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मिलना एक मास्टर से!

– हरिवंश – सिमरिया विधानसभा क्षेत्र का महत्वपूर्ण इलाका है, पत्थलगड्डा. यहां चौक पर संसद जैसा दृश्य था. उप चुनाव के दिन थे. हर दल के लोग अपना आशियाना लगाये बैठे थे. माइक से प्रचार करते. शायद ही कोई किसी की बात सुन रहा हो. हेगेल के थीसिस- एंटी थीसिस का जीवंत दृश्य. पत्थलगड्डा चौक […]

– हरिवंश –
सिमरिया विधानसभा क्षेत्र का महत्वपूर्ण इलाका है, पत्थलगड्डा. यहां चौक पर संसद जैसा दृश्य था. उप चुनाव के दिन थे. हर दल के लोग अपना आशियाना लगाये बैठे थे. माइक से प्रचार करते. शायद ही कोई किसी की बात सुन रहा हो. हेगेल के थीसिस- एंटी थीसिस का जीवंत दृश्य. पत्थलगड्डा चौक पर नेताजी सुभाष बाबू की मूर्ति है.
साफ, सुथरी और मालों से आच्छादित. याद आया 23 जनवरी को नेताजी को याद किया गया है. देश के सुदूर इलाकों- जंगलों-पहाड़ों में भी गांधी, सुभाष बाबू, भगत सिंह, आंबेडकर वगैरह की मूर्तियां देख कर अक्सर एहसास होता है, ये आधुनिक भारत के चेहरे, एकता के सूत्रधार और नये भारत की स्प्रिट (आत्मा) के प्रतिबिंब हैं. भला पत्थलगड्डा जैसे जंगल/पहाड़ में सुभाष बाबू की भव्य प्रतिमा और उनकी जयंती का आयोजन और क्या संकेत देते हैं? इस देश में सत्ताधीशों ने परंपरा विकसित की है कि राज्याश्रय से कुछ खास परिवारों को-उनके पुरखों को अमर बना दें. पर गांधी, सुभाष बोस, आंबेडकर या भगत सिंह वगैरह के परिवारवालों को न पता है, न सामार्थ्य-साधन है कि वे इनकी मूर्तियां जंगल-पहाड़ों में बनवाये? पर ये मूर्तियां देश के कोने-कोने में हैं.
चौक के ठीक बगल में एक स्कूल है. साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित. साथी जितेंद्र पहल से जिज्ञासा करता हूं. वह स्कूल के पास ले जाते हैं. यह राजकीयकृत मध्य विद्यालय पत्थलगड्डा है. राधाकृष्णन की प्रतिमा है. विवेकानंद का आदमकद चित्र और उनके झंकृत करनेवाले वचन/संदेश. विद्यालय कैंपस में ही एक बिल्डिंग है, जिस पर बड़े-बड़े हरफों में लिखा है, कंप्यूटर-टेलीविजन-इंटरनेट सेक्शन.
अचंभित होता हूं. साफ-सुथरा कैंपस. राधाकृष्णन की मूर्ति. विवेकानंद के संदेश और इंटरनेट का सेक्शन. दरअसल भारत के ऐसे अमर और प्रेरक नायकों की मूर्तियां, विचार और जीवंतता तो हर स्कूल में होने चाहिए. बच्चे कच्चे घड़े होते हैं. ऐसे महापुरुषों की स्मृति की चर्चा से बच्चों का जीवन उत्कृष्ट होगा. इस तरह इन नायकों की स्मृति और साथ-साथ इंटरनेट सेक्शन, देख कर कायल हूं.
अतीत और अधुनातन के श्रेष्ठ पक्षों का संगम. वह भी जंगल में. इतिहास पुष्ट करता है कि जो टेक्नोलॉजी में पिछड़ गये, वे गुलाम होने के लिए अभिशप्त हैं. इसलिए इंटरनेट या अधुनातन तकनीक से गांव-गांव जुड़ कर भारत, दुनिया में चमत्कार कर सकता है.ऐसा करनेवाले के लिए मन में सम्मान उमड़ता है. स्कूल के बारे में जानने कोशिश करता हूं. यह तो बचपन में ही सुना था कि राजा की पूजा घर में होती है. विद्वान, त्यागी दुनिया में या सर्वत्र पूजे जाते हैं.
तभी तो इस जंगल, पिछड़े और उग्रवाद की दृष्टि से सुपर सेंसिटिव इलाके में राधाकृष्णन, विवेकानंद, सुभाष की जीवंत स्मृतियां हैं. स्कूल में छुट्टी हो गयी है. स्कूल के प्रभारी प्राचार्य से मिलने की उत्सुकता है.
साथी ढूंढ़ लाते हैं. पहली नजर में प्रभारी प्राचार्य सामान्य और ठेठ भारतीय लगते हैं. सहज और आत्मीय. पर उनकी बातें, उपलब्धियां जान कर महसूस होता है, सामान्य आकृति में असाधारण व्यक्ति का वास. आधुनिक भारत-झारखंड के असली कुम्हार. अचर्चित सर्जक. साधनरत. कहीं भी अपनी उपलब्धियों और गौरवपूर्ण काम का बोझ या प्रदर्शन नहीं. नाम है, धनुषधारी राम दांगी. प्रभारी प्रधानाध्यापक.
2007 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित. झारखंड में कुल पांच लोगों को यह सम्मान मिला है. लेंबोइया गांव के रहनेवाले हैं. इस गांव में दो अध्यापक राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत हैं. जुलाई 1958 में इसी स्कूल से पढ़े. फिर आगे की पढ़ाई प्राइवेट से की. राजनीतिशास्त्र में एमए किया. फिर पत्थलगड्डा के मेराल गांव में ( प्राथमिक विद्यालय) अध्यापक होकर गये.
21 साल वहीं रहे. उस गांव में आदिवासी (मुंडा) और हरिजन (भोक्ता, तुरी) हैं. 99.9 फीसदी अति पिछड़े. एक यादव परिवार. 21 साल पहले पढ़ने का फैशन नहीं था. पढ़ाई, मास्टर को लोग शक की नजर से देखते थे. मास्टर धनुषधारी राम दांगी ने अपने कंधों पर लकड़ी ढोना शुरू किया. मिट्टी का स्कूल खड़ा किया. फिर धीरे-धीरे बच्चे साथ देने लगे.
मास्टर और बच्चों ने स्कूल बनाया स्वउद्यम से. धुनी मास्टर ने फिर बच्चों को गढ़ना शुरू किया. जंगल/पहाड़ से इस कुम्हार शिक्षक ने अनेक छात्रों को गढ़ा. देख कर लोग आने लगे. यह अर्थशास्त्र का डिमांसट्रेटिव इंपैक्ट था. अंगरेजी में कहावत है, सीइंग इज विलिविंग (देख कर यकीन). शिक्षा का चमत्कार व असर देख लोग आने लगे. यह अति पिछड़ों का गांव लकड़ी से जीता था. जंगल की लकड़ी काटना/बेचना.
मास्टर दांगी ने इस गांव के लोगों को खेती की बात समझायी. पढ़ाई का महत्व बताया. जो बच्चे मुंडारी समझते थे, उन्हें आधुनिक शिक्षा से जोड़ने में बुनियादी दिक्कतें आयीं. पर मास्टर दांगी ने विशेषज्ञों से मदद नहीं मांगी. जो मुंडा बच्चे हिंदी समझते थे, उनके माध्यम से शिशु मुंडाओं को शिक्षा दी. यह सब सुनते हुए मुझे दिल्ली/रांची के शिक्षा विशेषज्ञ याद आते हैं. ऐसी समस्याएं सुलझाने के लिए दो बड़े विशेषज्ञों को बुलाते हैं.
सरकार का बड़ा बजट खर्चते हैं. बरसों-दशकों भाषा विवाद-अनुवाद पर मंथन होता है. पर रिजल्ट सिफर. इस तरह मेराल स्कूल और दांगी जी की शिक्षा यात्रा शुरू हुई. जंगल से 7-8 बच्चों से. आज वहां 150 बच्चे हैं. सभी हरिजन और आदिवासी.
8-9 साल पहले दांगी जी मेराल से बदल कर पत्थलगड्डा के इस स्कूल में आ गये. आज यहां 206 बच्चे हैं. 60 फीसदी बच्चियां. स्कूल ड्रेस में गांवों-देहातों में छात्राओं की लंबी कतारें देख कर लगता है, समाज करवट ले रहा है. जिस चौक पर यह नया देश/नया राज्य/समाज गढ़ा जा रहा है, उसके सूत्रधार/कुम्हार दांगी जैसे अध्यापक हैं. इस स्कूल से डॉक्टर/टीचर/फादर/ रेलवे ड्राइवर अच्छी संख्या में निकल रहे हैं. दांगी जी बताते हैं कि यह सब देख कर शिक्षा के प्रति काफी जागरूकता बढ़ी है. चतरा के विभिन्न स्कूलों में पढ़ा रहे हैं अधिसंख्य शिक्षक इसी स्कूल से निकले हैं. दांगी जी अपना अनुभव बांटते हैं.
लड़कियों की शिक्षा बढ़ी है. गरीब से गरीब आदमी लड़कियों को पढ़ाना चाहता है. यह नया मानस है. 8/10 किमी दूर से साइकिल से लड़कियां पढ़ने आती हैं.
इस स्कूल के कंप्यूटर-इंटरनेट कक्ष में सभी कंप्यूटर फंक्शनल हैं. रख-रखाव अच्छा है. इंटरनेट काम करता है. बच्चे तेजी से सीख रहे हैं. दुनिया से जुड़ रहे हैं. चतरा के किसी अन्य विद्यालय में इंटरनेट-कंप्यूटर सेक्शन की यह स्थिति नहीं है. इस स्कूल में हर शनिवार को शिक्षा-दरबार का आयोजन होता है. अपने ढंग का अनूठा प्रयोग-पहल. पिछले एक साल से. बच्चे और शिक्षक साथ-साथ बैठते हैं. समस्याओं को सलटाते हैं.
दांगी बताते हैं, उनकी शिक्षा यात्रा में सहयोग करनेवाले अच्छे लोग मिले. वह नाम बताते हैं, डीपीसी (डिस्ट्रक्टि प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर), बैकुंठ पांडेय का. 1999 में अरिवंद विजय विलुंग ने स्कूल देख कर हर प्रोत्साहन दिया. यहां लड़कियों की संख्या अधिक थी.
टीचरों ने आपस में चंदा कर सुलभ शौचालय बनवाया. विलुंग जी ने सुझाव दिया, बच्चों के लिए ड्रेस निर्धारण करें. खेलकूद का आयोजन करायें. शैक्षणिक भ्रमण करायें. यह सब शुरू हुआ. सन 2000 में बोध गया शैक्षणिक भ्रमण पर यहां के छात्र गये. तब से हर साल यहां के छात्र शैक्षणिक भ्रमण पर जा रहे हैं. बचपन से ही दुनिया से साबका. यही कारण है कि आज के बच्चों का आत्मविश्वास, ज्ञान और लक्ष्य, हमारी पीढ़ी से ज्यादा स्पष्ट है.
अपना बचपन याद आता है. किशोर होने पर तांगे की सवारी, छोटी लाइन की रेलगाड़ी या आगे निकले इंजनवाली बसों को पहली बार देख कर लगा दुनिया में विकास के यही प्रतीक हैं. पांच दशकों में कितनी बदल गयी है, दुनिया. काल और बदलाव ही शाश्वत हैं. परिवर्तन ही जीवन है. ठहराव, अगति, मौत.
पत्थलगड्डा से यह सब सोचते हम साथी आगे निकलते हैं, पर दांगी जी याद रह जाते हैं, मस्तिष्क में. सवाल उपजते हैं, आधुनिक और नये भारत के निर्माता असली साधक कौन हैं? जो सत्तामद में चूर हैं, जिन्हें शासन चलाने का लुर नहीं, जो संवेदनशील-सक्षम इनसान भी नहीं है, जो महज आत्मस्वार्थ और लूट संस्कृति के वाहक हैं, जो सार्वजनिक कोष से वैध तरीके से शहंशाह की जिंदगी तो जी रहे हैं, साथ ही अवैध काम भी करते हैं.
पुलिस, सुरक्षा के साथ नागरिकों को आतंकित करते हुए घूमते हैं, सड़क, बिजली, न्याय, शासन विकास काम जिनके जिम्मे है, पर इन सभी क्षेत्रों में परफॉरमेंस शून्य हैं, क्या समाज, राज्य और देश को आगे ले जाने की ड्राइविंग सीट पर बैठी ऐसी ताकतें पूज्य हैं या नफरत के पात्र? समाज के असली निर्माता, सर्जक और साधक तो जंगलों, पहाड़ों, गांवों में साधक बन कर गीता के कर्मसाधक की तरह अपने काम में लगे दांगी जैसे लोग हैं? आजादी के 60 साल बाद और झारखंड बनने के लगभग साढ़े सात वर्षों बाद कम से कम हम झारखंडी यह तो तय कर ही लें.
दिनांक : 23.11.2010

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