– वीमेंस कॉलेज रैगिंग प्रकरण-
-हरिवंश-
भारतीय परंपरा का समृद्ध पक्ष यह रहा है कि उदारता, दूसरे की पीड़ा में कातरता या बेचैनी का जो एहसास महिलाओं में रहा है, उसका पुरुषों में अभाव रहा है. इसके अनेक दृष्टांत हैं कि जब-जब समाज में वीरता, पुरुषत्व, करुणा का ह्रास होने लगा, तब-तब महिलाएं आगे आयीं और इतिहास की धारा बदल गयी. खासतौर से आदिवासी समाज की आंतरिक समृद्धि (जिसे कथित आधुनिकों और शहरी लोगों को सीखना चाहिए) के पीछे महिलाओं का खुलापन और पुरुषों से उनकी बराबरी की बात उल्लेखनीय रही है.
लेकिन आज उसी अंचल में एक असहाय लड़की आशा के साथ जो क्रूर मजाक हो रहा है, वह पूरे समाज के लिए शर्मनाक है. आशा की रैगिंग हुई. उसके विरोध के बावजूद उसे सीढ़ियों पर दौड़ाया गया. उसका गर्भपात हुआ. इसी समाचार-पत्र में डॉक्टर द्वारा आशा की चिकित्सा नुस्खा की प्रतिलिपि भी छपी. इस स्थापित सत्य के बाद महिला कॉलेज की प्राचार्या इस मामले को दबाने पर तुली हुई है. महिला प्राचार्या के रुख को देख कर लगता है कि शायद भारतीय परंपरा-आदिवासी संस्कृति में महिलाओं का जो समृद्ध कारुणिक मन रहा है, वह उनमें कहीं सूख गया है. यह खतरनाक है. आज तक प्रधानाचार्य इस बात से इनकार नहीं कर सकी हैं कि आशा की रैगिंग नहीं हुई, क्योंकि इसके अकाट्य प्रमाण है. फिर क्यों अब तक दोषी छात्राएं दंडित नहीं हुई?
नैसर्गिक न्याय की बुनियादी शर्त है, तत्काल न्याय, अब तक आशा को न्याय क्यों नहीं मिला? क्यों समिति ने उलटे पीड़ित आशा से अश्लील सवाल किये? प्राप्त तथ्यों के अनुसार आशा से यह पूछा गया कि तुम्हारी शादी कब हुई? कितनी सीढ़ियां तुम्हें चढ़नी पड़ीं? जिस लड़की के साथ ऐसा घातक सलूक हुआ, उससे इन अश्लील सवालों के पूछे जाने की कल्पना कोई भद्र समाज नहीं कर सकता? यह पाशविकता है, जंगली बर्बरता है. वह भी महिलाओं के कॉलेज में. लंबे समय से महिला संगठन और संवेदनशील लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि पुरुष क्रूरता की शिकार महिलाओं से अदालत में अश्लील जिरह बंद हो. वहीं चीज एक जागरूक महिला कॉलेज में दोहरायी गयी और कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं. कुछ प्राध्यापिकाएं दलील दे रही हैं कि इस घटना को दबा दिया जाये, ताकि कॉलेज की प्रतिष्ठा बची रहे.
उन्हें यह बुनियादी बात भी नहीं मालूम कि घटनाओं को तोपने-ढ़कने से प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती, न्याय का पक्ष लेने से समाज में गौरव बढ़ता है. पठन-पाठन के स्तर, जागरूकता, अनुशासन से संस्थाएं निखरती है. व्यक्ति अपने जीवन में लाइलाज बीमारियों को ढंकने लगे, तो उसे अपनी मौत सुनिश्चित मान लेनी चाहिए. संस्थाओं का जीवन व्यक्ति की मर्यादा, गरिमा, आचरण से भिन्न नहीं होता,आश्चर्य तो यह है कि शिक्षा केंद्र में ऐसी अश्लील हरकतें हो रही है और उन्हें तोपने का प्रयास हो रहा है. रैगिंग करने वाली लड़कियां शान से घूम रही है. फिर भी भारतीय समाज में कुछ संस्थाएं बची है.
आशा को या उसकी ओर से किसी संस्था को प्राचार्या या जांच समिति से न्याय न मिलने पर तत्काल न्यायालय में जाना चाहिए. रैगिंग करनेवाली और उन्हें बचानेवाली समिति के खिलाफ क्रूरता और बच्चे की हत्या का मामला बनता है. महज दो दिनों पूर्व कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया है. न्याय के उस मंदिर की इकाई रांची में भी है. वहां निश्चित आशा और उसके मामले को संवेदनशील इंसान के नजरिये से देखनेवालों को न्याय मिलेगा.
यह उल्लेखनीय है कि रांची वीमेंस कॉलेज की काफी छात्राएं, जागरूक अध्यापिकाएं इस मामले को लेकर उद्धिग्न और बेचैन हैं. रांची के अनेक संगठनों और जागरूक लोगों ने आशा को न्याय न मिलने पर आंदोलन की चेतावनी दी है, यह सब रांची में उस संवेदनशील समाज के जीवित होने का संकेत है, जिसका निरंतर क्षय हो रहा है. रैगिंग की इस क्रूरता को दबाने का मामला एक लड़की की रैगिंग या गर्भपात से ही जुड़ा सवाल नहीं है, बल्कि इस मामले से तय होना है कि रांची में पश्चिम की वह उपभोक्तावादी संस्कृति बाढ़ की तरह छा जायेगी या कहीं कोई चट्टान उसे रोकने के लिए खड़ा होगा.