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नेताओं की बदनामी के सबब बन रहे बेशुमार चुनावी खर्चे

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक इन दिनों इस देश के चुनावी खर्चों में बेशुमार वृद्धि हो गयी है. उन खर्चें के लिए भारी चंदे लिये जाते हैं. भारी-भरकम चंदे बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी और काला धंधा करने वाले देते हैं. जाहिर है कि दानकर्ता चंदे का हिसाब भी रखते हैं. डायरी रखते हैं. डायरियों में अक्सर बड़े […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
इन दिनों इस देश के चुनावी खर्चों में बेशुमार वृद्धि हो गयी है. उन खर्चें के लिए भारी चंदे लिये जाते हैं. भारी-भरकम चंदे बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी और काला धंधा करने वाले देते हैं. जाहिर है कि दानकर्ता चंदे का हिसाब भी रखते हैं. डायरी रखते हैं. डायरियों में अक्सर बड़े नेताओं के नाम होते हैं. ऐसे नेताओं के भी नाम आ जाते हैं जो उन पैसों में से अपने निजी इस्तेमाल के लिए एक पैसा नहीं रखते. पर नाम है तो बदनामी तो होगी.
बेईमान नेताओं को तो इसकी चिंता नहीं होती. क्योंकि यदि उन पर केस भी हो जाये तो वे उससे निकल जाने का तरीका भी जानते हैं. पर यदि कोई ईमानदार नेता इस विधि से बदनाम होता है तो चौतरफा नुकसान होता है. पार्टी की बदनामी होती है. उस नेता की छवि खराब होती है. राजनीति की छवि खराब होती है. साथ ही काला धन वालों की चांदी हो जाती है. वे अपने धंधे में निश्चिंत होकर एक बार फिर लग जाते हैं. वे समझते हैं कि उनको बचाने वाले मौजूद हैं. यह सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि इस देश के राजनीतिक नेताओं ने चुनाव का खर्च बहुत बढ़ा दिया है.
आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में इतने खर्च नहीं थे तो नेताओं और राजनीति की अधिक बदनामी भी नहीं थी.भारी चुनावी खर्चों के कुछ आंकड़े : सन 2004 से 2011 तक की कालावधि में कांग्रेस ने चंदा के रूप में जहां 2008 करोड़ रुपये वसूले तो भाजपा ने 994 करोड़ रुपये. इन में से 80 से 90 प्रतिशत राशि अज्ञात स्रोतों से आयी. भारत सरकार ने नियम ही कुछ ऐसे बना रखे हैं ताकि चुनावों में काले धन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो सके. नियम है कि बीस हजार रुपये से अधिक के चंदे का ही हिसाब चुनाव आयोग को देना है. नतीजन राजनीतिक दल बड़े-बड़े दाताओं से भी 19 हजार के टुकड़ों में बांट कर लाखों-करोड़ों रुपये चंदा ले लेते हैं.
बीस हजार से कम के चंदे को अज्ञात स्रोतों से आया धन मान लिया जाता है. इस देश में इस चंदे की कोई अधिकतम सीमा भी नहीं है. यानी अधिक से अधिक बटोरिये. चुनावी तामझाम और वोटरों को खरीदने में अधिक से अधिक खर्च करिये. कुछ बचे तो उसके जरिये अपनी निजी संपत्ति भी बना लीजिए. आज यही राजनीति है. कुछ ही लोग अपवाद हैं.
अब तो सभा-मंचों के निर्माण पर भी होते हैं करोड़ों खर्च : अब चूंकि कोई छोटा नेता भी मंच के नीचे बैठना नहीं चाहता, इसलिए चुनावी सभा मंच भी बड़ा बनने लगा है. एक मंच से कामन चले तो दो मंच बनते हैं. सभी जातियों व समुदायों के नेताओं को मंच पर बैठाना जरूरी बना दिया गया है.
मंच भी भड़कीले, चमकीले और खर्चीले बन रहे हैं. इसके अलावा भी बहुत से घोषित और अघोषित खर्चे चुनावों में हो रहे हैं. हेलीकॉप्टर और बड़े-बड़े होटलों के खर्च हैं. अनेक नेताओं का जीवन स्तर पांच सितारा हो चुका है. कई जगहों पर मीडिया पर भी खर्च किया जाता है. अब इन सबके लिए पैसे जहां से आएंगे, वहां की डायरी एक न एक दिन सामने आयेगी ही. हाल में आयी सहारा डायरी में भी एक से अधिक दलों के नेताओं के नाम हैं.
नब्बे के दशक में भी हवाला कारोबारी जैन बंधुओं की डायरी में 115 बड़े नेताओं और नौकरशाहों के नाम मिले थे. इन लोगों पर हवाला व्यापारी से लाखों रुपये लेने का आरोप था. चूंकि अधिकतर प्रमुख दलों के नेतागण संलिप्त थे, इसलिए व्यक्तिगत रूप से तो किसी नेता का कुछ नहीं बिगड़ा. पर राजनीति जरूर बदनाम हुई. होती रहेगी. इसमें कुछ ईमानदार नेता भी बदनाम होते रहेंगे यदि चुनाव के खर्चे नहीं घटाये गये. क्या इस देश का प्रभुवर्ग नेता और राजनीति के बदनाम होने का रास्ता कभी बंद करेगा? यदि करेगा तो उससे लोकतंत्र का ही भला होगा.
आसान नोटबंदी के उपाय भी तो बताते नायडु
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु ने बड़े नोटों की समाप्ति के लिए अक्तूबर में ही प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था. जब नवंबर में नोटबंदी हो गयी तो उनके दल टीडीपी ने इसे अपनी जीत बताया. जब नोटबंदी को मूर्त्त रूप देने के काम में दिक्कतें आ रही हैं तो अन्य लोगों के साथ-साथ नायडु भी परेशान हैं. सवाल है कि नायडु ने यदि नोटबंदी की सलाह दी, तो उसके आसान क्रियान्वयन के उपाय भी क्यों नहीं बताए? दरअसल, उपाय तो उन्हें भी नहीं मालूम थे.
कुछ बातें तो अनुभव से ही सीखनी पड़ती है. वही हो रहा है. पर एक बात तय है. संकेत यही है कि नोटबंदी से आम लोग उस तरह से दु:खी नहीं हैं जिस तरह लोग 1975-76 के आपातकाल से क्षुब्ध थे. 1977 के चुनाव में तो सत्ताधारी कांग्रेस बुरी तरह हार गयी थी. याद रहे कि कुछ नेता नोटबंदी की तुलना आपातकाल से कर रहे हैं. इस बार तो नोटबंदी के बाद जो भी चुनाव हुए,उसमें भाजपा को कोई नुकसान नहीं हुआ. हो सकता है कि अगले किसी चुनाव में नायडु को भी नुकसान नहीं हो, पर चंद्रबाबू अपनी जनता को थोड़ी भी परेशान नहीं देखना चाहते. इसलिए वह चिंतित लग रहे हैं.
2004 में भी तो अपनी ही गलती से हुए थे परेशान
2002 के गुजरात दंगे के बाद देशभर के अल्पसंख्यक परेशान थे. जहां ओवैसी परिवार बसता है, वहां तो स्वाभाविक ही है कि अल्पसंख्यक भाजपा से अधिक ही नाराज थें. तेलुगु देशम पार्टी तब अटल सरकार का बाहर से समर्थन कर रही थी. 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले अल्पसंख्यकों ने नायडु से कहा कि वह अटल सरकार को समर्थन देना बंद कर दें. नायडु तो तब फीलगुड में थे. खुद भी उन्होंने आंध्र में बहुत अच्छे काम किये थे. पर इस देश में कुछ जातियों और समुदायों को सरकारों के अच्छे कामों से कम ही मतलब रहता है. उनके एजेंडा कुछ और ही होते हैं.
जब टीडीपी ने भाजपा को साथ नहीं छोड़ा तो वह आंध्र में सत्ता से बाहर हो गयी. इस बार नायडु को शायद लग रहा होगा कि कहीं 2004 की पुनरावृत्ति न हो जाए!
आंबेडकर के घनिष्ठ थे बलराज मधोक
आरके सिंहा की एक नयी किताब आयी है. नाम है ‘बेलाग-लपेट.’ पत्रकार से उद्योगपति और अब राज्यसभा सदस्य बने सिंहा जी ने अपनी किताब में यह जानकारी दी है कि आडवाणी जी को बलराज मधोक जनसंघ में लाये थे. पहले आडवाणी जी आरएसएस में थे. आडवाणी के अंग्रेजी ज्ञान के कारण मधोक ने आडवाणी जी को दीन दयाल उपाध्याय से जोड़ा.
सिंहा के अनुसार, एक दिन दीनदयाल उपाध्याय ने मधोक जी से कहा कि मुझे एक अंग्रेजी का अच्छा ज्ञाता चाहिए. जो हमारे प्रस्तावों का अंग्रेजी अनुवाद कर सके. मधोक जी ने कहा कि मैं एक अच्छे स्वयंसेवक को जानता हूं. कराची के कॉन्वेंट में पढ़ा है. वह आडवाणी जी थे. जनसंघ में आ गये. बेलाग-लपेट के अनुसार जनसंघ के संस्थापक सदस्य बलराज मधोक और बाबा साहब आंबेडकर में बहुत घनिष्ठ संबंध थे. दोनों के बीच लगातार हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों, भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा को देश मेंउचित स्थान दिलवाने जैसे मसलों पर गहन संवाद होता था.
और अंत में
हाल में गांधीवादी पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र के निधन के बाद उनके बारे में कहीं पढ़ा कि उन्होंने अपना एक घर भी नहीं बनवाया. मुझे याद है कि एक बार प्रभाष जोशी ने मुझसे यह अफसोस जताया था कि वह अनुपम मिश्र को जनसत्ता से जोड़ने में विफल रहे. अनुपम नौकरी करने को तैयार नहीं थे. यदि नौकरी होती तो घर भी हो जाता. पर अनुपम तो अनुपम थे. उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में काम अधिक जरूरी लगा.

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