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आधुनिकता के दौर में धीमी पड़ी परंपरागत चाक की रफ्तार

आधुनिकता के दौर में धीमी पड़ी परंपरागत चाक की रफ्तार प्रतिनिधि, पूर्णियापूजा, अध्यात्म संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिकता इस कदर हावी हो गया है कि हर चीज हाइटेक करने में हमारी पुरानी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी कई महत्वपूर्ण चीजें अब विलोपन की कगार पर है. इसकी जद में हमारी धर्म-संस्कृति, पूजा और अध्यात्म के […]

आधुनिकता के दौर में धीमी पड़ी परंपरागत चाक की रफ्तार प्रतिनिधि, पूर्णियापूजा, अध्यात्म संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिकता इस कदर हावी हो गया है कि हर चीज हाइटेक करने में हमारी पुरानी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी कई महत्वपूर्ण चीजें अब विलोपन की कगार पर है. इसकी जद में हमारी धर्म-संस्कृति, पूजा और अध्यात्म के वक्त सर्वाधिक महत्व रखने वाले कुम्हार के चाक से बने और आग में तप कर निकले मिट्टी के दीप भी आ गये हैं. इसकी जगह अब इलेक्ट्रानिक बल्व लेने लगे हैं. इसी कारण कुम्हार के चाक की रफ्तार भी धीमी पड़ गयी है. गौरतलब है कि लक्ष्मी-गणेश के पूजन को लेकर दीपावली पर घरों की साज-सज्जा के साथ दीपों की शृंखला से घर आंगन सजाने की पौराणिक परंपरा रही है, लेकिन पिछले तकरीबन एक दशक से जारी आधुनिकता की बयार में इलेक्ट्रॉनिक रंगीन बल्बों ने इस कदर अपना असर समाज में छोड़ा कि परंपरागत दीप का प्रयोग कम होता चला जा रहा है. इससे शहर से लेकर गांव तक गतिशील कुम्हारों की चाक की गति धीमी पड़ गयी है. तकरीबन डेढ़ दशक पहले तक दीपावली पर्व में दीपों की रोशनी से गांव, घर-आंगन सजते थे. महीनों पहले से कुम्हारों के दरवाजे पर दीप की खरीदारी को लेकर लोग पहुंचते थे वहीं छह माह पहले से तेज हुई चाक की रफ्तार दीपावली तक नहीं थमती थी. फिलहाल हालात यह है कि कुम्हार समुदाय अपने परंपरागत पेशे से किनारा कर रहे हैं. जो अपने पुश्तैनी धंधा को बरकरार रखे हैं, वे भी महंगाई की मार और आधुनिक युग में रंग बिरंगी इलेक्ट्रॉनिक बल्बों की चकाचौंध में मिट्टी के बरतन सहित दीपों की घटती मांग से परेशान हैं. इस बाबत गुलाबबाग बाजार आये कुम्हार राम निहोरा पंडित, बालक पंडित व सुकदेव कहते हैं कि समय बदल गया अब कुम्हारों के दरवाजे पर दीप खरीदने कोई नहीं आते, केवल शादी ब्याह के समय कभी कभार हमारे दरवाजे पर रौनक दिखती है. रामनिहोरा पंडित बताते हैं कि पहले मिट्टी, खर-पतवार बगीचे जंगलों एवं बड़े लोगों के खेतों से फ्री और कम कीमत में मिल जाती थी अब मिट्टी भी पांच से सात सौ रुपये ट्रेलर मिलती है. जलावन खरीदना पड़ता है. फिर भी दीप के साथ मिट्टी के बरतनों की बिक्री नहीं है. इससे परिवार का पालन पोषण भी संभव नहीं हो पा रहा है. बालक पंडित के अनुसार अब लोगों की मानसिकता बदली है, पहले सैकड़ों दीप खरीदने वाले दर्जन में खरीदते हैं, बल्कि मिट्टी के कलश की जगह तांबा पीतल के कलश के चलन व इलेक्ट्रॉनिक बल्बों के कारण मिट्टी के बरतन एवं दीपों का कारोबार महज एक औपचारिकता बन कर रह गया है. दीपों की बिक्री सिमटी, सज गयी रंगीन बल्बों की दुकानशहर से सुदूर ग्रामीण इलाकों तक हर कोई रंगीन बल्बों से दीपावली पर सजावट करने में लगे हैं. इससे जहां बाजारों में दीपों की खरीदारी महज औपचारिकता तक सिमटी नजर आ रही है. वहीं सैकड़ों दुकानों एवं चौक चौराहों पर रंगीन इलेक्ट्रॉनिक बल्बों की दुकानें सजने लगी हैं. डेकोरेटरों की है बल्ले-बल्लेशहर में दीपावली पर घरों को रंगीन बल्बों से सजाने को लेकर एक स्पर्धा सी दिखने लगी है. हर कोई एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहता है. इलेक्ट्रॉनिक बल्बों के दुकानों पर भीड़ दिखने लगी है. कुछ लोग खुद से सजावट करने में लगे हैं, तो ज्यादातर लोग डेकोरेटरों से घरों को सजाने की तैयारी करने लगे हैं. हालात यह है कि शहर के सभी डेकोरेटर दीपावली तक लगभग बुक हो चुके हैं. वहीं लगन के इंतजार में इन दिनों व्यग्र रहने वाले डेकोरेटरों की बेमौसम बल्ले-बल्ले बनी हुई है. फोटो: 29 पूर्णिया 33-दीप तैयार करता कुम्हार

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