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अफसरों के कारण करोड़ों बढ़ जा रही है परियोजनाओं की लागत, बहस हो इस ‘आपराधिक काम’ पर

राज्य में विकास के काम करने की मूल जिम्मेवारी सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों की है, पर योजनाओं को लागू करने का काम राज्य के ब्यूरोक्रैट्स के हाथ में है, लेकिन झारखंड में न तो राजनीतिज्ञ गंभीर है और न ही ब्यूरोक्रैट्स. स्थिति यह है कि झारखंड के अनेक सीनियर अफसर फाइल निबटाते ही नहीं है. […]

राज्य में विकास के काम करने की मूल जिम्मेवारी सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों की है, पर योजनाओं को लागू करने का काम राज्य के ब्यूरोक्रैट्स के हाथ में है, लेकिन झारखंड में न तो राजनीतिज्ञ गंभीर है और न ही ब्यूरोक्रैट्स. स्थिति यह है कि झारखंड के अनेक सीनियर अफसर फाइल निबटाते ही नहीं है. दाब कर बैठ जाते हैं. निर्णय नहीं लेते हैं. गोल-मटोल टिप्पणी लिख कर पेंच फंसा देते हैं. इसका नतीजा यह होता है कि काम नहीं हो पाता. प्रोजेक्ट लटके रहते हैं. बिजली के साथ भी यही हो रहा है. फाइल के लटक जाने से समय पर प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो रहा है. उसकी लागत भी लगातार बढ़ती जा रही है. याद रखिए, ये बड़े अफसरान, हर सुविधा लेते हैं, पर इनके परफॉरमेंस या एकाउंटेंिबलिटी का मूल्यांकन नहीं होता है. इनके घरों पर सरकारी कर्मचारी निजी काम (खाना बनाने- सेवा करने) में लगे रहते हैं. कई-कई सरकारी गाड़ियां घर पर खड़ी रहती हैं. ..असंख्य सुविधाएं, जनता के पैसे से. पर काम क्या करते हैं, कोई पूछनेवाला नहीं, यह व्यवस्था चलेगी कैसे? झारखंड चुनावों में इस ‘वर्क कल्चर’ पर सवाल बहुत जरूरी है.

मनोज प्रसाद, रांची

कोयला, पानी और खनिजों से समृद्ध इलाके में रोशनी की धमक महसूस की जानी चाहिए थी. बावजूद इसके झारखंड के लोगों का अब तक अंधेरे में रहना बड़े शर्म की बात है. महरा हांसदा इसका कारण मालूम करने की कोशिश कर रहा है. सन 2000 में बड़े सपनों और उत्साह के साथ नये झारखंड का गठन हुआ. तेनुघाट में बनी हुई बिजली को हजारीबाग पहुंचने के लिए बिहार होकर आना पड़ा.

नया राज्य बनने के 14 वर्षो बाद झारखंड ट्रांसमिशन सिस्टम का निर्माण करने के लिए शुरू की गयी अरबों रुपये के प्रोजेक्ट को ढ़ो रहा है. इस प्रोजेक्ट में देश की प्रसिद्ध पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की भी सहभागिता है. फरवरी 2012 में 1472 करोड़ रुपये की उस परियोजना की शुरुआत हुई थी. परियोजना का उद्देश्य राज्य के दूर-दराज के क्षेत्रों तक बिजली पहुंचाने के लिए ट्रांसमिशन लाइन का निर्माण करना था. इसके साथ ही, झारखंड में मौजूद कोयले की भारी मात्र ने टाटा और जिंदल समेत कई कंपनियों को यहां थर्मल पॉवर प्लांट लगाने के लिए प्रेरित किया. अब, यह कंपनियां झारखंड के हर कोने को रोशन करने से कहीं अधिक बिजली उत्पादन करने की कगार पर खड़े हैं. पर, मजबूत ट्रांसमिशन सिस्टम के नहीं होने के कारण पावर प्लांट की अतिरिक्त बिजली गांव-देहात तक नहीं पहुंच पायेगी.

महरा हांसदा कहते हैं : टनों कोयला जला कर उत्पन्न की जाने वाली बिजली से रोशनी नहीं होने की सदियों पुरानी पीड़ा खत्म होते देखने के बारे में सोचना काफी सुखद अहसास था. परंतु, जल्दी ही महरा के सुखद सपने में खलल पड़ गया. परेशानियां शुरू हो गयी. महरा को पता चल गया कि राज्य के अफसर पावर ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट के खिलाफ हैं.

नजर रखने वाली निगाहों के अभाव में राज्य के अफसरों ने कोई योजना नहीं तैयार की. कार्यो को धरातल पर लाने का प्रयास भी नहीं किया. उन्होंने केवल अपना वेतन लिया. सरकारी गाड़ियों में घूमे और एयर कंडीशन बंगलों में रहने का सुख भोगा. तेनुघाट में पैदा की जाने वाली बिजली बिहार होते हुए हजारीबाग पहुंचे, इसके लिए ट्रांसमिशन सिस्टम निर्माण का काम घोंघे की चाल से चला. आखिर, इस हालात के लिए जिम्मेवार कौन है? यह ‘आपराधिक वर्क कल्चर’ है, जिसे कोई समाज नहीं ढो सकता है. पर, झारखंड में ऐसा हो रहा है.

ट्रांसमिशन सिस्टम बनाने के प्रोजेक्ट का सरकारी रिकार्ड बदतर है. दो सालों से अधिक समय बीत जाने के बाद 2944 में से केवल 1644 ट्रांसमिशन टॉवर ही बनाये जा सके हैं. लोहरदगा, पतरातू और लातेहार समेत कई शहरों में प्रोजेक्ट शुरू नहीं किया जा सका है. अफसरों ने इन शहरों में पीजीसीआइ को ट्रांसमिशन टॉवर बनाने के लिए जमीन का आवंटन तक नहीं किया है. गोविंदपुर में प्रोजेक्ट शुरू होने के 22 महीनों बाद पीजीसीआइ को जमीन दी गयी, पर ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव द्वारा राशि स्वीकृत नहीं करने के कारण वहां की शुरुआत नहीं हो सकी. ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव मनोहरपुर, जामताड़ा, धालभूमगढ़, रूप नारायणपुर, तेनुघाट, मधुपुर, चाईबासा, बेड़ो और रामचंद्रपुर में पावर सब स्टेशनों को जोड़ने के लिए राशि का आवंटन नहीं कर रहे हैं. इस वजह से वहां भी काम नहीं हो रहा है. प्रोजेक्ट खत्म करने में हो रहे विलंब के व्यापक परिणाम सामने आ रहे हैं. उदाहरण के लिए, फरवरी 2012 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट को मई 2014 में ही पूरा हो जाना था.

दुर्भाग्य से, प्रोजेक्ट शुरू करने के बाद 790 करोड़ (54 फीसदी) काम की भौतिक प्रगति के विरुद्ध 644 करोड़ (44 प्रतिशत) रुपये की स्वीकृति दी गयी है. उसमें से 175 करोड़ रुपये ही भुगतान किये गये हैं. सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि वर्ष 2013-14 में उर्जा विभाग ने 395 करोड़ रुपये के बिल को लटकाये रखा, जबकि उसी वर्ष लगभग 700 करोड़ रुपये खर्च करने में विभाग अक्षम रहा. समूची राशि लैप्स कर गयी. इस प्रोजेक्ट के लंबित रहने की वजह से टीवीएनएल द्वारा उत्पादित की जाने वाली बिजली पतरातू या दुमका तक नहीं पहुंची. बिजली की समस्या से वहां के लोग जूझते रहे.

अब जब 32 महीने बीत चुके हैं, 395 करोड़ रुपये ऊर्जा विभाग पर बकाया है. फरवरी 2014 से बकाये इस बिल की वित्तीय प्रगति की दर में कम से कम 1.37 करोड़ रुपये प्रति माह की बढ़ोतरी हो चुकी है.

उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि प्रोजेक्ट के शेष कार्यो को पूरा करने के लिए कम से कम और 41 महीनों का समय लगेगा. यानी अब से काम शुरू हो, तो अप्रैल 2018 तक वह पूरा होगा. इस अतिरिक्त समय के कारण कार्य की लागत में 25 फीसदी (लगभग 370 करोड़) की बढ़ोतरी हो जायेगी. हर कोई जानता है कि अक्षम, सुस्त और भ्रष्ट अफसरों व नेताओं के कारण करदाताओं की जेब से निकली रकम बरबाद हो रही है. दुर्भाग्य से, राज्य में विधानसभा का चुनाव लड़ रहा एक भी दल या प्रत्याशी ऐसा नहीं है, जो इनसे छुटकारा दिलाने का प्रस्ताव लेकर लोगों के सामने आया है. बिजली की किल्लत ङोल रहे लोग बेबस होकर देख रहे हैं.

(लेखक झारखंड स्टेट न्यूज डॉट कॉम के संपादक हैं.)

खास तथ्य

प्रोजेक्ट का नाम : झारखंड में ट्रांसमिशन सिस्टम का निर्माण

कॉस्ट : 1472 करोड़

एजेंसी : पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड

डेट ऑफ वर्क ऑर्डर : फरवरी, 2012

डेट ऑफ कंपलीशन : मई 2014

राशि आवंटित : 644 करोड़ (44 प्रतिशत)

भौतिक प्रगति : 790 करोड़ (54 फीसदी)

अब तक लगा समय : 32 माह

बकाया बिल : 395 करोड़ (फरवरी 2014 से)

भुगतान : 175 करोड़ (अगस्त 2014 में)

वित्तीय प्रगति की दर : 1.37 प्रतिशत

काम पूरा होने में लगने वाला समय : 41 माह (अप्रैल 2018)

लागत में बढ़ोतरी : 25 प्रतिशत (लगभग 370 करोड़)

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