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नोटबंदी पर साथ तो नशाबंदी में सहयोग क्यों नहीं !

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक हार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नोटबंदी पर केंद्र सरकार का समर्थन कर रहे हैं. एक कहावत है कि ‘दो होशियार व्यक्ति एक तरह से सोचते हैं.’ यदि जेहन में ईमानदारी हो तो दो दलों में रहने के बावजूद नेता एक ही तरह से सोचते हैं. भारत जैसे गरीब देश में सत्ताधारियों […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
हार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नोटबंदी पर केंद्र सरकार का समर्थन कर रहे हैं. एक कहावत है कि ‘दो होशियार व्यक्ति एक तरह से सोचते हैं.’ यदि जेहन में ईमानदारी हो तो दो दलों में रहने के बावजूद नेता एक ही तरह से सोचते हैं. भारत जैसे गरीब देश में सत्ताधारियों की व्यक्तिगत ईमानदारी बहुत मायने रखती है. क्योंकि इस देश के कम ही नेताओं में इनदिनों यह पायी जा रही है. व्यक्तिगत ईमानदारी अक्सर सार्वजनिक सोच और निर्णयों को प्रभावित करती हैं. इस पृष्ठभूमि में बिहार में नशाबंदी से हो रहे फायदों को ध्यान में रखते हुए केंद्र की मोदी सरकार को चाहिए था कि वह पूरे देश में नशाबंदी लागू कर देती. पर इसके विपरीत भाजपा की झारखंड सरकार नशाबंदी के मामले में बिहार सरकार के साथ सहयोग तक नहीं कर रही है. खबर मिलती रही है कि बिहार से सटे झारखंड के जिलों में शराब की बिक्री बढ़ गयी है. बिहार में शराबबंदी के बाद वहां नयी दुकानें खुली हैं.
बिहार के नशेबाजों के उपयोग के लिए. वैसे बिहार के अन्य पड़ोसी राज्यों का भी यही हाल है, पर बात अभी मोदी जी की हो रही है. गुजरात के मूल निवासी मोरारजी देसाई जब 1977 में प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने न सिर्फ नोटबंदी लागू की, बल्कि शराबबंदी की शुरुआत भी कर दी थी. उनकी योजना के अनुसार हर साल एक-चौथाई शराब की दुकानों को बंद करना था. पहला चरण लागू भी हो गया था. यदि देसाई ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया होता तो उनकी सरकार पूरे देश में पूर्ण शराबबंदी भी लागू कर देती.
गांधीवादी मोरारजी के अधूरे कामों को नरेंद्र मोदी की सरकार पूरा कर सकती है यदि वह चाहे तो. पूरे देश में शराबबंदी लागू हो जाने से बिहार में भी शराबबंदी को सफलतापूर्वक लागू करने में सुविधा होती. शराबखोरी के समुद्र के बीच बिहार को नशाबंदी का टापू बनाये रखना मुश्किल होगा.
शरद यादव की स्वीकारोक्ति : शरद यादव अपने ढंग के नेता हैं. संभवत: राजनीति के वह एकमात्र नेता हैं जो खुलेआम यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने हवाला कारोबारी से 5 लाख रुपये लिये थे. उन्होंने इस बुधवार को भी राज्यसभा में स्वीकार किया कि उन्होंने पैसे लिये थे.
विमुद्रीकरण पर सदन में चर्चा के दौरान वे बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि अन्य किसी ने स्वीकार नहीं किया. मैंने किया. गंभीर बात यह थी कि दरअसल जिस हवाला कारोबारी ने नेताओं को पैसे दिये थे, वह कश्मीर के आतंकवादियों को भी बाहर से पैसे लाकर देता था. सीबीआइ ने कश्मीर के आतंकवादियों के पैसों के स्रोत की खोज में जैन बंधुओं के यहां 1991 में छापामारी की तो उसे एक डायरी मिली. उस डायरी में विभिन्न दलों के अनेक बड़े नेताओं के नाम थे, जिन्हें जैन बंधुओं ने समय-समय पर भारी रकम दी थी.
इस पर विवाद उठने पर कई अन्य नेताओं के साथ शरद यादव ने भी संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. इस ताजा स्वीकारोक्ति के साथ शरद ने सुप्रीम कोर्ट की उस महत्वपूर्ण टिप्पणी पर भी मुहर लगा दी कि ‘सीबीआइ ने हवाला घोटाले की ठीक से जांच ही नहीं की.’ याद रहे कि हवाला घोटाला नब्बे के दशक का एक सर्वदलीय घोटाला था. अधिकतर दलों के अनेक बड़े नेताओं ने हवाला कारोबारी जैन बंधु से पैसे लिये थे. उन नेताओं में पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व स्पीकर और पूर्व केंद्रीय मंत्री भी शामिल थे. कुछ मौजूदा सत्ताधारी भी थे.
काले धन में बढ़ोत्तरी का एक कारण यह भीकाले धन रखनेवालों और हवाला कारोबारियों का हौसला इस देश में बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि हवाला घोटाले के आरोपियों को कोई सजा नहीं मिल सकी. जब अनेेक दलों के शीर्ष नेता आरोपी हों तो सजा कैसे होगी? हवाला मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जेएस वर्मा ने 14 जुलाई 1997 को अदालत में कहा था कि ‘हवाला कांड को दबाने के लिए हम पर लगातार दबाव पड़ रहा है.’ अब आप कल्पना कर सकते हैं कि चीफ जस्टिस पर दबाव बनाने वाली हस्ती कितनी बड़ी और प्रभावकारी होगी.
उन्हीं दिनों तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायण ने कहा था कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए देशवासियों को सत्याग्रह करना चाहिए. तत्कालीन प्रधानमंत्री आइके़ गुजराल ने कहा था कि ‘मैं भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हूं.’ यूं ही नहीं इस देश में काला धन बढ़कर जीडीपी का 20 प्रतिशत हो चुका है. यदि मोदी सरकार ने विमुद्रीकरण नहीं किया होता तो काला धन का प्रतिशत और न जाने कितना बढ़ता. काला धन की ताकत आज की मुख्यधारा की राजनीति में भी इतनी बढ़ गयी है कि ताजा विमुद्रीकरण पर अनेक दल और नेता बौखला गये हैं. वे इस बात की भी परवाह नहीं कर रहे हैं कि विमुद्रीकरण के बाद इस देश में आतंकवादियों और अतिवादियों की हिंसक गतिविधियां घटी हैं.
खराब अनुभव के बाद भी जेपीसी की मांग
राज्यसभा में प्रतिपक्ष ने विमुद्रीकरण पर जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग की है. प्रतिपक्ष चाहता है कि जेपीसी इस आरोप की जांच करे कि केंद्र सरकार ने विमुद्रीकरण की पूर्व सूचना भाजपा के कुछ मित्रों को दे दी थी. यदि यह बात सही हो भी तो भी क्या जेपीसी सरकार के खिलाफ कोई रपट देगी? पिछले अनुभव तो इस सवाल का नकारात्मक जवाब देते हैं.
याद रहे कि जेपीसी में सत्तारूढ़ दल के सांसदों का ही बहुमत होता है. जेपीसी की मांग इस बात के बावजूद की गयी कि जेपीसी के मामले में पिछले अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं. लगता है कि इस मांग का उद्देश्य कुछ और है. टूजी घोटाले पर गठित जेपीसी संचार मंत्री ए़ राजा को पूछताछ के लिए बुलाया तक नहीं. जबकि कोर्ट ने राजा को जेल भेजने लायक आरोपी समझा. नब्बे के दशक के चर्चित शेयर घोटाले पर गठित जेपीसी को हर्षद मेहता के खिलाफ कुछ नहीं मिला. जबकि सुप्रीम कोर्ट तक ने बाद में मेहता को सजा दी.
बोफर्स पर गठित जेपीसी यह भी पता नहीं लगा सकी कि बोफर्स सौदे में दलाली दी गयी या नहीं. पर बाद में इसी देश के आयकर पंचाट ने आदेश दिया कि बोफर्स की दलाली में क्वात्रोची और एक अन्य व्यक्ति को मिले पैसों में से सरकार को आयकर मिलना चाहिए. ऐसे अन्य मामले भी हैं.
नेशनल हेराल्ड का डिजिटल संस्करण शुरू
नेशनल हेराल्ड का डिजिटल संस्करण का प्रकाशन 14 नवंबर से शुरू हो गया. प्रिंट मीडिया के शक्ल में शायद वह बाद में आयेगा. नीलाभ मिश्र के संपादकत्व में शुरू नेशनल हेराल्ड के मौजूदा संचालकों को यह बात सदा याद रखनी चाहिए कि इसकी स्थापना कभी बड़े उद्देश्यों के लिए की गयी थी. खबरों से लगता है कि कुछ कल्पनाशील और खबरखोजी पत्रकारों को हेराल्ड के साथ जोड़ा गया है.
उनमें उत्तम सेनगुप्त भी हैं जो पटना के एक अखबार में संपादक रह चुके हैं. इसका लाभ पाठकों को मिलेगा. हेराल्ड ने नाथू राम गोडसे के आरएसएस से संबंध को लेकर एक सबूत छापा है. देखना है कि वह सबूत भिवंडी में राहुल गांधी के खिलाफ चल रहे संबंधित केस में कितना काम आता है.
और अंत में
प्रधानमंत्री विमुद्रीकरण का फैसला वापस लेने को तैयार नहीं हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नशाबंदी कानून वापस लेने को तैयार नहीं हैं. सिर्फ मामूली फेरबदल के लिए राजी हैं. पटना और दिल्ली में सत्ता और प्रतिपक्ष में इन मुद्दों पर संघर्ष जारी है. संघर्ष का फल मीठा होता है. कठिनाइयों के दौर से गुजर कर जो सफलता मिलती है, वह और अधिक मीठी लगती है.

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