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यादों के झरोखे से : पहले महापौर भी होते थे कानून के जानकार

रवींद्र प्रसाद पूर्व पार्षद अमिताभ श्रीवास्तव पटना सिटी : दलगत व सियासत की भावना से दूर होकर शहर के विकास कैसे हो इस पर कार्य होता था. अब यह कोरा सपना बन गया है. अतीत को याद करते हुए पटना नगर निगम में वार्ड संख्या 35 का 1977 से लेकर 2002 अर्थात 25 वर्षों तक […]

रवींद्र प्रसाद
पूर्व पार्षद
अमिताभ श्रीवास्तव
पटना सिटी : दलगत व सियासत की भावना से दूर होकर शहर के विकास कैसे हो इस पर कार्य होता था. अब यह कोरा सपना बन गया है. अतीत को याद करते हुए पटना नगर निगम में वार्ड संख्या 35 का 1977 से लेकर 2002 अर्थात 25 वर्षों तक प्रतिनिधित्व करनेवाले पूर्व पार्षद रवींद्र प्रसाद यह बात कहते हैं.
वे कहते हैं कि कोई भाजपा, कांग्रेस व खुद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, विकास के मामले में सदन के अंदर बहस होती थी. यहां मतभेद नहीं होता था. 25 वर्षों के कार्यकाल में आधा दर्जन से अधिक महापौर के साथ कार्य कर चुके पूर्व पार्षद रवींद्र प्रसाद बताते हैं कि उनके समय में दस माह के लिए चंद्रमोहन प्रसाद महापौर बने. इसके बाद कृष्ण नंदन सहाय लगातार तीन बार महापौर बने, उनको इस बात का अनुभव था कि विकास कार्य कैसे कराया जाये. फिर कृष्ण बहादुर जी महापौर बने. फिर कानून के जानकार देवता प्रसाद महापौर बनाये गये. इसके बाद जमुना प्रसाद फिर मधुसुदन यादव महापौर बनाये गये.
निगम का अतीत इतना समृद्ध था कि संगठन से चुन कर आये प्रतिनिधि को भी महापौर का दायित्व मिलता था. स्मृतियों में खो पूर्व पार्षद बताते हैं कि उस समय का माहौल अनुशासनिक था. महापौर व मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी में कभी खींचतान नहीं होती थी. अधिकारी महापौर व पार्षद की बात सुन त्वरित कार्य कराते थे. वर्तमान व्यवस्था में तमाशबीन बने पूर्व पार्षद बताते हैं कि हद तो यह है निगम संविधान के तहत पार्षदों को क्या अधिकार व कर्तव्य है, इस बात की भी जानकारी अधिकतर पार्षदों को नहीं होगी. निगम व स्थायी समिति की बैठक में पार्षद तैयारियों के साथ जाते थे. वार्ड में काम करने का मौका मिला था. छोटी-छोटी अनुशंसा को अधिकारी त्वरित गति से कार्रवाई करते हुए धरातल पर उतार देते थे. अब वह समय नहीं है. स्थिति यह है कि महापौर की बात तो अधिकारी सुनते नहीं, पार्षदों क्या सुनेंगे. सियासत में दूरी बनाये पूर्व पार्षद
कहते हैं कि समृद्ध अतीत का वर्तमान खोखला है. ऐसे में बेहतर है चुप रहना. वे मानते हैं कि आम लोगों को आज भी बुनियादी समस्याओं से जूझना पड़ता है. विकास के नाम पर पार्षद समर्थकों का विकास करते हैं.

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