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कर्मकांडी विधि से सूर्योपासना और लोकपर्व छठ के बीच कितनी साम्यता, कितना अंतर, जानें सूर्योपासना का गुजरात से क्या है रिश्ता

सूर्योपासना और छठ पूजा में जो एक खास अंतर है, वो अब धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है.

पटना : ये बात सच है कि छठ पूजा बिहार की लोक परंपरा का सबसे अनोखा पर्व है. इसकी शुरुआत निश्चित रूप से मूर्ति पूजक संस्कृति से पूर्व हुई. मगध और मिथिला में इसके जड़ काफी गहरे हैं.

प्रकृतिपूजक संस्कृति और लोक परंपरा का यह महापर्व आज पूरे भारत में श्रद्धा भाव से किया जा रहा है, लेकिन विभिन्न संस्कृति और परंपरावाले समाज में इस पर्व की बढ़ती लोकप्रियता का कुप्रभाव भी इसपर दिखने लगा है.

सूर्योपासना और छठ पूजा में जो एक खास अंतर है, वो अब धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है. सूर्य पूजा का लोकपर्व तेजी से इस इलाके में सूर्योपासना का कर्मकांड बनता जा रहा है. इसका लोकपक्ष खत्म होता जा रहा है.

हम सब जानते हैं कि ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा शुरू की गयी सूर्योपासना में वैदिक मंत्र की अनिवार्यता रही है. इसके साथ कर्मकांड के अनेक शर्त इसपर लागू होते हैं, लेकिन छठ पूजा में ऐसा नहीं रहा है. छठ इन सब से मुक्त है. जाति, वर्ण, समाज, लिंग, मंत्र, यंत्र जैसे अनेक बंधनों से मुक्त यह महापर्व लोक समाज और प्रकृति के बीच सीधा संवाद करता है.

सवाल उठता है कि इस इलाके में सूर्यउपासना का कर्मकांड कब से शुरू हुआ? सूर्य उपासना का कर्मकांड हमें पश्चिम भारत में दिखता है. गुजरात के भरुच में जो पहले भृगुकच्छ था, नर्मदा के तट पर है, और वहां सूर्य और उनकी पत्नी ऊषा की पूजा का बड़ा केंद्र था.

वहां बाद में गुर्जर सम्राट जयभट्ट द्वीतीय ने एक विशाल सूर्य मंदिर की स्थापना भी की. गुर्जर राजा-गण वैसे भी बड़े सूर्योपासक हुए. यानी गुजरात में बसे शाकलदीपी ब्राह्मणों की वजह से वहां सूर्योपासना प्रचलित हुई, जो बाद में मगध आयी.

हाल के कुछ शोध बताते हैं कि सूर्य मंदिरों की श्रृंखला गंगा से उत्तर मिथिला में थी. गंगा से दक्षिण ये श्रृंखला संभवत: उड़ीसा के कोणार्क तक पहुंच गई थी.

औरंगाबाद का देव, पटना का पुन्डारक (प्राचीन नाम पुण्यार्क) और झारखंड में कई जगह मिल रहे सूर्य मंदिर इस बात का संकेत करते हैं.

सामाजिक विश्लेषक व पत्रकार सुशांत झा ने एक साक्षात्कार में कहा हैं कि छठ से जुड़ा एक सिद्धांत शाकलद्वीपी ब्राह्मणों से भी संबद्ध है. ये शाकलद्पीवी कौन थे?

शाकलदीपी या शकद्वीपी ब्राह्मण वे थे जो शक द्वीप पर निवास करते थे जिसे आधुनिक समय में ईरान कहा जाता है. कहते हैं कि सुदूर अतीत में कभी ये लोग मगध से ही शक द्वीप को गये थे और इसीलिए इन्हें मग भी कहा गया.

लैटिन ग्रंथों में ईरान के प्राचीन निवासियों की एक जाति को मैगिज भी कहा गया है जो सूर्य के उपासक थे. गौर कीजिए कि ईरानी मूल के पारसी भी सूर्य के उपासक हैं. शाकलदीपी ब्राह्मणओं के कुलगीत को मगोपाख्यान कहा जाता है. लेकिन सवाल ये है कि ये शाकलदीपी ब्राह्मण ईरान से बिहार कैसे आये?

इस संबंध में सुशांत कहते हैं कि कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हुआ तो वैद्यों ने उन्हें सूर्य की आराधना करने के लिए एक यज्ञ करने की सलाह दी. कुष्ठ रोग से जुड़ी भ्रांतियों की वजह से स्थानीय ब्राह्मणों ने इससे इनकार कर दिया तो कृष्ण ने शक द्वीप के ब्राह्मणों को द्वारका आमंत्रित किया जो सूर्य के उपासक भी थे और वैद्य भी.

ऐसा भौगोलिक रूप से भी सही लगता है. कहते हैं कि साम्ब का रोग उन्होंने अपनी युक्तियों से दूर कर दिया और वहीं बस गये. इस प्रकार सूर्योपासक एक वर्ग गुजरात में बस गया. लेकिन कालांतर में जब द्वारका का पतन हुआ और वह समुद्र में विलीन हो गई, तो ये शक-द्वीपीय ब्राह्मण मगध के इलाकों में बस गये.

जिसका महाभारत काल के बाद पुन: उत्थान हो रहा था. ये वहीं ब्राह्मण हैं जिनकी वजह से गंगा के दक्षिण भी सूर्य मंदिरों की एक श्रृंखला बनी और उनके पुरोहित ये शाकलदीपी ही होते हैं.

Posted by Ashish Jha

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