फुलवारीशरीफ (पटना)
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राजधानी पटना से सटे दानापुर मसहरी में तीन साल की बच्ची गीता मिलती है. वह अपने गांव के आंगनबाड़ी केंद्र के पास खेल रही होती है, देखने से ही पता चल जाता है कि वह गंभीर रूप से अतिकुपोषित (सिवियरली एक्यूट मॉलन्यूट्रीशस) है. इसकी जगह पोषण पुनर्वास केंद्र में होनी चाहिए. पड़ोस के गांव नवादा, पुरवारी टोला की दो साल की स्नेहा का भी यही हाल है. प्रियंका तो बिस्तर पर पड़ी है. उसके छोटे भाई की मौत कुछ ही दिन पहले हुई है. माता-पिता अभी उस परेशानी से उबर भी नहीं पाये हैं कि प्रियंका की बीमारी चिंता सिर पर सवार है. संबंधित आंगनबाड़ी केंद्रों में यह जानकारी है कि इस बच्चों का इलाज कराना जरूरी है. मगर परेशानी यह है कि राजधानी पटना का पोषण पुनर्वास केंद्र तीन-चार महीनों से बंद पड़ा है. इन्हें भरती कराया जाये भी तो कहां.
दरअसल बिहार राज्य में गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चों के इलाज के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र ही एकमात्र जगह है. मगर राजधानी पटना समेत सात-आठ जिलों के पोषण पुनर्वास केंद्र पिछले कुछ महीनों से बंद रहे हैं. जिस वजह से गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चे जिन्हें तत्काल इन केंद्रों में भरती कराया जाना चाहिए था, उन्हें आंगनबाड़ी सेविकाएं चाह कर भी भरती नहीं करा पा रहीं.
राजधानी पटना से सटे फुलवारीशरीफ प्रखंड के गांवों में यात्रा करने पर पता चला कि नवादा गांव के सात बच्चे, दानापुर मुसहरी के चार और पोखरपर केंद्र के इलाके के 12 बच्चे गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चों के रूप में पहचान किये जा चुके हैं. इनमें से कई बच्चों के माता-पिता उन्हें पोषण पुनर्वास केंद्र में भरती कराने के लिए भी तैयार हैं. मगर केंद्र बंद होने के कारण इन्हें इंतजार करना पड़ रहा है.
राज्य स्वास्थ्य समिति के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक फिलहाल कुछ केंद्रों को आनन-फानन में शुरू किया गया है, मगर आज की तारीख में भी ऐसे चार केंद्र बंद पड़े हैं. ये हैं पटना, जहानाबाद, मधेपुरा और नवादा. पटना को छोड़ दिया जाये, तो बाकी तीन केंद्रों के हाल फिलहाल में खुलने की कोई संभावना भी नजर नहीं आ रही. राज्य में गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चों की जो संख्या है, उसे देखते हुए इन केंद्रों का बंद होना आपराधिक कृत्य माना जा रहा है.
खतरे में है प्रदेश के नौ लाख अति गंभीर कुपोषित बच्चों का भविष्य
इलाज की लंबी वेटिंग
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 के मुताबिक आज भी बिहार में 7 फीसदी बच्चे गंभीर रूप से अतिकुपोषित हैं. दस साल पहले संपन्न हुए पिछले फैमिली हेल्थ सर्वे में यह आंकड़ा 8.3 फीसदी था. इस तरह देखा जाये तो दस सालों में इस आंकड़े में मुश्किल से 1.3 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है, जिसे बहुत कम माना जा रहा है. सात फीसदी बच्चों का मतलब है तकरीबन नौ लाख बच्चे. और इन बच्चों को स्वस्थ बनाने के लिए बिहार में एक ही योजना है वह है पोषण पुनर्वास केंद्र. कहने को बिहार के हर जिले में ऐसे केंद्र संचालित हो रहे हैं. मगर इनमें से कई केंद्र अलग-अलग कारणों से अक्सर बंद हो जाते हैं. जो केंद्र खुले भी रहते हैं उनमें सिर्फ 20 सीटें होती हैं. और एक बच्चा इन केंद्रों में औसतन 20 दिन भरती रहता है. यही वजह है कि ज्यादातर केंद्रों में काफी वेटिंग रहती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि अकेले इन केंद्रों के भरोसे गंभीर रूप से अति कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी लाना आसान नहीं है. क्योंकि एक केंद्र साल भर में हद से हद तीन से चार सौ बच्चों का इलाज कर सकता है. इस तरह अगर 38 जिलों के सारे केंद्र लगातार खुले रहें तब भी साल भर में 12-13 हजार बच्चों का ही इलाज हो सकता है. जबकि ऐसे तकरीबन नौ लाख बच्चे इलाज की लाइन में खड़े हैं.
आधा-अधूरा पोषाहार
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि राज्य में सिर्फ 7.3 फीसदी बच्चों को ही संपूर्ण आहार यानी कार्बोहाइड्रेट के साथ, प्रोटीन, वसा और विटामिन-मिनरल्स युक्त भोजन उपलब्ध है. इसका मतलब यह है कि आंगनबाड़ी केंद्रों के जरिये जो पोषाहार उपलब्ध कराया जाता है वह इस कमी को पूरा नहीं कर पा रहा. आज भी राज्य के 43.9 फीसदी बच्चे अंडरवेट हैं. दस साल पहले यह संख्या 55.9 फीसदी थी. यानी दस साल की मशक्कत के बाद हम आंकड़ों को महज 12 फीसदी कम कर पाये हैं.
ये भी कुपोषण के कारण
रवि नारायण कहते हैं, पोषाहार तो एक फैक्टर है, बाल विवाह, कम उम्र में गर्भाधान, टीकाकरण का अभाव, गर्भवती स्त्री को संपूर्ण आहार उपलब्ध न होना, साफ-सफाई का अभाव ऐसे कई कारण हैं, जिससे बच्चा जन्म से ही अंडरवेट होता है और बाद में पोषाहार की कमी इस समस्या को स्थायी बना देती है. बिहार जैसे यूथफुल स्टेट जहां की आधी आबादी 18 साल से कम उम्र की है और मानव संसाधन ही जहां की सबसे बड़ी पूंजी है, वहां कुपोषण और गंभीर रूप से अतिकुपोषण जैसी समस्या का खात्मा सबसे जरूरी है. तभी बिहार आगे बढ़ सकता है.