयार किया गया है.
जन भागीदारी से ही विकास
मेरी रजनी टोप्पो
बगैर नक्सल समस्या को दूर किये, राज्य में पर्यटन विकास की कल्पना कठिन प्रतीत होती है. सरकार को लोगों के हित में पर्यटन विभाग के लिए नीतियां बनानी चाहिए. स्थानीय लोगों द्वारा मेजबानी को तवज्जो देना चाहिए.पर्यटन लोगों की खुशी व मन बहलाव के लिए किसी जगह के भ्रमण के दौरान आवास, सेवा व मनोरंजन से जुड़ी एक व्यावसायिक गतिविधि है. पर्यटन केवल संस्थागत मौद्रिक लाभ के लिए नहीं होता, बल्कि राज्य व देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए होता है.
पर्यटन और आर्थिक विकास के बीच सकारात्मक संबंध को दर्शानेवाली कई पुस्तकें हैं. झारखंड लाल गलियारे का हिस्सा बना हुआ है, लिहाजा बगैर नक्सल समस्या दूर किये यहां पर्यटन विकास की कल्पना कठिन दिखती है. भारत का संविधान आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन का मूलभूत अधिकार देता है. लेकिन विकास के नाम पर इन लोगों को लगातार अपनी जमीन से विस्थापित किया जा रहा है. बलपूर्वक उन्हें उनकी मूलभूत जरूरतों और पहचान से वंचित किया जा रहा है. आदिवासी ही नहीं, राज्य के लगभग सभी लोग सरकार से आशा छोड़ चुके हैं. इसलिए सरकार को लोगों के हित में पर्यटन नीति बनानी चाहिए.
पर्यटन में केवल सांस्कृतिक व पर्यावरणीय पर्यटन को ही नहीं समाहित करना चाहिए, बल्कि स्थानीय लोगों के लाभ का भी ध्यान रखना चाहिए, जो पारिस्थितिकी पर्यावरण से ही संभव है. पर्यावरण में छेड़छाड़ से पर्यटकों के साथ ही स्थानीय लोगों के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो जायेगी और इससे पर्यटन व्यवसायियों और समाज में भय का वातावरण व्याप्त हो जायेगा. समान्यत: पयर्टन को मार्केटिंग उपकरण के तौर पर व्यवहार में लाया जाता है, जिसमें स्थानीय लोगों को दरकिनार कर दिया जाता है. सांस्कृतिक अस्थिरता और पर्यावरणीय गिरावट से इतर स्थानीय लोगों द्वारा मेजबानी को तवज्जो देना चाहिए. झारखंड के आदिवासी प्रकृति के नजदीक और उस पर आश्रित हैं. वे जानवरों, पेड़-पौधों, मनोरम जगहों से अच्छी तरह वाकिफ हैं. इन्हें गाइड के तौर पर प्रशिक्षण देना चाहिए. इससे पयर्टक सहजता से स्थानीय मूल्यों को जान सकेंगे और संवेदनशीलता से परिचित हो पायेंगे. स्थानीय समुदाय को यह निर्णय करने की छूट दी जाये कि पर्यटन विकास के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए और लाभों का कैसे वितरण किया जाये. देश में पर्यटन के विकास की जिम्मेवारी मुख्य रूप से पर्यटन मंत्रलय, पर्यटन महानिदेशक और भारतीय पर्यटक विकास निगम आदि पर है. मंत्रलय पर पर्यटन से जुड़ी नीतियां बनाने, वित्त व संबंधित एजेंसियों में तालमेल स्थापित करने की जिम्मेवारी है. जबकि महानिदेशक पर विकासात्मक कार्य और आइटीडीसी पर होटल, परिवहन जैसी सुविधा प्रदान करने की.
महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर विशेष सतर्कता बरती जानी चाहिए. इस बात पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि पर्यटन स्थलों पर होनेवाले विभिन्न आयोजनों से स्थानीय परंपरा, संस्कृति व मानवीय मूल्यों पर नकरात्मक असर न पड़े. साथ ही पयर्टकों से स्थानीय लोग प्रताड़ित न हों. विभिन्न अध्ययनों से ये तथ्य सामने आये हैं कि पर्यटन स्थलों और उसके आसपास महिलाओं को ‘यौन वस्तु’ के तौर पर इस्तेमाल करने का प्रचलन बढ़ता है. इसलिए इस मामले में सतर्क रहना जरूरी है. स्थानीय सलाहकार परिषद, गांवों के मुखिया, नागरिक समाज को पर्यटन से जुड़ी नीतियां व कानून बनाने में भागीदारी बनाना चाहिए. उनकी सामाजिक जिम्मेवारी तय करनी होगी. इस दिशा में गुड गवर्नेस के लिए प्रबंधन कुशलता की जरूरत होगी. पर्यटकों की जरूरत की चीजों व सेवाओं के बारे में समझना होगा और इनकी बिक्री को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान देना होगा. इसके लिए बेहतर शोध कार्य, पयर्टकों के फीडबैक को तवज्जो देना चाहिए. पुराने गेस्ट हाउस, डाक बंगला, दर्शनीय स्थलों आदि को नये तरीके से सुसज्जित करना होगा.
पयर्टन के बढ़ावा देने में केवल पूंजीवादी रवैया नहीं अपनाना चाहिए. राजस्व संग्रह के लिए अनुचित तरीकों का इस्तेमाल न हो. गैर योजनाबद्ध पर्यटन का असर प्रकृति पर पड़ना लाजिम है, लिहाजा कुछ उपाय किये जाने चाहिए. पर्यटकों से मनोरम दृश्यों वाले स्थानों, पेड़-पौधों, पानी व वायु पर पड़ने वाले प्रभावों के विेषणात्मक आंकड़े जुटाने चाहिए. भूमि विकास, भवन-दुकान व अन्य निर्माण संबंधी जानकारी जुटाई जानी चाहिए. पर्यटकों के साथ व्यवहारों में बदलाव लाना चाहिए. उम्रदराज और अक्षम पर्यटकों के लिए सुविधाओं का विशेष ध्यान देना चाहिए. पर्यटन उद्योग की जरूरतों के लिहाज से पाठ्यक्रमों के प्रसार के लिए प्रबंधन व दूसरे शिक्षण संस्थानों को स्थापित करना चाहिए. ऐसे संस्थानों को स्थापित करने का उद्देश्य पर्यटन के साथ-साथ कृषि, वन, खनन आदि क्षेत्रीय विकास में निहित होना चाहिए. प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी, पेट्रोल की जगह गैस के इस्तेमाल, पहाड़ी इलाकों में रोप-वे निर्माण को बढ़ावा देने की जरूरत है. ऐसा करने के लिए सरकार को ग्रामीण इलाकों में बिजली की अबाध आपूर्ति करनी होगी और इसका लाभ पर्यटकों के साथ ग्रामीणों को सबसे ज्यादा मिलेगा.
गोवा
स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता की जरूरत
डॉ विजय बड़ाइक
स्वास्थ्य सुविधाओं के लिहाज से झारखंड में कई चुनौतियां हैं. अधिकतर जिलों में संस्थागत प्रसव सुविधा की स्थिति बेहद खराब है. लातेहार और साहेबगंज में 10 फीसदी से भी कम प्रसव संस्थागत तरीके से हो पाते हैं. इसी तरह टीकाकरण के हालात हैं. गोड्डा और गिरिडीह में टीकाकरण 30 फीसदी तक ही सीमित है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रलय के आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में ओड़िशा के बाद सबसे ज्यादा (1,52,061) मलेरिया के मामले सामने आये. स्वास्थ्य सेवा प्रदान या प्राप्त करने में भौगोलिक स्थिति, दूरी, संपर्कता, मौसमी स्थिति व यातायात आदि बड़े अवरोधक हैं. राज्य में केवल 1.6 फीसदी रिहाइश ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के समीप (एक किलोमीटर के भीतर) है. वहीं 20.8 फीसदी रिहाइशों की प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से दूरी 5 किलोमीटर, जबकि 50 फीसदी रिहाइश प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से 10 किलोमीटर से ज्यादा दूर है. स्वास्थ्य संबंधी विषयों को केवल सेहत व रोग के नजरिये से देखना अनुचित होगा, बल्कि इसे बड़े फलक पर देखने की जरूरत है. इसे शिक्षा, रोजगार व आय, कृषि और खाद्य उत्पादन व उपलब्धता, अवसंरचना से जोड़ कर देखना चाहिए और इस दिशा में सामाजिक व वित्तीय अवरोधों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए.
स्वास्थ्य सेवाओं के भौगोलिक पहलू के लिहाज से दूरियों की मैपिंग करनी चाहिए और आखिरी व्यक्ति तक पहुंच बनानी चाहिए. दूरदराज के इलाकोंजैसे सिमडेगा व पलामू में भी अच्छे अस्पताल विकसित किये जाने चाहिए. रांची के अच्छे अस्पतालों से इन इलाकों की दूरी 100 किलोमीटर से ज्यादा की है.साथ ही राज्य में मेडिकल कॉलेजों और शोध संस्थानों की स्थापना पर भी ध्यान देने की जरूरत है. आधुनिक जियो-इंफॉरमेटिक्स उपकरणों व तकनीकों को योजना, प्रबंधन, निगरानी और आंकलन में इस्तेमाल करना चाहिए. राज्य के विभिन्न हिस्सों में सुपर स्पेशलाइज्ड स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा देने के लिए टेली-मेडिसिन जैसे माध्यमों को इस्तेमाल में लाया जा सकता है.
सांस्कृतिक लक्षणों के कारण राज्य में आधुनिक चिकित्सीय प्रणाली के प्रति रुझान काफी कम देखे जाने की बात कही जाती थी, क्योंकि 26.3 फीसदी आदिवासी जनसंख्या है. लेकिन इस विचार में बदलाव होता दिखा है. लोग गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की मांग कर रहे हैं. अब लोग आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति मुखर हो रहे हैं. यह समय है, राज्य कीबेहतर सेहत के लिए वहन करने लायक गुणवत्ता आधारित सेवाएं मुहैया कराने का.
तमिलनाडु
तमिलनाडु ने जेनेरिक दवाओं की केंद्रीकृत खरीद और तमाम सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए उनके विकेंद्रित वितरण का अनूठा मॉडल विकसित किया है. इससे लोगों को पहले की अपेक्षा 30-40 फीसदी सस्ती दरों पर दवा उपलब्ध हो रही है. तमिलनाडु की तर्ज पर देश के सभी सरकारी अस्पतालों में ई-स्वास्थ्य कार्यक्रम व्यवस्था स्थापित किये जाने की तैयारी हो रही है. तमिलनाडु में मरीज के रजिस्ट्रेशन से लेकर उसकी जांच और निदान के सारे ब्योरे कंप्यूटर में दर्ज होते हैं. हर मरीज को एक विशेष नंबर जारी होता है, जिसके आधार पर वह किसी भी अस्पताल में आसानी से इलाज करवा सकता है.
भारत को खेल महाशक्ति बनाने का अगुवा बने झारखंड
अभिषेक दुबे
झारखंड की जड़ों में खेल की स्वाभाविक संस्कृति है. आबादी युवा है. शारीरिक और मानसिक तौर पर इसका एक बड़ा हिस्सा स्वाभाविक एथलीट है. लेकिन गली-गांव के मैदान से विश्व-खेल मानचित्र के फासले को पाटने के लिए आधुनिक शोध के आधार पर एक तय फॉर्मूले पर चलने की जरूरत है.
‘‘महेंद्र सिह धौनी ने भले ही झारखंड को मौजूदा विश्व खेल मानचित्र पर लाने का काम किया हो, लेकिन जैसा हमेशा हमें अपने संपादक को समझाने मे दिक्कत होती है, झारखंड का दायरा यहां खत्म नहीं होता. झारखंड से महान जयपाल सिह मुंडा भी आये जिनकी धमक हॉकी मैदान से लेकर संविधान सभा होते हुए राजनीति के मैदान तक थी.’’- दिल्ली मे बीते साल देशभर से आये टीवी पत्रकारों के एक सेमिनार में जब झारखंड के एक युवा पत्रकार ने अपनी बात रखी, तो एक सवाल आया- जयपाल सिह मुंडा कौन? ‘देश के भीतर देश’ के इस दुखद सच का एहसास जयपाल सिंह को देश की आजादी की शुरुआत से था, जब संविधान सभा में उन्होंने अपने भाषण मे कहा- ‘‘एक वनवासी और एक आदिवासी होने की वजह से मुझसे यह उम्मीद की जाती है कि मैं प्रस्ताव की कानूनी बारीकियों को नहीं समझता हूं. लेकिन मेरा सामान्य ज्ञान कहता है कि हम मिल कर आजादी के रास्ते पर चलें और साथ लड़ें. हमारे लोगों का इतिहास लगातार शोषण और गैर आदिवासियों द्वारा बलपूर्वक विस्थापन और बगावत का इतिहास रहा है. बावजूद इसके मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत आपहर किसी की बात पर यकीन करता हूं कि हम नया अध्याय लिखेंगे, जिसमें हर किसी को बराबर का मौका मिलेगा.’’
आजादी के 66 साल बाद भी इस मौके का इंतजार है. लेकिन खेल का मैदान एक ऐसी जगह है, जो दबी प्रतिभाओं और संभावनाओं को मंच देने का काम करता है. मोहम्मद अली से लेकर अर्थर आश इसकी मिसाल है और इसे समझने के लिए भारत मे झारखंड से बेहतर प्रयोगशाला नहीं. झारखंड मे खूंटी के पास एक गांव है तपकारा. मुंडा बहुल इस गांव से एक नाम ऐसा है जिसकी धमक हॉकी से लेकर सियासत के मैदान तक रही. जबरदस्त टैक्लिंग, सूझबूझ भरे गेमप्लान और ताकतवर हिटिंग के लिए चर्चित हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिह मुंडा 1928 के ओलिंपिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे. हॉकी में जबरदस्त डिफेंडर रहे जयपाल की नेतृत्व क्षमता को हर किसी ने, पहले आदिवासी सभा के और फिर झारखंड पार्टी के अगुवा के तौर पर माना. तब खूंटी रांची जिले में ही था. अलग झारखंड की स्थापना के चार साल बाद रांची के ही एक विरले के एक ऐसे सफर की शुरुआत हुई जो नयी ऊंचाइयों छू चुका है. 2007 में टी-20 वल्र्ड कप में जीत से लेकर 2013 में चैंपियन्स ट्रॉफी तक, धौनी ने अपनी लीडरशिप में हर मुमकिन खिताब को अपनी टीम के नाम किया है. जयपाल से लेकर धौनी ने अपनी लीडरशिप मॉडल से बीते 60 साल के दो अलग दौर में साबित किया है कि नेतृत्व क्षमता पर किसी का एकाधिकार नहीं.
झारखंड की जमीन से आये खिलाड़ियों की फेहरिस्त लंबी है. हॉकी में अगर जयपाल स्ंिाह की विरासत को मनोहर टोपनो, माइकल किंडो, वीरेंद्र लकड़ा और बिमल लकड़ा ने आगे बढ़ाया तो क्रिकेट में धौनी के रास्ते पर वरुण एरोन, सौरभ तिवारी और शाहबाज नदीम चल पड़े हैं. संजीव सिंह, मीना कुमारी, मंगल सिह चंपिया और राजकुमार सावांग जैसे तीरंदाजों की मजबूत नींव पर आलीशान इमारत बनाने का काम दीपिका कुमारी कर रही हैं, तो इंडिया प्रीमियर लीग से लेकर इंडियन हॉकी लीग तक को राज्य के खेल-प्रेमियों का समर्थन जगजाहिर है. अगर झारखंड के गांव-मोहल्लों मे खेल की प्रतिभाओं पर नजर दौड़ायें, तो ये सिर्फ विशाल संभावनाओं के बीच एक छोटा सा नमूना है. झारखंड का एक बड़ा हिस्सा युवा है. राज्य के युवा वर्ग में जातीय मूल, धर्म और सामाजिक-आर्थिक पैमाने के आधार पर 32 अधिसूचित जनजातियां और सैकड़ों दूसरे समुदाय शामिल हैं. जैसा कि खेलों के बारे में किये गये शोध बताते हैं, यही विविधता खेल के मैदान में एक बड़ी ताकत बन सकती है और खेल अलग-अलग समुदायों को जोड़ने का एक जरिया बन सकता है. ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका सही मायने में ‘खेल राष्ट्र’ के तौर पर सामने आये हैं. यहां खेलों में टैलेंट पूल बढ़ाने के लिए हर उस वर्ग को जोड़ने की कोशिश की गयी है, जो नैसर्गिक और स्वभाविक तौर पर स्पोर्ट्स मे आगे हैं. अमेरिका और चीन जैसे देशों में भी इस टैलेंट पूल पर खासा काम किया गया है और नतीजा हर किसी के सामने है. अगर भारत को ओलिंपिक स्पोर्ट्स से लेकर क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेल में अपना वर्चस्व बनाना है, तो झारखंड जैसे खेल के विशाल पावर हाउस पर खास तौर पर काम करना होगा. झारखंड की जड़ों में खेल की स्वाभाविक संस्कृति है. अबादी युवा है. शारीरिक और मानसिक तौर पर एक बड़ा तबका स्वाभाविक एथलीट है. लेकिन गली-गांव के मैदान से विश्व-खेल मानचित्र पर आने के लिए आधुनिक शोध के आधार पर एक तय फॉर्मूले पर चलने की जरूरत है.
पहला, राज्य में स्पोर्ट्स टैलेंट के पॉकेट्स पर काम करने के लिए स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी में शोध की जरूरत है. इन पॉकेट्स मे खेल प्रतिभाओं का शारीरिक और मानसिक मूल्यांकन हो और इसके आधार पर ट्रेनिंग के मॉड्यूल तैयार किसे जायें. मिसाल के तौर पर अगर इसको आधार बना दीपिका कुमारी पर काम किया जाता, तो शायद वह लंदन ओलिंपिक में मेडल जीत कर लौटती. दूसरे, ऐसे खेलों की पहचान की जाए जिनमें झारखंड अपना योगदान दे सकता है. हॉकी में झारखंड का खासा योगदान रहा है और क्रिकेट में धौनी ने इस राज्य को नया आयाम दिया है, लेकिन यहां ऐसे भी गांव हैं जहां बच्चों के बीच मुक्केबाजी की परंपरा है. ये बच्चे फुर्तीले भी हैं और इनके शरीर पर चर्बी नहीं बैठती. क्या ये मुक्केबाजी में विश्व स्तर पर नही पहुंच सकते? तीरंदाजी झारखंड की विरासत है, लेकिन क्या यही एकाग्रता शूटिंग में कामयाबी नहीं दिला सकती? झारखंड के अलग-अलग चुनौतीपूर्ण हिस्सों में पांव के बाद साइकिल का नंबर आता है, क्या यहां से साइकिलिस्ट नहीं निकल सकते?
तीसरा, मजबूत खेल और खेलों के पॉकेट्स तय होने के बाद, इन हिस्सों में हर सुविधाओं से लैस अकादमी बनाये जाने की जरूरत है. ये अकादमियां सुनिश्चित करेंगी कि बचपन की प्रतिभा गुम न हो और उन्हें लगातार निखारा जा सके. चौथा, राज्य में देश की पहली विश्व स्तरीय स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी बने जिसमें कोच की पौध तैयार हो जो अलग अलग हिस्सों में जाकर खिलाड़ियों को प्रशिक्षित करें. दुनिया भर में ऐसी परिस्थिति में काम करनेवाले खेलों से जुड़े रिसर्च स्कॉलरों को जोडे और राज्य में खेल को उद्योग बनाने के लिए एक टैलेंट बेस तैयार करें. पांचवा, खेलों के टैंलेंट पॉकेट्स, सुविधाएं और टैलेंट की पहचान के लिए बने सिस्टम के लिए कॉरपोरेट फंडिंग के रास्ते निकाले जायें.
हरियाणा
अर्धसैनिक बल नहीं,पुलिस बढ़ायें
जेके सिन्हा
झारखंड की कानून-व्यवस्था के समक्ष सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद की है. नक्सल समस्या मुख्यत: दो विभागों खनन और वन से जुड़ा हुआ है. वन क्षेत्र में वन के ठेकेदारों और नक्सलियों में सांठगांठ हो गयी है. ठेकेदार वन उपज के बदले नक्सलियों को चंदा देते हैं. वन क्षेत्र में पुलिस का रोल सीमित है. यही नहीं अब नक्सली, ठेकेदार और राजनेताओं के बीच सांठगांठ होने के कारण पुलिस को कार्रवाई करने में दिक्कत होती है. ठेकेदार वन उत्पादों की ब्रिकी कर करोड़ों कमाते हैं, लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की स्थिति जस की तस बनी हुई है. इसी स्थिति का फायदा उठा कर नक्सलियों ने इनके बीच अपना आधार विकसित किया. इन वन क्षेत्रों में सड़कें अच्छी नहीं है. इससे पुलिसिंग के काम में दिक्कत आती है. अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए नक्सली नहीं चाहते कि इन इलाकों में अच्छी सड़कें बनें.
मेरा मानना है कि झारखंड का निर्माण जल्दबाजी में किया गया. सही मायने में यह आदिवासी राज्य तब होता, जब पश्चिम बंगाल, ओड़िशा के आदिवासी बहुल इलाके भी इसमें शामिल किये जाते. दरअसल हम झारखंड की पहचान को नहीं समझ पाये. झारखंड में पारंपरिक शासन की व्यवस्था बहुत पुरानी है. अंग्रेजों ने इस आदिवासी बहुल इलाके में शासन चलाने के लिए विलकिंसन कानून लागू किया था. साथ ही आदिवासियों के संरक्षण के लिए छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बनाया. यही नहीं, यहां पर शासन को बेहतर तरीके से चलाने के लिए कोल्हान मजिस्ट्रेट को स्थानीय भाषा की जानकारी होना अनिवार्य किया गया था. लेकिन आजादी के बाद यह सब भुला दिया गया. विकास के नाम पर आदिवासियों का शोषण होने लगा. इससे शासन और आदिवासियों के बीच विश्वास में कमी आयी. साथ ही पुलिस के काम करने का तरीका भी पुराना बना रहा अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह के बाद पुलिस बल का गठन किया और उनका मकसद कम से कम खर्च में पुलिसिंग करना था. लेकिन समय के साथ पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के उपाय नहीं किये गये. जब नक्सल समस्या का उभार हुआ तो सरकार ने पुलिस को दुरुस्त करने की बजाय सीआरपीएफ का विस्तार किया. हमें ध्यान रखना चाहिए कि कानून-व्यवस्था बेहतर पुलिसिंग से ही ठीक हो सकती है, अर्धसैनिक बलों के सहारे इसे ठीक नहीं किया जा सकता है. पुलिस को स्थानीय क्षेत्र की बेहतर जानकारी होती है और उसके स्थानीय सूत्र भी होते हैं. आबादी बढ़ने के साथ ही समस्याएं बढ़ी हैं. ऐसे में पुलिस का आधुनिकीकरण करने की जरूरत है. पुलिस के कामकाज में दखल बंद होना चाहिए. झारखंड को अगर कानून-व्यवस्था बेहतर करनी है, तो आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए और पुलिसिंग में मूलभूत बदलाव होने चाहिए.
केरल
केरल का नाम कानून-व्यवस्था के लिहाज से शीर्ष राज्यों में शुमार होता रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक भी केरल कानून-व्यवस्था की दृष्टिकोण से अव्वल राज्य है. केरल इकलौता राज्य है, जहां पुलिस बल में कोई पद खाली नहीं है. केरल में पुलिस और जनता का अनुपात 1.725 का है, जो 2009 में 1.800 का हुआ करता था. पिछले पांच सालों में 20,000 नयी भर्तियों के साथ केरल पुलिस बल की कुल संख्या 50,000 से अधिक हो गयी है. राज्य की पुलिस व्यवस्था किस कदर चुस्त-दुरुस्त है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सार्वजिनक स्थलों पर धूम्रपान करते पकड़े गये लोगों से पांच महीने के दौरान जुर्माने के रूप में 15 लाख रु पये वसूले गये. 2011 में राज्य में संज्ञेय अपराधों की संख्या 1,72,137 थी, जो पिछले वर्ष घट कर 1,58,989 रह गयी.
हरेक जिले में कम से कम एक बड़ा उद्योग स्थापित हो
पीके चौबे
झारखंड जब अलग राज्य बना, तब यहां के लोगों की आशाएं आसमान छू रही थीं. ये आशाएं राज्य में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता को देखते हुए थीं. झारखंड में औद्योगिक विकास की उच्च संभावनाएं होने के बावजूद यह पश्चिम एवं दक्षिण के राज्यों की तुलना में औद्योगीकरण में पिछड़ा हुआ है. इस कारण राज्य की राजस्व प्राप्तियां और केंद्र से करों का हिस्सा तुलनात्मक दृष्टि से कम है. जब तक यहां बड़े उद्योगों की स्थापना नहीं होगी, राज्य के पास स्वयं के संसाधनों की कमी बनी रहने का अनुमान है. राज्य की लगभग सैकड़ों विकास परियोजनाएं पर्यावरण के नाम पर रुकी हुई हैं.
राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत हिस्से पर वन-आच्छादन आवश्यक है. भारत के कुल 21 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन-आच्छादन है. इसलिए वन क्षेत्र बढ़ाया जाना जरूरी है. पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, उत्तरप्रदेश तथा बिहार- इन छह राज्यों में वन क्षेत्र सात प्रतिशत से भी कम है. वहीं, झारखंड में 30 प्रतिशत भू-भाग पर वन है. राज्य के जिन क्षेत्रों में विकास योजनाएं अटकी पड़ी हैं, वहां पर वन क्षेत्र 50 प्रतिशत से भी अधिक है. इसलिए उक्त छह राज्यों का पैमाना झारखंड के लिए अपनाना इस राज्य के साथ अन्याय है. साथ ही साथ, क्षेत्रीय विषमता दूर करने के लिए जिन जिलों में एक भी बड़ा उद्योग नही है, वहां खनिज आधारित कम से कम एक बड़ा उद्योग लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए. भारत के प्रमुख खनिजों की 90 प्रतिशत खदानें वन क्षेत्र में हैं. राज्य को खनिज आधारित उद्योगों से उचित रॉयल्टी भी नहीं मिल रही है. जिस प्रकार से राज्य में उद्योग स्थापना के लिए जन-सुनवाई होती है, उसी प्रकार खनिज निर्यात की अनुमति भी जन-सुनवाई के बाद दी जानी चाहिए. विकास की कोई भी बड़ी परियोजना हो, पर्यावरण क्षति के रूप में एक बड़ी सामाजिक लागत लगती है. बेहतर तरीका तो यही है कि नवीन प्रौद्योगिकी एवं कुशल पर्यावरण प्रबंधन द्वारा पर्यावरण क्षति को न्यूनतम किया जाये. यह इतना महत्वपूर्ण विषय है कि संधारित विकास की आवश्यकताओं को देखते हुए राज्य में एक ऐसे पर्यावरण प्रबंधन व विकास नीति अध्ययन संस्थान की आवश्यकता है जो नियमित रूप से संधारित विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करके शासन को नीतिगत सुझाव देता रहे.
आदित्यपुर, बोकारो और रांची में औद्योगिक विकास प्राधिकरण गठित हैं, जो भूमि अधिग्रहण और इंफ्राट्रर सुविधाओं के लिए जिम्मेवार हैं. जबकि राज्य को हरेक जिले में भूमि बैंक गठित करना चाहिए. इसके जरिए कम से कम 500 एकड़ भूमि अधिग्रहण किये जाने की जरूरत है. सभी निजी कंपनियां अपने बूते सभी जरूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं हैं. फिलहाल केवल खनन आधारित उद्योग ही राज्य के उद्योग जगत की रीढ़ बने हुए हैं. कई बड़ी निजी कंपनियों के साथ राज्य में उद्योग स्थापित करने के लिए एमओयू हुए, लेकिन ये धरातल पर नहीं उतर सके हैं. निजी कंपनियों का राज्य से मोहभंग होता दिख रहा है. इसलिए राज्य सरकार को दोबारा अपनी औद्योगिक नीति पर विचार करना चाहिए और अवरोधों को दूर करने की कोशिशें तेज करनी चाहिए. हाल के दिनों में, निवेश के माहौल पर भूमि अधिग्रहण को लेकर उत्पन्न होने वाली समस्याओं के कारण असर पड़ा है. सिर्फ बड़े उद्योगों पर ही ध्यान केंद्रित न हो, बल्कि मध्यम, लघु व कुटीर उद्योगों पर भी समान रूप में ध्यान देने की जरूरत है.
गुजरात
गुजरात देश में औद्योगिक घरानों के लिए निवेश का मनपसंद राज्य बन गया है. गुड गवर्नेस राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में निवेश करने के लिए निवेशकों को आकर्षित करता है. इंजीनियरिंग, पेट्रोकेमिकल्स, फार्मास्यूटिकल्स, सीमेंट के अलावा आइटी, इलेक्ट्रॉनिक्स, डेयरी और खाद्य प्रसंस्करण, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में गुजरात अग्रणी राज्यों में शुमार है. स्थानीय उद्योगों को भी बढ़ावा दिया गया है. मसलन, अंतरराष्ट्रीय पतंग उत्सव आयोजित कराने वाले गुजरात में पतंग उद्योग 175 करोड़ रुपये का हो चुका है. राज्य में औद्योगिक विकास के लिए अवसंरचना को काफी मजबूत किया गया है. गुजरात में बिजली, सड़क, रेल नेटवर्क, हवाई अड्डे, गैस ग्रिड आदि अवसंरचनाएं बेहतर अवस्था में हैं.
शुद्ध ज्ञान-विज्ञान से जुड़े संस्थान भी बनें
जोसेफ बाड़ा
शिक्षा से मानव विकास होता है, शिक्षा ही झारखंड के भाग्य का फैसला करेगी. ऐसे में यह समय है कि हम उच्च शिक्षा पर गौर करें.
भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) में झारखंड से हर साल अच्छी संख्या में उम्मीदवार हिस्सा लेते हैं. देश के ख्यातिप्राप्त संस्थानों जैसे आइआइटी और आइआइएम में भी दाखिला लेते हैं. राज्य में उच्च शिक्षा के हालात के बेहतर संकेतों के उलट यह इसकी दयनीय हालात को भी दर्शाता है. अच्छे स्कूलों से पास छात्र जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का भार उठा सकते हैं, वे राज्य के बाहर चले जाते हैं. यह स्थिति 70 के मध्य में जेपी आंदोलन के बाद ज्यादा पैदा हुई है. गौर करने लायक बात यह है कि राज्य में उच्च शिक्षा के ढांचे की जड़ें कमजोर हैं. बंगाल से तुलना करें तो बिहार प्रांत काफी पिछड़ा था और इस कारण ब्रिटिश अधिकारियों का ध्यान इस ओर गया. बिहार प्रांत के अधीन भी झारखंड में उच्च शिक्षा का विकास काफी धीमा रहा.
झारखंड का पहला विश्वविद्यालय रांची विश्वविद्यालय 1960 में बना, जो कि पटना विश्वविद्यालय के गठन के 50 साल बाद स्थापित हुआ. संत कोलंबा कॉलेज, हजारीबाग में 1899 से ही मौजूद था, लेकिन यह झारखंड के लोगों के बीच उतना लोकप्रिय नहीं था. कई छात्र कॉलेज शिक्षा हासिल करने के लिए कोलकाता, कटक या पटना को तवज्जो देते थे. कई सालों तक संत कोलंबा की पहचान एक ऐसे संस्थान की रही जहां अन्य कॉलेजों से ठुकरा दिये गये छात्रों को दाखिला मिलता था. राज्य में उच्च शिक्षा का मौजूदा केंद्र रांची 1926 तक उच्च शिक्षा के नक्शे पर भी नहीं था. हालांकि शहर में चार प्रसिद्ध हाई स्कूल थे, लेकिन इसे लंबे समय तक कॉलेज शिक्षा से वंचित रखा गया. इन चार स्कूलों में से तीन का प्रबंधन ईसाई मिशनरी के पास था, लेकिन वे कॉलेज खोलने के प्रति इच्छुक नहीं थे.
1944 में संत जेवियर कॉलेज की शुरुआत हुई. इसके लिए पहले उच्च शिक्षा में लगी संस्था जेसुइट्स ने की. इसी संस्था ने 1862 में कोलकाता में संत जेवियर की स्थापना की थी, जो भारत में इसके आगमन के तीन दशक बाद ही कर दिया गया. लेकिन झारखंड में ऐसा करने में आठ दशक लग गये. आजादी तक रांची में ग्रेजुएट शिक्षा हासिल करने की कोई संस्था नहीं थी.रांची कॉलेज इंटरमीडिएट स्तर का था. 1949 में चले झारखंड आंदोलन के दबाव में इसे ग्रेजुएट कॉलेज के रूप में उन्नत कर दिया गया और यही रांची विश्वविद्यालय की स्थापना का आधार बना.
हालांकि विश्वविद्यालय व्यवस्था का विकास धीमी गति से होता है, लेकिन झारखंड को यह विशेषाधिकार था कि 1926 से ही धनबाद में इंडियन स्कूल ऑफ माइंस मौजूद था, जो ब्रिटिश काल में विज्ञान व तकनीक का अनूठा संस्थान था. इसके गठन में भी 25 साल लग गये. इसके गठन का प्रस्ताव 1901 में ही तैयार हो गया था. आइएसएम की मांग उद्योग जगत की थी. जमशेदजी टाटा द्वारा 1905 में स्थापित इंडियन इंस्टीटय़ूट ऑफ साइंस, बेंगलुरू का गठन शुद्ध रूप से विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए किया गया था. आइएसएम से एक नये दौर की शुरुआत हुई. जैसे-जैसे झारखंड औद्योगिक क्षेत्र के तौर पर आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे उद्योगों की मांगों को ध्यान में रखते हुए तकनीकी संथान खोलने की प्रवृत्ति देखने को मिली. इसी कड़ी में 1956 में बिरला इंस्टीटय़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी मेसरा का गठन हुआ.
दिलचस्प यह है कि उद्योग आधारित उच्च शिक्षा का एजेंडा आज झारखंड के शिक्षा योजनाकारों के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है. राज्य ने हाल ही में कॉरपोरेट घरानों के हितों में आइआइएम और इंडियन लॉ यूनिवर्सिटी खोलने को मंजूरी दी है. नया केंद्रीय विश्वविद्यालय एप्लायड साइंस पर फोकस करेगा. संयोगवश गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नये संस्था राज्य में खुल रहे हैं, लेकिन वह इंदिरा गांधी ट्राइबल यूनिवर्सिटी और टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल सांइस, मुंबई की शाखा खोलने के प्रति चुप्पी साधे है. राज्य योजनाकारों के सोच में यह बात नहीं आ रही है कि औद्योगिक समाज को भी सामाजिक शिक्षा की जरूरत होती है, ताकि औद्योगिकीकरण के कारण उपजी जटिलता का सामना किया जा सके.
राज्य के उच्च शिक्षा के टूटे-फूटे ढांचे में नये संस्थान खोलने का मतलब देश के विभिन्न कोनों से प्रतिभाशाली छात्रों को दाखिला देना है. यह शिक्षा के साम्राज्यवादीकरण का संकेत है, क्योंकि ये संस्थान स्थानीय युवाओं के दायरे से बाहर होंगे. क्योंकि राज्य में माध्यमिक शिक्षा का स्तर तेजी से गिर रहा है. स्थानीय लोगों के लिए गिने-चुने विकल्प रांची विवि, सिदो-कान्हू विवि, विनोबा भावे विवि, कोल्हान विवि और इनसे संबंधित चाईबासा, डाल्टनगंज, दुमका और हजारीबाग के कॉलेज हैं. रांची यूनिवर्सिटी के गठन का मकसद राज्य में उच्च शिक्षा की दशा-दिशा तय करना था. इसका गठन पटना यूनिवर्सिटी के विस्तार के तौर पर किया गया था. तब पटना यूनिवर्सिटी शिक्षा व शोध के मामले में शीर्ष पर थी. लेकिन, दुर्भाग्यवश रांची यूनिवर्सिटी उसकी छाया भी नहीं बन सकी. इस बात में संदेह नहीं कि पूर्व में यहां के शिक्षक आज ख्यातिप्राप्त हैं, लेकिन गुणवत्ता के नाम पर राज्य की सीमाओं के बाहर शिक्षकों की नियुक्ति काफी कम है. शिक्षकों में पेशेवरपन की कमी ने यूनिवर्सिटी की शैक्षणिक गुणवत्ता को काफी नुकसान पहुंचाया है. पाठय़क्रम और शोध में समयानुकूल बदलाव नहीं हुआ, लाइब्रेरी, प्रयोगशालाओं की हालात दयनीय है. सबसे खराब बात यह है कि सरकार की प्राथमिकता में यूनिवर्सिटी को फंडिंग सबसे निचले पायदान पर है. इसका परिणाम है कि यूनिवर्सिटी के कुछ विभाग व कॉलेज जैसे संत जेवियर की पहचान खुद के दम पर बनी थी, वे आज राज्य के बाहर के संस्थानों के लिए स्नेत बन गये हैं.
पिछले कुछ दशकों में विश्व में संस्थानों ने उद्योग और ज्ञान की जरूरतों का ख्याल रखा. इन संस्थानों ने वोकेशनल शिक्षा के साथ ही संस्थानों का विस्तार किया. इसके बावजूद यूनिवर्सिटी व्यवस्था शुद्ध विज्ञान का मंदिर बनी हुई है. इस मायने में झारखंड के हालात दयनीय हैं. विज्ञान, सामाजिक विज्ञान विषय काफी पुराने हैं, लेकिन इन्हें छोड़ डिप्लोमा कोर्स शुरू करने के लिए मारामारी मची हुई है. कोठारी आयोग ने यह माना था कि शिक्षा से मानव विकास होता है, शिक्षा ही झारखंड के भाग्य का फैसला करेगी. ऐसे में यह समय है कि हम उच्च शिक्षा पर गौर करें और मजबूत झारखंड के हित में एक मजबूत शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करें.
कर्नाटक
लटके पड़े एमओयू पर तेजी से काम होना चाहिए
जेडी अग्रवाल
लगभग 30 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए निजी व सार्वजनिक कंपनियों के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर हुए हैं. लेकिन सभी में देर हो रही है. अगर सभी एमओयू अमल में आ जायें तो राज्य छत्तीसगढ़ की तरह न सिर्फ जीरो कट वाला राज्य हो जायेगा बल्कि सरप्लस बिजली वाले राज्यों में शुमार हो जायेगा.
बिजली क्षेत्र आर्थिक विकास का इंजन है. राज्य में प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग लगभग 300 किलोवाट है. इस तुलना में देखें तो देश में प्रति व्यक्ति बिजली खपत लगभग दोगुनी 650 किलोवाट है. झारखंड के साथ छत्तीसगढ़ भी नये राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया था, वहां प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग 838 किलोवाट है. झारखंड के बिजली बोर्ड को आपूर्ति के लिए अधिकतर बिजली बाहर से खरीदनी पड़ रही है. राज्य की बिजली उत्पादन क्षमता लगभग 1400 मेगावाट की है, लेकिन 500 मेगावाट से ज्यादा उत्पादन शायद ही हो पा रहा है. झारखंड निर्माण के बाद राज्य में बिजली उत्पादन में कोई विशेष प्रगति दर्ज नहीं की जा सकी है. साथ ही लगातार वित्तीय घाटे का बोझ बढ़ता गया. बिजली आपूर्ति के खराब हालात से न सिर्फ आम उपभोक्ता, बल्कि उद्योग जगत में भी मायूसी का आलम है. तकनीकी कमियों के साथ ही संस्थागत कमियों से भी राज्य को दोचार होना पड़ रहा है. ग्रामीण इलाकों में बिजली आपूर्ति बदतर है. राजीव गांधी ग्राम विद्युतीकरण योजना की रफ्तार भी काफी धीमी है. कहने को तो इस योजना के अंतर्गत लगभग पंद्रह हजार गांवों को बिजली के तारों से जोड़ दिया गया है. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ अलग ही है. वैसे भी सिर्फ बिजली के खंभे और तार होने मात्र से ही लोगों के घर में रोशनी नहीं होती. ट्रांसमिशन नेटवर्क भी मांग व आपूर्ति के दृष्टिकोण से बेहद कमजोर है. राज्य में सौर ऊर्जा को लेकर भी सरकार खास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है.
राज्य को बाहर से अधिकतर बिजली क्यों खरीदनी पड़ रही है? इसका जवाब है कि पुराने संयंत्रों का रख-रखाव सही ढंग से नहीं हो पा रहा है. साथ ही बिजली उत्पादन के लिए नये संयंत्रों की स्थापना पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. बिजली उत्पादन के क्षेत्र में विकास के लिए दी गयी कई सिफारिशें धूल फांक रही हैं. मसलन, तेनुघाट विद्युत निगम में तीन और नयी यूनिटें स्थापित करने का प्रस्ताव लंबे समय से ठंडे बस्ते में है. प्राकृतिक संसाधनों से प्रचुर इस राज्य में निजी क्षेत्र के कई बड़े बिजली संयत्र स्थापित होने हैं. लेकिन इस दिशा में राज्य सरकार का व्यवहार पेशेवर नहीं दिखता. भूमि आवंटन से लेकर कई स्तरों पर मंजूरी का मामला लटका पड़ा है.
राज्य के साथ कई कंपनियों जिनमें टाटा, रिलायंस, आर्सेलर मित्तल, जिंदल आदि जैसी कंपनियां आदि शामिल हैं, लगभग 30 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर हुये हैं. लेकिन सभी किसी न किसी कारण से नियत समय से विलंब से चल रही हैं. अगर ये सभी एमओयू अमल में आ जायें, तो राज्य छत्तीसगढ़ की तरह न सिर्फ जीरो पावर कट वाला राज्य हो जायेगा, बल्कि फाजिल बिजलीवाले राज्यों में शुमार हो जायेगा.
राज्य में नये बिजली संयंत्रों की स्थापना में भूमि अधिग्रहण बड़ा अवरोध है. इसे दूर करने की दिशा सरकार को विशेष पहल करने की आवश्यकता है. जिन इलाकों में संयंत्र स्थापित किये जाने हैं, वहां विशेष छूट देने के प्रावधान करने की जरूरत है. ऐसे इलाकों में जीरो पावर कट के साथ ही स्थानीय विकास पर विशेष बल देना चाहिए, ताकि लोगों का विरोध न्यूनतम हो. संयंत्रों की स्थापना के लिए केंद्र व राज्य स्तर पर जल, पर्यावरण व वन विभागों से मंजूरी हासिल होने में काफी समय लग रहा है. इसमें अनावश्यक विलंब न हो, इसे लेकर पुख्ता बंदोबस्त किया जाना चाहिए.
राज्य में सौर ऊर्जा, गैस व जल संसाधनों के माध्यम से भी बिजली उत्पादन पर ध्यान देना चाहिए. गुमला, पलामू, रांची, चतरा आदि जिलों में हाइड्रो पावर के लिए कई उपयुक्त स्थान हैं. ताप बिजली से कहीं कम लागत से गैस आधारित संयंत्र स्थापित किये जा सकते हैं. इसके लिए राज्य सरकार को केंद्र को प्रस्ताव भेजने की जरूरत है. राज्य में कुछ जगहों पर सौर ऊर्जा संयंत्र के स्थापना के लिए केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी मिली है. इस पर तेजी से काम करना चाहिए. साथ ही ट्रांसमिशन लाइनों के तेज गति से आधुनिकीकरण की आवश्यकता है. ताकि बिजली का अनावश्यक क्षय न हो. नयी ट्रांसमिशन लाइनें बनाने पर भी ध्यान देना चाहिए.
राज्य में बिजली के वितरण में कई खामियां व्याप्त हैं. पुराने तार, ट्रांसफारमरों का खराब रखरखाव या जलना, गलत व लंबित बिल इनमें प्रमुख हैं. झारखंड को अनुपालन में देरी के कारण केंद्रीय ऊर्जा मंत्रलय द्वारा वित्तीय पुनर्गठन योजना (एफआरपी) के लिए अयोग्य करार दिया गया. हालांकि इसके बावजूद मंत्रलय राज्य को विशेष छूट देते हुए इस योजना का लाभ देने पर विचार कर रहा है. इस मसले पर कानूनी पहलुओं के कारण भी विलंब हुआ है. कुल मिला कर, राज्य सरकार को बिजली क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने के लिए लघु व दीर्घकालिक एजेंडे पर काम करना होगा, तभी राज्य छत्तीसगढ़ की तरह आत्मनिर्भर हो सकेगा और विकास की राह पर अग्रसर हो सकेगा.
छत्तीसगढ़
सड़कों का बढ़े जाल और सुधरे सार्वजनिक परिवहन
आनंद हांसदा
सार्वजनिक परिवहन के प्रयोग से सामाजिकता एवं सह-अस्तित्व की भावना विकसित होगी, साथ ही प्रदूषण, ट्रैफिक जाम ,सड़क दुर्घटना आदि समस्याएं भी नियंत्रित होंगी.
परिवहन व्यवस्था किसी भी क्षेत्र के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. झारखंड में अनेक पहाड़ियां, नदी-घाटियां हैं, जिसके कारण रेलवे नेटवर्क सभी जगहों तक नहीं पहुंच पाया है. यहां की पहाड़ी नदियां, जल-मार्ग के लिए भी अनूकुल नहीं हैं. एयरपोर्ट आदि आधारभूत संरचना के अभाव में, वायु-मार्ग भी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है. ऐसी स्थिति में राज्य में सड़क-मार्ग ही एक विकल्प है, जिसके माध्यम से सुदूर इलाकों तक यातायात संभव है. राज्य में पक्की सड़कों की कुल लंबाई 8,070 किमी है और कच्ची सड़कों की कुल लंबाई 8,986 किमी है (सड़क विभाग की रिपोर्ट-2010). झारखंड के कुल 32,615 गांवों में से मात्र 8,480 गांव, सड़कों से जुड़े हुए हैं, जो मात्र 26% है. जहां तक सड़कों के घनत्व की बात है, सभी राज्यों में झारखंड का स्थान नीचे से तीसरा है और सिर्फ बिहार एवं आंध्र प्रदेश से ही बेहतर है. अगर सड़कों की कुल लंबाई और पक्की सड़क के अनुपात की बात करें तो, झारखंड सबसे निचले पायदान पर है. जो गांव अच्छी तरह से सड़कों से जुड़े हुए हैं, उनमें रहनेवाले लोगों की पारिवारिक आय अन्य की तुलना में अधिक है और यह अंतर उन गांवों के मामलों में और ज्यादा हो जाता है, जिनका सड़क द्वारा सीधा संपर्क थोक बाजार से है. यह बताता है कि उन्नत सड़क संपर्कता से हमें महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ मिल सकता है.
झारखंड की सड़कों को मुख्यत: चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है- (क) राष्ट्रीय उच्च पथ. राज्य में कुल 17 राष्ट्रीय उच्च पथ हैं, जिनकी कुल लंबाई 1844.07 किमी है. इनके विकास एवं देखभाल की जिम्मेवारी केंद्र सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रलय की है, (ख) राज्य उच्च पथ. ये राज्य के विभिन्न भागों को राष्ट्रीय उच्च पथ से जोड़ते हैं. राज्य में कुल 18 राज्य उच्च पथ हैं , जिनकी कुल लंबाई 1886.40 किमी है. अधिकतर राज्य उच्च पथ की देखभाल राज्य सरकार के लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) द्वारा की जाती है, (ग) जिला सड़क. ये जिले के विभिन्न भागों को जोड़ती हैं और इनकी देखभाल स्थानीय निकायों जैसे जिला बोर्ड के द्वारा की जाती है, (घ) ग्राम सड़क. ये विभिन्न गांव को जिला सड़कों एवं राज्य उच्च पथ से जोड़ती हैं.
राज्य उच्च पथ, सड़क-मार्ग के कुल यातायात का करीब 55 प्रतिशत वहन करते हंै, अत: ये काफी महत्वपूर्ण हैं. आज जरूरत है, राज्य उच्च पथ संजाल के मजबूतीकरण एवं विस्तृतीकरण की. इसे चयनात्मक आधार पर किया जाना चाहिए. ऐसा करने से हम उन क्षेत्रों में आसानी से पहुंच बना सकते हैं, जहां खाद्य-सुरक्षा, चिकित्सा की सुविधा इत्यादि की अत्यंत जरूरत है. इसके द्वारा उग्रवाद की समस्या से भी अच्छे तरीके से पेश आया जा सकता है. इनके अलावा उच्च यातायात घनत्व, पुराने-पतले पुलों एवं रेलवे क्रॉसिंग वाले क्षेत्रों में सड़क की स्थति बहुत जल्दी-जल्दी खराब होने की संभावना रहती है, इसलिए इन क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. अधिकतर स्थितियों में यह जरूरी नहीं है कि सड़कों के चौड़ीकरण से हम यातायात सहन क्षमता बढ़ा सकें, लेकिन अच्छी तरह से देखभाल की गयी सड़क से यह जरूर संभव है. इसका एक तरीका यह हो सकता है कि मौजूदा सड़क व्यवस्था की देखभाल, परिचालन, एवं पुनस्र्थापन का जिम्मा उन्हीं ठेकेदारों को दे जिनकी कार्यक्षमता एवं कार्यकुशलता बेहतर हो. अब बात सार्वजनिक परिवहन की. वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट के आधार पर जहां भारत की दशकीय जनसंख्या वृद्धि में गिरावट (1991-2001 में 21.15%, 2001-2011 में 17.64%) आयी है, वहीं झारखंड उन राज्यों में है जहां जनसंख्या वृद्धि तेज हुई है. लोग गांव एवं छोटे शहरों में मूलभूत सुविधाओं जैसे शिक्षा, रोजगार इत्यादि की अपर्याप्तता के कारण बड़ी संख्या में बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. शिक्षा केंद्र के रूप में जाना जानेवाला रांची इसका उदाहरण है. रांची में सार्वजनिक-परिवहन के नाम पर सिटी बस की शुरुआत तो की गयी, परंतु यह असफल प्रतीत हो रही है. पहला कारण तो यह कि लोगों के पास दूसरा विकल्प यानी ऑटो उपलब्ध है और दूसरा, किसी भी सड़क पर आये दिन लगने वाला जाम. मौजूदा सड़कों की अपर्याप्त चौड़ाई एवं निजी वाहनों की संख्या में बेहिसाब वृद्धि के कारण लोग घंटों सड़कों पर फंसे रहते हैं. शहर के मुख्य मार्गो पर सार्वजनिक परिवहन की पर्याप्त सुविधा देकर, अगर ऑटो का विकल्प हटा दिया जाये तो शायद लोग निजी वाहन की जगह इसे प्रयोग करना पसंद करेंगे. इससे ऑटो-वालों का रोजगार नहीं छिनेगा, क्योंकि वे मुख्य मार्गो से जुड़नेवाली सहायक सड़कों पर चलने लगेंगे.
बेंगलुरू
बेंगलुरू मेट्रोपोलिटन ट्रांसपोर्टेशन कॉरपोरेशन (बीएमटीसी) सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के मामले में नजीर है. दरअसल, 1997 में बीएमटीसी कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम से अलग होकर अस्तित्व में आया. बेंगलुरू की परिवहन व्यवस्था भी पहले लुंज-पुंज थी. बीएमटीसी की खासियत है कि वह सभी आय वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर यात्री सेवा प्रदान कर रहा है. इतना ही नहीं, लगभग 50 करोड़ रुपये के वार्षिक घाटे में चल रहा निगम मुनाफा कमाने लगा है. बेंगलुरू का शहरी क्षेत्रफल 2001 में 531 वर्ग किलोमीटर था. वर्ष 2007 में यह 800 वर्ग किलोमीटर हो गया. वहीं 2001 के मुकाबले शहर की जनसंख्या 2011 में 57 लाख से बढ़ कर 84 लाख हो गयी. पंजीकृत वाहनों की संख्या 16 लाख से बढ़ कर 39 लाख हो गयी. इन वाहनों में 88 फीसदी निजी वाहन थे. बीएमटीसी के पास 6138 बसें हैं, जो रोजाना लगभग 80 हजार फेरे लगा कर 47 लाख लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती हैं. गरीबों के लिए ‘अटल सारिगे’ नाम से बस सेवा, कॉरपोरेट यात्रियों के मद्देनजर पुष्पक सेवा, उच्च तबकों के लिए वातानुकुलित लो फ्लोर वज्र सेवा की भी व्यवस्था की गयी है.
अच्छे संस्थानों से ही विकसित होंगे अपने शहर
गणेश मांझी
मध्य और मध्य-पूर्वी भारत में विचार उत्पादन और विचार मंथन को कभी प्रोत्साहित नहीं किया गया. इसका सबूत इससे मिलता है कि इन इलाकों में एक भी संस्थान ऐसा नहीं है जिसे हम वैचारिक मूल्य सृजित करनेवाला कह सकें. अगर अच्छे शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और इनकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाये तो झारखंड में ही अनेक सुंदर शहर विकसित किये जा सकते हैं.
स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत ने समता मूलक और ग्राम आधारित विकास का सपना देखा था, परंतु पिछली शताब्दी का अंत होते-होते न केवल समता मूलक स्वप्न हिचकोले खाने लगा, बल्कि ग्राम विकास की जगह शहरीकरण और शहरी विकास ने ले लिया, जिसे अक्सर विकास का इंजन भी कहा जाता है. वैसे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के वास्तुकारों ने भी यही सोचा होगा कि शहर का विकास और शहरीकरण ही विकास का इंजन है, परंतु इनके अवशेष कुछ और ही बयान करते हैं. चाल्र्स डार्विन ने कहा था- अस्तित्व, मजबूत और बुद्धिमानों का नहीं, परंतु अनुकूलन द्वारा स्थापित होता है. अनुकूलन, जिसकी अक्सर हम अनदेखी करते हैं, या समझते नहीं हैं. अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अस्तित्व उसका रहेगा जो प्रकृति के साथ अनुकूलित होकर आगे बढ़ता है या फिर जो अपने आप को शहर के साथ अनुकूलित कर रहा है? आपके जवाब भिन्न हो सकते हैं, लेकिन वर्तमान स्थिति में ग्राम और शहर साइकिल के दो पहिये की तरह हैं, जो तभी तक संतुलित रहते हैं, जब तक वह चलती रहती है.
शहरी विकास और शहरीकरण दो भिन्न बातें हैं. पहला आंतरिक संरचना के विकास की बात करता है, जबकि दूसरा शहर और ग्राम के संबंध को दर्शाता है. भले ही नेहरू ने समता मूलक विकास का सपना देखा था, लेकिन महात्मा गांधी की ग्राम विकास की सोच को साकार किया जनता पार्टी सरकार के मुखिया मोरारजी देसाई ने, जिन्होंने न केवल 1975 में आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी सरकार को मात दी, बल्कि 1978 में समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम की शुरुआत भी की. 1992 में भारत सरकार ने शक्ति का विकेंद्रीकरण करते हुए, शहरी और ग्रामीण स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था 73वें और 74वें संविधान संशोधन के जरिये की. तत्पश्चात, भारत सरकार ने रणनीतिक तौर पर शहरी विकास को तरजीह दी और 2005 में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) की शुरुआत की.
शहरी विकास को झारखंड के विकास का एक महत्वपूर्ण घटक मानते हुए, भविष्य की तस्वीर के कई तरीके हो सकते हैं. लेकिन, स्थानीयता के प्रश्न और विकास के मॉडल के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए अन्य राज्यों की तुलना में, कुछ अलग करने की जरूरत है. झारखंड, पांचवीं अनुसूची में आनेवाला राज्य है. छठी अनुसूची में आनेवाले राज्यों के विपरीत, यहां ‘आदिवासी सलाहकार परिषद्’ नाकाम रही है. अब झारखंड के शहरी विकास और पांचवीं अनुसूची का क्या संबंध है? दरअसल, झारखंड और छत्तीसगढ़ में जिस तरह गैर बराबरी वाले विकास का परिणाम सामने आया है, उसे देख कर तो यही लगता है कि देश के अन्य राज्यों और यहां के शहरी विकास मॉडल में कोई फर्क नहीं है. चूंकि राज्य और देश के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए गांव और शहर के बीच एक मजबूत संबंध होना चाहिए, इसलिए गांवों का शहरीकरण द्वारा विकास एक अधूरा सोच होगा. समग्र और समेकित विकास के लिए, स्थानीय सशक्तीकरण, रोजगार के अधिक अवसर, शुद्ध हवा-पानी, अपशिष्ट प्रबंधन, प्रकृतिमूलक संरचना इत्यादि का विकास निहायत जरूरी है.
इन समस्त बिंदुओं को देखते हुए मेरा मानना है कि पांचवीं अनुसूची वाले राज्यों में छठी अनुसूची लागू कर देनी चाहिए. साथ ही ‘स्वशासी जिला परिषद्’ के स्थान पर ‘स्वशासी प्रखंड परिषद्’ का गठन हो, ताकि प्रखंड आधारित सूक्ष्म योजना बनायी जा सके. प्रत्येक जिले में स्थानीयता को महत्व देते हुए जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर नौकरियों में जगह देनी चाहिए. इस तरीके से लगभग 1500-2000 लोगों के लिए रोजगार का सृजन होगा, और स्थानीय लोगों को नौकरी मिलने से नक्सल समस्या से जूझने की ओर हम एक कदम आगे बढ़ेंगे. शहरी विकास से संबंधित नीति निर्धारण में स्थानीय ‘स्वशासी प्रखंड परिषद्’ को प्राथमिकता दी जाये, जिससे शक्ति का विकेंद्रीकरण होगा और आम लोग सशक्त होंगे. इस प्रकार जातिवाद और पक्षपातियों से भी लड़ने में आसानी होगी.
मध्य और मध्य-पूर्वी भारत में विचार उत्पादन और विचार मंथन को कभी प्रोत्साहित नहीं किया गया. इसका सबूत इससे मिलता है कि इन इलाकों में एक भी संस्थान ऐसा नहीं है जिसे हम वैचारिक मूल्य सृजित करनेवाला कह सकें. अगर अच्छे शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और इनकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाये तो झारखंड में ही अनेक सुंदर शहर विकसित किये जा सकते हैं, और लोगों को शिक्षा और रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की ओर पलायन की जरूरत नहीं पड़ेगी. देश के विकास में सबसे ज्यादा बलिदान झारखंड और छत्तीसगढ़ की जनता ने दिया है. क्यों न इस बलिदान का कुछ फायदा इन्हें भी मिले? अगर झारखंड में काम करने करने वाले उद्योगपति एक-एक जिले को गोद ले लें और संरचनात्मक विकास करें, तो अगले पांच सालों में ही राज्य की तस्वीर बदल जाएगी. जब भी, देश को व्यापार घाटा होता है, तो हम संसाधनों को बेचते हैं और अंतिम उत्पादित आयात करते हैं. कमोबेश स्वतंत्र भारत के पहले वाले हालात है. संसाधन पर ज्यादा जोर पड़ता है, लोग विस्थापित होते हैं, और सरकार अपने नाकामी का ठीकरा माओवादियों के सर फोड़ती है. शहरी विकास के द्वारा मानव पूंजी का सृजन और जमीन पूंजी का ढांचागत विकास कर के निवेश का माहौल तैयार कर सकते हैं और खुद भी साहसी बन उद्योगपति बन सकते हैं. हम कोयले से बिजली उत्पादन कर दूसरे राज्यों को भी बेच सकते हैं. शहरी विकास के अन्य ध्यान देने वाली बातें इस प्रकार हैं- अपशिष्ट निकास का उपयुक्त प्रबंधन, सार्वजनिक सड़कों और यातायात के साधनों का विकास, पेयजल के इंतजाम के लिए पानी संरक्षण पद्धति का विकास, बिजली और शुद्ध पानी, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं ट्रैफिक आवाजाही के लिए नयी तकनीकी के अन्वेषण को प्रोत्साहन, महिला सुरक्षा प्रकोष्ठ का गठन, विकलांग सुविधा सहित ढांचागत व्यवस्था, झुग्गी निवासियों, महिलाओं, कमजोर तबके वालों को उपयुक्त महत्व और अन्तत: इन सब बिन्दुओं के लिए सार्वजनिक और निजी समूहों का योगदान महत्वपूर्ण है.
शहरी विकास का प्रथम सर्व-सुंदर विचार तो यह है कि, जो जिस घर में और जिस जगह रहता है, वहीं सारे सुविधाएं उपलब्ध हो- चाहे वह गांव हो या शहर, परंतु भारत जैसे उभरते उन्नतशील देश के लिए यह कर पाना संभव नहीं लगता, इसलिए सरकार शहरी विकास और शहरीकरण के द्वारा पुनव्र्यव्स्थापन के तहत नयी सामाजिक संरचना का निर्माण कर दूसरा बेहतर उपाय कर रही है.
महाराष्ट्र